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________________ [438]... षष्ठ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हय नाणं किया हीणं। आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है। ___ - अ.रा.पृ. 6/443; आवश्यक नियुक्ति -201 नाणं संजमं सारं, संजमसारं च निव्वाणं । ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण पद की प्राप्ति है। ___- अ.रा.पृ. 6/741; आचारांग नियुक्ति-245 देहबलं खलु वीरियं । देह का बल वीर्य ही है। - अ.रा.पृ. 6/934; आवश्यक नियुक्ति भाष्य 123 ववहारोऽपि हु बलवं। संघ एवं समाज व्यवस्था में व्यवहार ही सबसे बलवान है। - अ.रा.पृ. 6/934; आवश्यक नियुक्ति भाष्य 123 नाणेण नज्जए चरणं। ज्ञान से ही चारित्र (कर्तव्य ) का बोध होता है। - अ.रा.पृ. 6/1094; व्यवहार चूलिका भाष्य-7/215 सव्व जगुज्जोयकरं नाणं। ज्ञान विश्व के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करनेवाला है। __ - अ.रा.पृ. 6/1094; व्यवहार भाष्य-7/216 मूलं कोहो दुहाण सव्वाणं। सभी दुःखों का मूल क्रोध है। __ - अ.रा.पृ. 6/1144; धर्मरत्न प्रकरण 1 अधिकार मूलं माणो अणत्थाणं । सभी अनर्थों का मूल अभिमान है। - अ.रा.पृ. 6/1144; धर्मरत्र प्रकरण । अधिकार खंति सुहाण मूलं। क्षमा सभी सुखों का मूल है। - अ.रा.पृ. 6/1144; संबोधसत्तरी 70 विणओ गुणाण मूलं। सभी गुणों का मूल विनय है। - अ.रा.पृ. 6/1144; धर्मरत्न प्रकरण 1 अधिकार अप्पा दंतो सुही होइ। अपने आप पर नियंत्रण रखनेवाला सुखी होता है। - अ.रा.पृ. 6/1162; उत्तराध्यनन 1/15 जो छंदं आराहयई स पुज्जो । जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है। - अ.रा.पृ. 6/1173; दशवैकालिक-9/3/1 विवत्ती अविणीअस्स संपत्ती विणिअस्स य । अविनीत विपत्ति का भागी होता है और विनीत संपत्ति का। - अ.रा.पृ. 6/1173; दशवैकालिक-9/2/22 तवेसु व उत्तम बंभचेरं। तपों में सर्वोतम तप ब्रह्मचर्य है। - अ.रा.पृ. 6/1394; सूत्रकृतांग-1/6/23 णत्थि छुहाए सरिसया वियणा । संसार में भूख के समान कोई वेदना नहीं है। - अ.रा.पृ. 6/1624; ओधनियुक्ति भाष्य-290 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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