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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [337]
शुद्ध श्रमणाचार का फल
अभिघान राजेन्द्र कोश में शुद्ध श्रमणाचार का फल के विषय में कहा है - 'लोक व्यवहार से रहित साधु को जितना सुख प्राप्त होता है वह चक्रवर्ती या देवेन्द्र को भी प्राप्त नहीं होता।अबद्ध आयु शुद्ध सम्यक्त्वी उन श्रमणों मे से कई दुष्कर तथा दुःसह (उपसर्ग, परिषह आदि) को सहन कर कई देवलोक में जाते हैं और कई कर्मरज से मुक्त होकर उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं या देवलोक से पुनः वे निर्ग्रन्थ श्रमण संयम और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मो का क्षय करके तीन, सात या आठ भव में या अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तन काल में मुक्त हो जाते हैं।'
संयम और तप के द्वारा पूर्व के असंख्य भवों द्वारा संचित कर्मक्षय के नाश की विधि को दृष्टांत से समझाते हुए आचार्यश्री ने राजेन्द्र कोश में कहा है - "जिस प्रकार किसी बडे सरोवर का जल खत्म करने के लिए सर्वप्रथम जल के आने के मार्ग रोके जाते हैं, तत्पश्चात् कुछ पानी उलेचकर बाहर फेंका जाता है और कुछ सूर्य की तेज धूप से सूख जाता है। इस प्रकार सरोवर का समूचा जल सूख जाता है, उसी तरह संयमी पुरुष व्रतादि के द्वारा नये कर्मास्रवों को रोक देता हैं और पुराने करोडों भवों से संचित कर्मो को तप के द्वारा सर्वथा क्षीण कर देते हैं। इसी प्रकार जैसे सूखे खोखे काठ को अग्नि शीध्र ही जला डालती हैं; उसी तरह निष्ठा के साथ आचार का पालन करने वाला साधक कर्मो को नष्ट कर डालता हैं। आचार प्रणिधि और उसका फल :
3. नो कित्तिवन्नसद्दसिलोगट्यए आयारमहिट्ठिज्जा अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने आचार के साथ ही
4. नन्नत्थ आरहंतेहि हेउहि आयारमहिट्ठिज्जा। आचार-प्रणिधि एवं आचार-समाधि का भी वर्णन किया हैं।
आचार-समाधि को प्राप्त करने के लिए विभिन्न भौतिक आचार-प्रणिधि अर्थात् इन्द्रियों और मन को आचार में प्रयोजनवश आचार-पालन का निषेध करते हुए कहा है - साधक सुप्रणिहित/एकाग्र करना । जिस तरह संपत्ति को खजाने में सुरक्षित रखा के आचार का पालन एकमात्र वीतराग - पद की प्राप्ति के उद्देश्यों जाता हैं, वैसे ही आचार रुपी संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए (आर्हत-हेतुओं) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार के ऐहिक अथवा 'आचार-प्रणिधि' अर्थात् आचार की उत्कृष्ट निधि (कोषागार) हैं। पारलौकिक सुख-समृद्धि, भोगोपभोग, सांसारिक स्वार्थ-सिद्धि, कीर्ति,
आचार रुप निधि जिस साधक/श्रमण को उपलब्ध हो जाती श्लाघा आदि उद्देश्यों को लेकर नहीं करना चाहिए। है; उसके जीवन का आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। उसका प्रत्येक
आचार-समाधि का फल बताते हुए राजेन्द्र कोश में कहा व्यवहार अन्य साधकों की अपेक्षा भिन्न हो जाता है। उसका खाना- है - "जो जिनवचन में रत है, क्रोध से नहीं भन्नाता (प्रभावित पीना, उठना-बैठना, चलना-इत्यादि सब विवेकयुक्त होता है । इन्द्रिय- नहिं होता), सूत्र ज्ञान से परिपूर्ण है और जो अतिशय मोक्षार्थी है, संयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है। स्थूल रुप से पूर्वोक्त वह दान्त मुनि आचार-समाधि द्वारा आस्रव-निरोध करके अपनी आत्मा आचार-पालन भी सहज हैं परन्तु अन्तरंग से आचार में निष्ठा/आस्था को मोक्ष के अतिनिकट करने वाला होता हैं ।।। और एकाग्रतापूर्वक प्रवृत्ति करना कठिन हैं।
आचार का सार :अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार-प्रणिधि का फल बताते
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार का सार बताते हुए कहा है हुए कहा है - आचार-प्रणिधि के फलस्वरुप संयमी जीवन यापन - जिनवाणी (द्वादशांगी-सकल वाङ्मय) का सार एवं आधार करने वाले श्रमण को एहलौकिक वा पारलौकिक तीन उपलब्धियाँ आचारहै, आचारही मोक्ष का प्रधान हेतु है।जिनाज्ञा-पालन आचार प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार हैं
का सार है । जिनाज्ञा-पालन का सार प्रस्मणा अर्थात् वस्तु स्वस्म 1. कषाय - विषय आदि से अपनी रक्षा करने और कर्म
का सत्य प्रतिपादन करना है। अर्थात् अज्ञ जीवों को सदुपदेश देकर शत्रुओं को हटाने में समर्थ हो जाता है।'
सन्मार्ग पर लाना है। प्रस्मणा का सार चरण अर्थात् आचरण और 2. अग्नि- तप्त स्वर्ण की तरह पूर्वकृत कर्म-मल से रहित
आचरण का सार निर्वाण है। निर्वाण का सार अव्याबाध सुख हैं। हो जाता है।
1. अ.रा.पृ. 7/803 3. अभ्र - पटल मुक्त चन्द्रमा की भाँति कर्मपटलमुक्त सिद्ध 2. अ.रा.पृ. 1/271 आत्मा बन जाता हैं।
3. अ.रा.पृ. 1/313; दशवैकालिक सूत्र 3/14,15
4. अ.रा.पृ. 4/2199, 2200; उत्तराध्ययनसूत्र 30/5-6 आचार-समाधि :
5. अ.रा.पृ. 7/494; आचारांग नियुक्ति 234 अभिधान राजेन्द्र कोश में 'आचार-समाधि' की व्याख्या
6. अ.रा.पृ. 2/386; 'आयार-पणिहि' शब्दे करते हुए आचार्यश्रीने कहा है- जिस आचार के द्वारा आत्मा का 7. अ.रा.पृ. 2/387; दशवैकालिक सूत्र 8/62 हित होता हो, वह है आचार-समाधि । राजेन्द्र कोश में इसके चार
8. अ.रा.पृ. 2/387; दशवैकालिक सूत्र 8/63 भेद बताये हैं। - चउव्विहा खलु आयार-समाही भवइ । तं जहा
9. अ.रा.पृ. 2/387; दशवैकालिक सूत्र 8/64
10. अ.रा.पृ. 2/389; दशवैकालिक सूत्र 9/4/7 1. नो इहलोगट्ठाए आयारमहिट्ठिज्जा।
11. अ.रा.पृ. 2/389; दशवैकालिक सूत्र-9/4/5 2. नो परलोगट्टाए आयारमहिट्ठिज्जा ।
12. अ.रा.पृ. 2/372; आचारांग नियुक्ति-16
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