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[372]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सम्यक्त्व सहित/श्रद्धापूर्वक होना हैं।" क्योंकि अभिधान राजेन्द्र (घ) सापराध हिंसा दो प्रकार से - गुरु अपराध - लघु कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि 'सम्यक्त्व' श्रावकधर्म का मूल अपराध - हैं। सम्यक्त्व रहित अणुव्रतादि श्रावकधर्म, किया गया नमस्कार,
अपराधी का अपराध बहुत अधिक है या अल्प, इसका गुणोत्कीर्तन, जिनवन्दन, जिन-पूजा (अर्चन) आदि भी करनेवाले चिन्तन करना। अभिग्रहधारी श्रावक 'श्रावकाभास' है; उन्हें ही श्रावक धर्म का (डा सापराध हिंसा दो प्रकार से - 'पार्श्वस्थ' (पासत्था) कहते हैं। आनंदादि श्रावकोंने भी भगवान (1) निरपेक्ष - बिना किसी कारण के हिंसा करना । से प्रथम सम्यक्त्व व्रत अंगीकार करने के बाद ही अन्य अहिंसादि (2) सापेक्ष - निरपराधी परंतु अतिशय प्रमादी पुत्रादिक 12 व्रत अंगीकार किये थे।20 अतः यहाँ भी द्वादशव्रत के पूर्व
को तथा भेस-वृषभादि को रस्सी आदि सर्वप्रथम सम्यक्त्व व्रत का वर्णन करना प्रसंगोचित होने से सम्यक्त्व
से बाँधना। व्रत का वर्णन किया जा रहा हैं।
यदि सम्पूर्ण जीवदया के 20 भाग किये जाये तो 20 भाग सम्यक्त्व व्रत :
जीवदया पूर्ण दया हैं; 10 भाग अर्ध दया; 5 भाग चतुर्थाश दया, मिथ्यात्व के त्यागपूर्वक मोहनीय कर्म के क्षय/उपशम/क्षयोपशम
ढाई भाग अष्टमांश दया और सवा भाग षोडशांश दया - इस प्रकार होने पर प्रशमादि लिङ्गपूर्वक जिनोक्त तत्वों में श्रद्धारुप शुभ आत्मपरिणाम
जीवदया के भेद हैं। इसमें से श्रावक 'स्थूल-त्रस निरपराधी जीवों की प्राप्ति होने पर निम्नाङ्कित विधि-निषेधरुप आचार का पालन श्रावक
को बिना कारण (निरपेक्ष) संकल्पपूर्वक (मारने की बुद्धि से) मारूँगा का सम्यक्त्व व्रत है। सुदेव-सुगुर-सुधर्म में श्रद्धा रखना, मिथ्यात्व
नहीं, मरवाऊँगा नहीं' - इस प्रकार सवा भाग अर्थात् षोडशांश जीवदया का (मिथ्याश्रद्धान), मिथ्याज्ञान का और कुदेव-गुरु-कुधर्म का त्याग
के पालन की प्रतिज्ञापूर्वक 'स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत या अहिंसाणुव्रत
की प्रतिज्ञा करता हैं। करना, अन्यतीर्थिक, चरक, परिव्राजक, भिक्षु, संन्यासी आदि, रुद्रविष्णु-बुद्ध आदि अन्यतीर्थिक देवता तथा अन्यतीर्थिकों के द्वारा गृहीत
गृहकार्य, कृषिकार्यादि में श्रावक के द्वारा पृथ्वीकायादि जीवों जिनप्रतिमा, तथा वीरभद्र, महाकालादि को वंदन-नमन-गुणोत्कीर्तनादि
की हिंसा, व्यापारादि में आरंभ जनित हिंसा, सामाजिक, राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं करना; उनके साथ आलाप-संलाप, आहार-दान आदि नहीं करना;
को बनाये रखने हेतु आपराधिक हिंसा, पारिवारिक शांति एवं व्यवस्था यदि राजा-गण-बल-देवता-वृद्धजन या आजीविका के हेतुभूत होने
तथा गृहस्थ जीवन की व्यवस्था हेतु सापेक्ष हिंसा का सर्वथा त्याग पर एसा करना भी पड़े तो भी मोक्षदाता देवगुरु-धर्म के रुप में
संभव नहीं होता, फिर भी श्रावक हमेशा निरर्थक हिंसा से दूर रहता श्रद्धा नहीं करना आदि निषेधपरक आचार हैं।
हैं और सकारण हिंसा से भी बचने का प्रयत्न करता है ।24
लाभ :सम्यक्त्व के पाँच अतिचार :
__इस व्रत के पालन से आरोग्य, अप्रतिहत उदय (उन्नति), (1) शंका (2) कांक्षा (3) विचिकित्सा (4) परपाषण्डप्रशंसा और (5) परपाषण्ड संस्तव (सम्यक्त्व विषयक विस्तृत वर्णन प्रस्तुत
आज्ञाकारित्व (एश्वर्य, स्वामित्व), अनुपम रुप-सौंदर्य, उज्जवल कीर्ति, शोध प्रबंध में परिच्छेद 4 क (2) पर किया गया हैं)- ये सम्यक्त्व
धन, यौवन, निरुपक्रमी दीर्घायुष्य, भद्रप्रकृतियुक्त परिवार, पुण्यशाली के पांच अतिचार हैं ।22
पुत्र आदि चराचर विश्व की श्रेष्ठ वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। यह सब
जीवदया पालन का फल हैं।25 स्थूल प्राणातिप्रातविरमण व्रत :
हानि :यहाँ स्थल प्राणातिपात विरमण व्रत के बारे में चर्चा करने
जीवहिंसा करने से व्यक्ति को पङ्गता, कुणिता, कोढादि से पूर्व हम हिंसा-अहिंसा के भेद-प्रभेद पर दृष्टिपात करेंगे।
महारोग, प्रियवियोग, शोक, अपूर्णायु/अल्पायु, दुःख, दुर्गति, नरक(क) हिंसा दो प्रकार से - स्थूल और सूक्ष्म :
तिर्यंचगति और अनंतसंसार भ्रमण प्राप्त होते हैं।26 अत: विवेकी पुरुषों (1) स्थूल - द्विन्द्रियादि त्रस जीवों की हिंसा।
को त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करना चाहिए इतना ही नहीं (2) सूक्ष्म - पृथ्वीकायादि पाँचों एकेन्द्रियों के बादर
अपितु अहिंसा धर्म के ज्ञाता मोक्षाभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की जीव (सूक्ष्म एकेन्द्रिय अवध्य होने से)
भी निरर्थक हिंसा न करें।27 की हिंसा।
हिंसा की निंदा करते हुए आचार्य हेमचन्द्रने कहा है कि, (ख) स्थूल हिंसा दो प्रकार से : संकल्पजा - आरम्भजा (1) संकल्पजा - माँस, अस्थि, चमडी, नख, केश, दाँत 17. अ.रा.पृ. 7785; श्रावक प्रतिक्रमण, पाक्षिक अतिचार, अन्तिम अनुच्छेद आदि का व्यापार।
18. अ.रा.पृ. 7/497
19. अ.रा.पृ. 1/417 (2) आरम्भजा - कृषि आदि संबंधी।
20. उपासक दशांग-1 अध्ययन (ग) आरम्भजनित हिंसा दो प्रकारसे : निरपराध - सापराध
21. अ.रा.पृ. 7/496, 497; रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सम्यग्दर्शनाधिकार (1) निरपराध हिंसा - जिसने किसी प्रकार का अपराध
22. अ.रा.पृ. 7/497 नहीं किया हो।
23. अ.रा.पृ. 5/846 (2) सापराध हिंसा - जिसने व्रती का कुछ अपराध किया
24. अ.रा.पृ.5/847
25. अ.रा.पृ. 5/846 हो या देश, समाज, धर्म को हानि
26. वही पहुँचाता हो।
27. योगशास्त्र-2/19-20-21
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