SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [338]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ख. श्रावकपरक शब्दावली अभिधान राजेन्द्र कोश में 'श्रावक' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है- " श्रृणोति जिनवचनमिति श्रावकः । " अर्थात् जो जिनेश्वर भगवान के वचनों को श्रद्धापूर्वक (जीवन में उतारने के लिए) सुनता है; वह श्रावक हैं । अथवा 'अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धिसम्पत्, परं समाचारमनुप्रभातम् । श्रृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥2 अर्थात् प्राप्त की हुई सम्यग्दृष्टि आदि विशुद्धि संपत्तियुक्त साधुजन के पास से जो प्रतिदिन प्रभात में आलस्य रहित होकर उत्कृष्ट / श्रेष्ठ समाचारी अर्थात् जिनसिद्धान्त को सुनता है उसे जिनेन्द्र भगवान 'श्रावक' कहते हैं । अथवा 'श्रद्धालुतां श्रान्ति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपन्त्यनारतम् । किरन्त्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादयापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ।"3 श्रन्ति- पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीत वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्म जो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति' । अर्थात् जो तत्त्वार्थ को जीवन में पहचानता है, तत्त्वार्थ पर श्रद्धा से निष्ठा लाता है; उसके लिए '' शब्द हैं; गुणवान् सात क्षेत्रो में सुपात्रदान में जो धनबीज का वपन करता है (बोता है) अर्थात् जो सुपात्र दान देता है; उसके लिए 'व' शब्द है और जो क्लिष्ट कर्मरज को फेंक देते है; उसके लिए 'क' शब्द है। इस प्रकार श्रावक शब्द बना है। जिनवचन में श्रद्धा रखनेवालों को श्रावक कहते हैं। जो साधु के पास साधुसमाचारी (उत्सर्ग से, अपवाद से साधु-श्रावक दोनों की समाचारी) को सुनता है, वह 'श्रावक' कहाता है।' अभिधान राजेन्द्र में श्रावक के विषय में कहा है " संपत्तदंसणाई पइदिअहं जइ जणा सुणेई य । सामायारी परमं जो खलु तं सावगं विन्ति ॥" जो सम्यग्दर्शनादियुक्त मनुष्य प्रतिदिन मुनिजनों के पास जाकर परम समाचारी अर्थात् साध्वाचार और श्रावकाचार सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।" जो परलोक के लिए साक्षात् हितकारी साधु और श्रावकों के अनुष्ठानगर्भित जिनवचन को उपयोगपूर्वक सुनता है, (और) जिसने कर्म (मोहनीय) की सातों प्रकृतियों की स्थिति एक कोडाकोडी सागरोपम के अंदर कर दी है, वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। जिस शुक्लपाक्षिक आत्माने अपना संसार भ्रमण अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल (सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन नामक काल का आधा भाग) के भीतर कर दिया है, वही एसा उत्कृष्ट श्रावक होता है। 8 आवश्यक बृहद्वृत्ति के अनुसार सम्यकत्व प्राप्त जो प्रतिदिन यतियों से धर्मकथा को सुनता है, वह श्रावक है । ज्ञाताधर्मकथांग में जो सम्यग्दर्शन संपन्न हो, जिनशासन की भक्ति करता हो, नित्य षडावश्यक में रक्त हो तथा आत्मा के षट्स्थान की श्रद्धा से युक्त हो, उसे श्रावक कहा है", या जिनशासनभक्त गृहस्थ श्रावक कहलाते हैं।" अणुव्रतधारी या अणुव्रत से रहित जो केवल श्रद्धा रखते हैं दोनों प्रकार के श्रावकों को निशीथचूर्णि में 'श्रावक' कहा है। 2 धर्मशास्त्र श्रवण करने से श्रावक 'ब्राह्मण' कहलाते हैं। 13 - जो देशविरतिपूर्वक अर्थात् अणुव्रतादि का पालन करने के साथ साधु / श्रमणों की उपासना की महिमा से प्रतिदिन बढते हुए संवेगपूर्वक यावज्जीव सूक्ष्म - बादरादि भेदपूर्वक ज्ञानवान् होता है, उसे 'श्रमणोपासक' कहते हैं।4। महाश्रावक : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'महासावग' अर्थात् 'महाश्रावक' का परिचय देते हुए कहा है - " एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चाति दीनेषु महाश्रावक उच्यते ॥ ' ' 5 इस प्रकार (स्थूप्राणातिपातविरमणादि) व्रतों में स्थित जो सात क्षेत्रों में धनरुप बीज की बोवनी करता है और जो दीन-दु:खियों के प्रति अतिशय दया रखते हुए उन्हें अनुकम्पा दान देता है उसे 'महाश्रावक' कहते हैं । आगे महाश्रावक की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टि ‘श्रावक और एकादि अणुव्रतधारी श्रावकों से महाश्रावक विशिष्ट हैं । वह अतिशय पूर्वक निरतिचार सम्यक्त्व Jain Education International 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. अ. रा. पृ. 7/780, आवश्यक बृहद्वृत्ति अध्ययन-4 अ.रा. पृ. 7/780, निशीथ चूर्णि । उद्देश अ. रा.पू. 7/780, अनुयोगद्वार सूत्र अ.रा. पृ. 7/414, भगवती सूत्र 8/5 15. अ. रा.पू. 6/218, योगशास्त्र 3/119 अ. रा. पृ. 7/779 अ. रा. पृ. 77779 12. 13. 14. अ. रा.पू. 6/219 अ. रा. पृ. 7/779 अ. रा. पृ. 77779; स्थानांग 4/4, अ. रा. पृ. 7/779; गच्छाचार पयन्ना 2 अधिकार अ. रा. पृ. 6/219, 7/779, श्रावक प्रज्ञप्ति 2 अ. रा. पृ. 7/780 अ.रा. पृ. 77780, आवश्यक बृहद्वृति, 6 अध्ययन अ.रा. पृ. 77780, ज्ञाताधर्मकथांग 1/16 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy