________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
"हिंसा से विरक्त व्यक्ति अपंग एवं रोगी होते हुए भी हिंसारत सर्वाङ्ग सम्पन्न व्यक्ति से श्रेष्ठ है। विघ्नशांति हेतु की गई हिंसा भी विघ्नों को उत्पन्न करती है और कुलाचार पालन हेतु की गई हिंसा कुल का विनाश कर देती हैं। हिंसा के परित्याग के बिना मनुष्य का इन्द्रिय दमन, देवोपासना, गुरुसेवा, दान, अध्ययन और तप- ये सब निरर्थक हैं, निष्फल हैं 128
-
स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत के अतिचार :(1) वघ डंडा, बेंत, चाबुक आदि से प्राणियों का घात करना, अपने पालतु पशुओं तथा परिजनों (परिवार के लोग, बच्चें या नौकर-चाकरादि) को पीडा पहुँचाना, तथा कठोर एवं अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर किसी को पीडा पहुँचाना । (2) बंधन - पालतू पशु-पक्षियों को वे हिल-डुल भी न सकें तथा विपत्ति के समय प्राण-रक्षा के लिए भी भाग न सकें, इस तरह बाँधना 'बंधन' नामक अतिचार हैं।
(3) छेदन दुर्भावनापूर्वक पालतु पशु-पक्षियों के नाक-कान आदि छेदना, नकेल लगाना, नाथ देना आदि 'छेदन' नामक अतिचार हैं।
-
(4) अतिभारारोपण - दुर्भावनावश अपने आश्रित कर्मचारि पर या पशुओं पर उनकी क्षमता से अधिक भार लादना या उनसे शक्ति से अधिक काम लेना आदि 'अतिभारारोपण' नामक अतिचार हैं।
( 5 ) अन्नपान निरोध (भत्त-पाण व्युत्सर्ग) - दुर्भावनावश पशु-पक्षियों के या अपने आश्रितों के अन्नपान का निरोध करना, उन्हें जान-बूझकर भूखा रखना, समय पर उनके लिए भोजन - पानी की व्यवस्था न करना 'अन्नपान-निरोध' हैं। स्थूल मृषावाद विरमण व्रत :
गृहस्थ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेष, हास्य, भय, लज्जा, क्रीडा, रति, अरति, दाक्षिण्य, मात्सर्य, विषाद आदि के कारण तथा हर्ष शोक; कार्यादि में नियत होने के कारण और प्राणवध तथा प्राणिवधादि कारण से झूठ बोलता हैं। 30 वह झूठ चार प्रकार का हैं(1) भूत निह्नव नास्ति आत्मा' इत्यादि (2) अभूतोद्भावन- 'आत्मा श्याम तण्डुल जैसा है' इत्यादि (3) अर्थान्तर 'गाय' को 'अश्व' कहना
(4) गर्हा 1 - गर्हा तीन प्रकार की होती हैं।
-
(क) सावद्य व्यापार प्रवर्तिनी - 'खेत जोतिये' इत्यादि । (ख) अप्रिय काने को 'काना' है एसा कहना । (ग) आक्रोशयुक्त भाषा - अपशब्द इत्यादि ।
-
परंतु अहिंसा की उपासना के लिए सत्य की उपासना अनिवार्य है। सत्य के बिना अहिंसा नहीं और अहिंसा के बिना सत्य नहीं। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। तथापि गृहस्थ जीवन में झूठ का सर्वथा त्याग संभव नहीं है। इसलिए उसे स्थूल झूठ का ही त्याग करवाया जाता हैं। 32 अभिधान राजेन्द्र कोश एवं 'सावयपण्णत्ति' आदि ग्रंथो के अनुसार कन्या- अलीक, गो- अलीक व भूमि- अलीक अर्थात् कन्या, गौ और भूमि के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर दबा लेना और झूठी गवाही देना - इनका त्याग स्थूल मृषावाद विरति हैं। 33
Jain Education International
चतुर्थ परिच्छेद... [373]
जिसके बोलने से दूसरों को पीडा अति पीडा या अति क्लेश हो या अनर्थ हो वह भी स्थूल मृषावाद हैं। 34 श्रावक इसका भी त्याग करता है। सत्याणुव्रती श्रावक को असत्य वचन, तिरस्कारयुक्त वचन, झिडकते हुए वचन, कठोरवचन, अविचारपूर्ण वचन और क्लेशकारी वचन नहीं बोलने चाहिए। 35 क्योंकि अलीक वचन नीचताकारक, भयंकर, दुःखकर, अपयश: कर, वैरजनक, रति- अरति; राग-द्वेष और संक्लेशजनक, निष्फल, नीचजनसेवित, प्रशंसारहित, विश्वासरहित, पीडाकारक, अतितीव्रकृष्णलेश्यायुक्त, दुर्गतिदायक, संसारवृद्धिकारक और अधर्मकारक होता हैं । 36
लाभ :
सत्यवक्ता महासमुद्र में भी नहीं डूबता हैं। पानी के भँवर में फँसता नहीं है। अग्नि में जलता नहीं है। उष्ण तेल भी उसके लिए शीतल जल हो जाता हैं। पर्वत से गिराने पर भी वह मरता नहीं है। युद्ध में हंमेशा विजय प्राप्त होती हैं। 37 उनकी चरणरज से पृथ्वी पावन बनती हैं। 38
पूर्वकर्मवश यदि वह आत्मा दुर्जन, शत्रु या हिंसको के मध्य फँस भी जाय तो भी, निर्दोष छूटता है इतना ही नहीं, देवीदेवता सपरिवार उनका सान्निध्य करते हैं । 39 हानि :
अलीक वचन से जीव वेदना, दुःख, संकट, नरक-तिर्यंच गति, परवशता, अर्थभोगहानि, मित्ररहितता, देहविकृति, कुरुपता, अतिकर्कश स्पर्श, श्याम रंग, आभारहितता, असारकाया, बधिरत्व, अंधत्व, मूकत्व, तोतलापन, लोकनिंदा, दासता, किंकरत्व, अज्ञान, अशान्ति, अपमान, प्रेमनाश, परिवार क्षय, कलंक, कठोर वचन श्रवण, कुभोजन, कुवस्त्र, कुस्थानादि को प्राप्त करता हैं । 40
कन्यादि के विषय में झूठ बोलने पर प्राणहिंसा, वैर - विरोध, भोगांतराय की प्राप्ति होती हैं। समाज में मान्यता, पूजा - आदर-सत्कार, प्रतिष्ठादि का नाश होता है।" न्यासापहार से विश्वासघात एवं कुटसाक्षी से पुण्य का नाश होता हैं । 42
परभव में कन्दर्प, अभियोगिकादि निम्न देवगति में जन्म और वहाँ से दूसरे भव में मनुष्य गति में यदि जन्म हो भी जाय तो भी भवान्तर में उसका जीवन हास्यास्पद और निंदनीय बनता हैं 143
28. वही-2/28-31
29.
30.
31.
32.
33.
34.
35.
36.
37.
38.
39.
40.
अ.रा. पृ. 5/847; तत्त्वार्थ सूत्र - 7 / 21; सावय पण्णत्ति - 258
अ.रा. पृ. 1/773, 6/455; स्थानांग - 10/3
अ. रा. पृ. 1/773
अ.रा. 6/326. 1/773 र.क. श्री. 55
अ. रा. पृ. 1/773, 6/326-327; सावयपण्णत्ती-260-262
अ.रा. पृ. 1/773
स्थानांग-6/3
41.
42.
अ. रा.पू. 1/773
अ. रा.पू. 6/228
योगशास्त्र -2/63
अ.रा.पु. 6/228
अ.रा. पृ. 1/783, 784
अ.रा. पृ. 1/778; 6/327
योगशास्त्र -2/55
43. अ.रा.पू. 6/332
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org