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[374]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
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स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के अतिचार :
अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के निम्नाङ्कित पाँच अतिचार हैं(1) सहसाभ्याख्यान - सहसा किसी प्रकार आगा-पीछा सोचे
बिना एकदम किसी पर झूठा दोष या मिथ्या कलंक मढ देना, झूठ-मठ अपराध लगा देना, जैसे 'तू ही तो चोर हैं', तू परस्त्रीगामी है' इत्यादि रुप से कहना। -'सहसाभ्याख्यान' कहलाता हैं। रहस्याभ्याख्यान - राज्यादि कार्य संबंधी गुप्त बातों को बिना उपयोग के अनजाने में प्रकट कर देना, विश्वस्त व्यक्ति की गुप्त बात प्रकट करना, किसी की गुप्त बात, गुप्त मंत्रणा
और गुप्त आकार आदि प्रगट करना 'रहस्याभ्याख्यान' हैं। (3) स्वदारा-मंत्रभेद - स्वयं की स्त्री की एकान्त अवस्था के
स्वरुप या स्वपत्नी के द्वारा एकान्त में कही हुई बात दूसरों
को कह देना 'स्वदारामन्त्रभेद' हैं। (4) मिथ्योपदेश - असत् उपदेश/असत्य के प्रत्याख्यान व सत्य
के नियम लेनेवालों के लिए परपीडाकारी बोलना, सच्चा झूठा समझाकर किसी को उल्टे रास्ते डालना - यह मिथ्या
उपदेश हैं। (5) कूटलेख - झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज बनाना, दूसरे
के हस्ताक्षर जैसे अक्षर बताकर लिखना अथवा नकली हस्ताक्षर कर देना, पाँचवां अतिचार है। मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठी लिखा-पढी करना तथा खोट सिक्का चलाना आदि कूटलेख क्रिया हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र में स्थूल मृषावादविरमण व्रत के 1. मिथ्योपदेश 2. रहस्याभ्याख्यान 3. कूटलेख क्रिया 4. न्यासापहार और 5. साकारमन्त्र भेद - ये पाँच अतिचार बताये हैं।45
रत्नकरंडक श्रावकाचार में इस व्रत के 1. परिवाद (मिथ्योपदेश) 2. रहोभ्याख्यान 3. पैशुन्य 4. कूटलेखकरण और 5. न्यासापाहार - ये पाँच अतिचार बताये हैं।46
योगशास्त्र में इस व्रत के 1. मिथ्योपदेश 2. सहसाभ्याख्यान 3. गुह्यभाषण 4. साकारमंत्र भेद और 5. कूट लेख - ये पाँच अतिचार दर्शाये हैं। स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत:
जिस पर अपना स्वामित्व नहीं हो - एसी किसी भी पराई वस्तु को उसके स्वामी आदि की बिना अनुमति के ग्रहण करना अदत्तादान/चोरी हैं। श्रावक तृतीय अणुव्रत में एसी स्थूल चोरी का त्याग करता हैं।48 इस व्रत को अस्तेयाणुव्रत या अचौर्याणुव्रत भी। कहते हैं। स्थूल अदत्तादान दो प्रकार से हैं : सचित्त और अचित्त । सचित्त- द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्रादि का ग्रहण । अचित्त- वस्त्र, सुवर्ण, रत्नादि का ग्रहण ।9.
स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत धारक श्रावक सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार की स्थूल चोरी का त्याग करता हैं। वह मार्ग में पडी हुई, रखी हुई या किसी की भूली हुई अल्प या अधिक मूल्यवाली किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता 150
अचौर्यव्रती एसी समस्त चोरियों का त्याग करता हैं जिसे
करने से राजदण्ड भोगना पडता हैं; समाज में अविश्वास बढता है; तथा प्रामाणिकता खंडित होती हैं या प्रतिष्ठा को धक्का लगता हैं। किसी को ठगना/ जेब काटना /ताला तोडना /लूटना /डाका डालना, दूसरों के घर में सेंघ लगाना, किसी की संपत्ति हडप लेना, किसी का गडा धन निकाल लेना आदि स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। लाभ :
अदत्तादान का त्याग प्रत्यक्ष प्रवचन (जिनवचन) हैं। इससे व्रती का कल्याण होता हैं, जीवन शुद्ध होता हैं, सरलता प्राप्त होती हैं। वह शीघ्र ही समस्त दुःख और पापकर्मो का क्षय करता हैं ।।। लक्ष्मी स्वयंवरा की तरह चली आती हैं। उनके समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं। सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती हैं और उन्हें स्वर्गादि सुख प्राप्त होते हैं।52 हानि :
चोरी करने से या चोर को सहयोग देने से इस लोक में राजदण्ड, वध, अङ्गछेदन, कारावास, देशनिकाला, बंधन, उत्पातनमर्दन, स्वजनादि का वियोग, धिक्कार, लोकनिंदा, वेदना, व्याधि, अकालवृद्धत्व, अनिष्ट वचन, कुत्सितदेह और अंत में नरक गति तथा पर भव में अनार्यत्व, हीनकुल, नीचगोत्र, पशुवद् जीवन, जडबुद्धि, धर्महीनता, मिथ्यात्व और गंभीर दुःख के साथ अनंत संसार भ्रमण प्राप्त होता हैं।53 अचौर्य/स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पाँच अतिचारु :(1) स्तेनाहत - चोर के द्वारा चोरी की गई वस्तु को खरीदना
या अपने घर में रखना, चोरी का माल खरीदना, चोरी करने के समान ही दूषित प्रवृत्ति हैं। तस्कर प्रयोग - व्यक्तियों को रखकर उनके द्वारा चोरी, ठगी आदि करवाना अथवा चोरों को चोरी करने में विभिन्न
प्रकार से सहयोग करना। (3) विरुद्ध राज्यातिक्रम - राजकीय नियमों का उल्लंघन करना,
राजकीय आदेशों के विपरीत वस्तुओं का आयात-निर्यात करना तथा समुचित राजकीय कर का भुगतान नहीं करना। विरोधी राज्यों में जाकर गुप्तचर का काम करना, निश्चित सीमातिक्रमण के द्वारा दूसरे राज्यों की भूमि हडपने का प्रयास करना अथवा
बिना अनुमति के दूसरे राज्य में प्रवेश करना। (4) कूटतुला-कूटमान - न्यूनाधिक मापतौप करना, मापतौल
में बेईमानी करना भी चोरी हैं। गृहस्थ को न्यूनाधिक मापतौल नहीं करते हुए प्रामाणिक मापतौल करना चाहिए।
44. अ.रा.पृ. 6/326; सावय पण्णत्ति-260-262 45. तत्त्वार्थ सूत्र 7/22 46. रत्नकरण्ड श्रावकाचार-56 47. योगशास्त्र-3/91 48. अ.रा.पृ. 1/540; उपासक दशांग-अ.1 49. अ.रा.पृ. 1/540 50. र.क.श्रा.-57 51. अ.रा.पृ. 1/543 52. योगशास्त्र-274, 75 53. अ.रा.पृ. 1/535, 536; योगशास्त्र-2/68 से 73 54. अ.रा.पृ. 1/540; र.क.श्रा.-58; तत्त्वार्थ सूत्र-7/23 पर तत्त्वार्थ भाष्य;
सावय पण्णत्ति-268
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