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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [339] सहित बारह व्रतधारी होता है। जिनमंदिरादि सातों क्षेत्रों में धन वपन क. 1. राजा समान 2. पिता समान 3. माता समान 4. शोक्य करने पूर्वक श्रेष्ठ दर्शन प्रभावकता (शासन प्रभावना) धारण करने समान वाला और दीन-दुःखी जीवों पर अत्यंत कृपा तत्पर 'महाश्रावक' ख. 1. माता-पिता समान 2. भाई समान 3. मित्र समान 4. कहलाता हैं।16 सपत्नी शोक्य समान श्रावक के भेद : ग. 1. दर्पण समान 2. पताका ध्वजा समान 3. स्थाणु (ठुठ) अभिधान राजेन्द्र कोश में 'श्रावक' के भेद-प्रभेद की व्याख्या समान 4. कंटक समान करते हुए कहा गया है कि "धर्म दो प्रकार का है (1) यति धर्म 1. राजा समान : और (2) श्रावक धर्म । जिसमें श्रावक दो प्रकार के हैं - (1) अविरत साधु-साध्वी को किसी प्रकार का उपद्रव होने पर जो आत्म(2) विरत (विरताविरत)।" बल से, धन-बल से या कुटुम्ब-बल से उन उपद्रवों का निवारण अविरत श्रावक : करते हैं; जो साधु-साध्वी के असंबद्ध आचार (शिथिलाचार या साध्वाचार जो सुदेव अर्थात् वीतराग देव, सुगुरु अर्थात् कञ्चनकामिनी विरुद्ध आचार) को देखकर एकान्त में इन्हें डाँटकर इन्हें समझानेवाले, के त्यागी और पञ्चमहाव्रतधारी गुरु और सुधर्म अर्थात् केवली प्रकाशित स्थापनाजी के समक्ष निजगच्छपरम्परानुसार आवश्यक क्रिया करनेवाले, दयामय धर्म में श्रद्धा तो रखते हैं परन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते उचितकरणशील, गुणानुरागी, मध्यस्थ, दीर्घदर्शी, स्वगण या परगण उन्हें 'अविरत' श्रावक कहते हैं।। में गुणयुक्त साधु को प्रसन्नचित्त से प्रमोदभावपूर्वक वंदन, नमन, आदरविरत/देशविरत (विरताविरत) श्रावक : सत्कार, वैयावृत्त्यादि करनेवाले परंतु निजगच्छ (स्वयं की गुरु परम्परा) जो श्रावक श्रद्धापूर्वक जिनवचन का श्रवण करता है और की समाचारी के संपूर्ण पालक श्रावक महाराजा तुल्य हैं। सम्यक्त्व सहित अणुव्रतादि श्रावक धर्म को प्रत्याख्यानपूर्वक ग्रहण 2. माता-पिता समान : करके भावसहित उसका पालन करता है, उसे विरत श्रावक कहते माता-पिता समान श्रावक भी एसे ही होते हैं परन्तु इतना हैं।" इसे अविरत श्रावक की अपेक्षा से व्रत ग्रहण करने के कारण विशेष है कि वे गच्छवासी आचार्य को देखकर उन्हें नित्य नहीं 'विरत' और साधु की अपेक्षा से आंशिक विरति पालन करने कारण कोसते और पुत्र की तरह आहारादि से उनका पोषण करते हैं परन्तु 'विरताविरत' श्रावक कहते हैं। इसे ही 'देशविरत' श्रावक भी निजकुल क्रमागत (परम्परागत) (आचार) का उल्लंघन नहीं करते । अतः कहतेहैं ।। वे आराधक हैं, विराधक नहीं। श्रावक चार प्रकार से : 3. भ्रातृसमान : नामादि चारों निक्षेप के अपेक्षा से भी श्रावकों के चार प्रकार होते जो श्रावक हृदय के भावपूर्वक बिना किसी कारण के साधु हैं के प्रति एकान्त (एकतरफा) वात्सल्यभाव धारण करते हैं, उन्हें 'भातृ (1) नाम श्रावक - सचेतन या अचेतन पदार्थ, जिसका नाम समान' श्रावक कहते हैं। 'श्रावक' रखा गया हो, वह 'नाम श्रावक' कहलाता हैं। 4. मित्र समान : (2) स्थापना श्रावक - श्रावक का पुस्तकादि गत चित्र, फोये जो स्नेह के कारण तत्त्वचर्चादि में निष्ठुर वचन बोलकर मूर्ति (बीसस्थानक यंत्रादि में तथा अन्यत्र श्रावक की मूर्ति साधु को अप्रीति भी उत्पन्न करते हों, और प्रयोजन उपस्थित होने स्थापित की गई हो), आदि 'स्थापना श्रावक' कहलाते हैं। पर साधु के ऊपर अत्यन्त वात्सल्य भी रखते हों, वे श्रावक 'मित्र (3) द्रव्य श्रावक - जिन्हें सुदेव-गुरु-धर्म के प्रति बिल्कुल समान' हैं। श्रद्धा न हो या दृढ श्रद्धा न हो और केवल आजीविका के लिए ही 'श्रावक' नाम धारण किया हो, वह 'द्रव्य श्रावक' कहलाता है। भावरहित केवल द्रव्य अनुष्ठान (क्रिया) करने 16. अ.रा.पृ. 71219 17. अ.रा.पृ. 7/780,786 वाले भी 'द्रव्य श्रावक' कहलाते हैं। तथा निश्चयनय के मत 18. अ.रा.पृ. 1/809, सूत्रकृताङ्ग-1/1/1, समवयाङ्ग-14 वाँ समवाय, भगवती से 'शोक्य (सपत्नी)' या काँटे जैसे श्रावक 'द्रव्य श्रावक' सूत्र 11 कहलाते हैं। 19. अ.रा.पृ. 6/1229, 7/786 (4) भाव श्रावक - जो श्रद्धापूर्वक जिनवचन (जिनशासन के 20. अ.रा.पृ. 6/1229, पञ्चाशक विवरण 6; समवयांग, 14 वाँ समवाय 21. अ.रा.पृ. 4/2632, पञ्चाशक विवरण-10 नियमों, जिनवचन) को श्रवण करता है, दीन-दुःखी की 22. तथाहि-नामश्रावकः; सचेतनाचेतनस्य पदार्थस्य यत् श्रावक इति नाम सेवा में द्रव्य वपन (खर्च) करता है, सम्यक्त्व को प्राप्त करता क्रियते । स्थापना श्रावकश्चित्रपुस्त (का) - कर्मादिगतः । द्रव्य श्रावको है, अशुभ/पाप कार्यों का नाश करता है, संयम का पालन ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो देवगुरुतत्त्वादिश्रद्धानविकलस्तथाविघाकरता है, उसे भाव श्रावक कहते हैं। ऽऽजीविकाहेतोः श्रावकाकारधारकश्च । भाव श्रावकस्तु - "श्रद्धालुतां श्राति श्रावक अन्य चार प्रकार से : श्रृणोति शासनं, दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् । कृन्तत्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणः ॥1॥" - अ.रा.पृ. 7786 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने ने अभिधान राजेन्द्र 23. ....... निश्चयनयमते पुनः सपत्रिखरण्टसमानौ मिथ्यादृष्टिमायौ द्रव्यश्रावको । कोश में श्रावकों के तीन प्रकार से चार-चार भेद दर्शाये हैं, जो अ.रा.पृ. 7786 निम्नानुसार है24 24. अ.रा.पृ. 7/414; 7/415; सूत्रकृतांग-320, 321, 321; स्थानांग-4/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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