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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [371] देशविरति सम्यक्त्व पूर्वक अणुव्रतादि बारह व्रतों को अङ्गीकार करना 'देशविरतित्व है। अभिधान राजेन्द्र कोश में अणुव्रतों का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि व्रत श्रावकाचार का आधारभूत तत्त्व हैं। अनैतिक आचार से विरति या हिंसादि पाँचों आस्रवों से विरति ही व्रत हैं। व्रत वस्तुत: वह धार्मिक कृत्य या प्रतिज्ञा है, जिसके पालन से व्यक्ति अशुभ से मुक्त होता है तथा शुभ और शुद्धत्व की यात्रा करता है। व्रत दो प्रकार के हैं - (1) महाव्रत और (2) अणुव्रत महाव्रतों का विस्तृत वर्णन पूर्व में किया जा चुका है अतः यहाँ सप्रसंग अणुव्रतों का वर्णन अपेक्षित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश एवं अन्य जैनागम ग्रंथो में श्रावक के 12 व्रतों का वर्णन किया गया है, जिसका विभाजन इस प्रकार हैं - (1) पाँच अणुव्रत (2) तीन गुणव्रत (3) चार शिक्षाव्रत ।' अणुव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने कहा है कि, "श्रावक योग्य देशविरतिरुप स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत आदि या स्थूल अहिंसादि पाँच अणुव्रत कहे जाते हैं।''4 ये महाव्रतों की अपेक्षा लघु होते हैं। महाव्रतों की अपेक्षा इनका वर्णन विषय अल्प होता है तथा जैनागमों में जिनेश्वर देवने महाव्रतों के पश्चात् इनका (अणुव्रतों का) उपदेश दिया हैं अतः इन्हें 'अणुव्रत' कहते हैं। जिनेश्वरदेवने कृत, कारित इन दो करणों और मन-वचन काय रुप तीन योगों के द्वारा स्थूल हिंसा और दोषों के त्यागपूर्वक अहिंसा आदि को पाँच अणुव्रत कहा हैं । 'आतुर प्रत्याख्यान' के अनुसार प्राणिवध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), अदत्तादान (चोरी), परस्त्रीसेवन (कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) - इन पाँचों से विरति 'अणुव्रत' हैं। गुणव्रत : जो अणुव्रत के पालन में उपकारी (गुणकारी) या सहायक होते हैं अत: इन्हें गुणव्रत कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में (1) दिक्परिमाणव्रत (2) भोगोपभोगविरमण व्रत और (3) अनर्थदण्डविरमण व्रत - इन तीनों को गुणव्रत कहा हैं। शिक्षाव्रत : श्रावक का लक्ष्य है श्रमण धर्म की ओर बढना । इन व्रतों में श्रावक श्रमणधर्म का अभ्यास या शिक्षा प्राप्त करता हैं अतः इन्हें 'शिक्षाव्रत' कहते हैं। ये शिक्षाव्रत चार हैं - (1) सामायिक व्रत (2) देशावगाशिक व्रत (3) पौषधोपवास व्रत और (4) अतिथिसंविभाग व्रत। यहीं पर आचार्यश्रीने सात शिक्षाव्रतों का भी निर्देश किया है जो कि, गुणव्रतों के भी नित्य अभ्यसनीय होने की अपेक्षा से कहा हैं। क्रमभिन्नता में आचार्यों की विवक्षा की कारणता : यद्यपि अणुव्रतों के नाम और क्रम सभी ग्रंथों में समान है परंतु गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के अभिधान राजेन्द्र कोश में जो क्रम दिया है उनमें और अन्य ग्रंथो में कहीं समानता तो कहीं भेद भी प्राप्त हो रहा है जो निम्नानुसार है - उपासकदशांग सूत्र, योगशास्त्र, और श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र/वंदिता सूत्र में गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का क्रम अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार ही हैं।12 तत्त्वार्थ सूत्र में (1) दिग्व्रत (2) देशावकाशिक व्रत और (3) अनर्थदण्ड व्रत - इन तीनों को गुणव्रत और (1) सामायिक (2) पौषधोपवास (3) भोगोपभोग (उपभोग-परिभोग) परिमाण और (4) अतिथिसंविभाग - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा है । आतुरप्रत्याख्यान में (1) दिग्व्रत (2) अनर्थदण्ड और (3) देशावगाशिक व्रत को गुणव्रत और (1) भोगोपभोग परिमाण (2) सामायिक (3) अतिथिसंविभाग और (4) पौषधोपवास - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा हैं।।4 रत्नकरंडक श्रावकाचार में (1) दिग्व्रत (2) अनर्थदण्ड व्रत और (3) भोगोपभोगपरिमाण व्रत - इन तीनों को गुणव्रत और (1) देशावगाशिक (2) सामायिक (3) पौषधोपवास (4) वैयावृत्त्य - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा हैं।15 कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में 1. दिग्व्रत 2. अनर्थदण्डविरमण व्रत और 3. भोगोपभोग परिमाण व्रत - ये तीन गुणव्रत और 1. सामायिक 2. प्रोषधोपवास 3. अतिथिसंविभाग और 4. देशावगाशिक व्रत - इन चारों को शिक्षाव्रत कहा हैं। यहाँ इन भिन्नताओं में कारण आचार्यों की विवक्षा की विचित्रता मात्र है, विरोध कुछ भी नहीं है। इनमें पं. आशाधरने धर्मामृत सागार में रात्रिभोजनत्याग को छटा अणुव्रत कहा है, जबकि, अन्य सभी आचार्योने इसे भोगोपभोगपरिमाण व्रत के अन्तर्गत माना हैं। इन स्थूल प्राणातिपातादि बारह व्रतों की सार्थकता उनका 1. अ.रा.प. 1/417; तत्त्वार्थसूत्र-7/1; रत्नकरण्ड श्रावकाचार-49 2. अ.रा.पृ. 6/1416: रनकरण्ड श्रावकाचार 50 3. अ.रा.पृ. 1/417; 7/785; श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति-6; योगशास्त्र-2/1%; सागारधर्मामृत 13/4; रनकरण्ड श्रावकाचार 51; चारित्र पाहुड-2; कातिकेय अनुप्रेक्षा-330 4. अ.रा.पृ. 1/417; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा-305 5. अ.रा.पृ. 1/416, 418; रनकरण्ड श्रावकाचार 52 सागारधर्मामृत 13/5; अमितगति श्रावकचार-6/19; पुरुषार्थसिद्धयुपाय 76 7. आतुर प्रत्याख्यान-3 8. अ.रा.पृ. 3/; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, भावार्थ, पृ. 155 9. अ.रा.पृ. 7/812 10. अ.रा.पृ. 7/812; आवश्यकचूणि, अध्ययन-6 11. अ.रा.पृ. 7/812; धर्मसंग्रह 2/2. आतुर प्रत्याख्यान-2 12. योगशास्त्र 2/1-4-74; उपासक दशांग-अ.1; वंदित सूत्र, श्रावक प्रतिक्रमण 13. तत्त्वार्थ सूत्र-7/16 14. आतुर प्रत्याख्यान-4,5 15. र.क.श्रा. 67, 91 16. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा-342 से 368 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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