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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [313] पुरुष का आहार 32 कवल और स्त्री का आहार 28 कवल के आहार का बतीसवाँ भाग एक कवल कहलाता है। बताया गया है। इससे एक ग्रास भी कम खाने को ऊनोदरिका एसे बत्तीस कवल प्रमाण आहार ग्रहण करना भावकुक्कुटी तप कहते हैं। ऊनोदरिका के प्रकार - हितकारी- द्रव्य से अविरुद्ध, प्रकृत्यानुसार, और दोष रहित अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'ऊनोदरिका द्रव्य एषणीय आहार करनेवाले, और भाव भेद से दो प्रकार की बतायी है। प्रकारान्तर से 1. मिताहारी - प्रमाणसर (32 कवल) आहार करनेवाले द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव और 5. पर्याय भेद से इसके अल्पाहारी - भूख से कम आहार करनेवाले साधुओं की पाँच प्रकार हैं। वैद्य चिकित्सा नहीं करते, उनको रोग नहीं होते क्योंकि वे 1. द्रव्य ऊनोदरिका- आहार-पानी, वस्त्र-पात्रादि आवश्यकता स्वयं ही स्वयं के वैद्य हैं ।54 से अल्प लेना द्रव्य ऊनोदरिका है। इसी प्रकार पानी की भी ऊनोदरिका जाननी चाहिए। यहाँ 2. क्षेत्र ऊनोदरिका - निश्चित किए गए ग्राम-नगरादि स्थान पुरुष के समान स्त्रियों के लिए भी ऊनोदरिका तप बताया गया हैं। से ही गोचरी (आहार) ग्रहण करना, क्षेत्र ऊनोदरिका है। ___(3) वृत्ति-संक्षेप (भिक्षाचरी) तप :काल ऊनोदरिका - गोचरी के लिए निश्चित किए गए अभिधान राजेन्द्र कोश में तृतीय बाह्य तप 'वृत्तिसंक्षेप' समय पर ही आहार ग्रहण करना, अन्यथा नहीं लेना, काल की परिभाषा बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है - "वृत्तेभिक्षाचर्यारुपाया: ऊनोदरिका है। संक्षोपोऽभिग्रहविशेषात् संकोचनं वृत्तिसंक्षेपः ।''55 अर्थात् अभिग्रह विशेष 4. भाव ऊनोदरिका - भिक्षा लेने जाते समय विविध प्रकार से भिक्षा का संकोच करके निर्दोष पदार्थ की गवेषणा के लिए भ्रमण के अभिग्रह ग्रहण करना, भाव ऊनोदरिका है। करना 'वृत्तिसंक्षेप' तप है। इसी प्रकार एक अन्य परिभाषा के अनुसार 5. पर्याय ऊनोदरिका - उपर्युक्त चारों भेदों को जीवन में "वृत्तेभिक्षाचर्यायाः संक्षेपणमल्पताकरणं वृत्तिसंक्षेपणं द्रव्याद्यभिग्रहणम्। आत्मसात् करते रहना पर्याय ऊनोदरिका हैं। अर्थात् उपयोग में आने वाले खाने-पीने के पदार्थो को अभिग्रह के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - इन चारों नियमों-पर्यायों द्वारा सीमित करना, अल्प करना 'वृत्तिसंक्षेप' तप है। 'वृत्ति संक्षेप' को अपनाते हुए जो भिक्षु भिक्षाचरी/गोचरी करता है, उसे 'पर्यवचर' का दूसरा नाम 'भिक्षाचरी' है।57 भिक्षु कहा गया है। (4) रस-परित्याग तप :अभिधान राजेन्द्र कोश में आगे द्रव्य ऊनोदरिका के दो भेदों का बाह्य तप के छह भेदों में 'रस-परित्याग' चौथा भेद है। उल्लेख किया है। रस-परित्याग तप का मूल प्रयोजन रसनेन्द्रिय-विजय है58 । अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने "पौष्टिक भोजन, दूध, दही, घी, मिठाई क. उपकरणद्रव्य ऊनोदरिका - वस्त्र-पात्रादि उपयोगी एवं आदि कामोत्तेजक रसमय पदार्थो का त्याग करना" 'रस-परित्याग'59 आवश्यक वस्तुओं की जो मर्यादा है, उससे कम वस्तुएँ तप कहा है। रखना - उपकरणद्रव्य ऊनोदरिका हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में इस तप के अनेक प्रकार बताये ख. भक्त-पानदव्य ऊनोदरिका - स्त्री के आहार का प्रमाण 28 हैं, जैसे - दुग्धादि विकृति (विगई) से रहित आहार करना, प्रणीत कवल है और पुरुष के आहार का प्रमाण 32 कवल और (घी से अत्यन्त गरिष्ठ) आहार का त्याग करना, षड्विकृति (छह विगई) नपुंसक के आहार का प्रमाण 24 कवल हैं। इसमें से जितने से रहित आयंबिल का भोजन करना, धान्य आदि के धोवन में से कवल कम खाया जाय, उसे 'भक्ति-पान ऊनोदरिका' कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'कवल' का 45. अ.रा.पृ. 2/549; पिण्डनियुक्ति गाथा-642, पृ. 1210; मूलाचार-350; प्रमाण मुर्गी के अण्डे के बराबर बताते हुए उसे 'कुक्कुटी' अनगार धर्मामृत-7/22 शब्द से परिभाषित किया है। वह 'कुक्कुटी' दो प्रकार की 46. अ.रा.पृ. 2/1209; भगवती सूत्र-25/7 47. अ.रा.पृ. 2/1209; उत्तराध्ययन-30/14 है - 'द्रव्यकुक्कुटी' और 'भावकुक्कुटी'52। 48. अ.रा.पृ. 2/1213; उत्तराध्ययन सटीक -30/24 द्रव्यकुक्कुटी :- द्रव्य कुक्कुटी के भी दो भेद हैं - उदरकुक्कुटी 49. अ.रा.पृ. 2/1209; भगवती सूत्र-25/7 और गलकुक्कुटी। उदर-पूर्ति जितने आहार से हो, उतना ही 50. वही आहार लेना; उससे हीनाधिक आहार न लेना उदरकुक्कुटी है। 51. अ.रा.पृ. 2/1210; भगवती सूत्र सटीक-2511 आहार का बत्तीसवाँ भाग एक कवल कहलाता है। अथवा 52. अ.रा.पृ. 2/549; भगवती सूत्र सटीक-25/7 जितना बड़ा कवल मुँह में रखते हुए मुँह, आँखे, भौहें आदि 53. वही 54. पिंड नियुक्ति-648 विकृत न हो, उतने प्रमाण का कवल या जो सुखपूर्वक 55. अ.रा.पृ. 6/1192; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/580 मुँह में रखा जा सके उतने प्रमाण का कवल ग्रहण करना 56. अ.रा.पृ. 6/1192; पञ्चाशक सटीक विवरण 19 गलकुक्कुटी है। . 57. अ.रा.पृ. 6/1590; उत्तराध्ययन सूत्र-30/25; भगवती आराधना-218 से भावकुक्कुटी:- भावकुक्कुटी के अन्तर्गत जितनी आहारमात्रा 221; मूलाचार 355 लेने से शरीर में स्फूर्ति बनी रहे, धैर्य बना रहे, दर्शन-ज्ञान 58. अ.रा.पृ. 6/492; उत्तराध्ययन सूत्र-30/26; पञ्चाशक विवरण-19; मूलाचार और चारित्र रुप रत्नत्रयी की वृद्धि होती रहै, उतने प्रमाण 352 ____59. अ.रा.पृ. 6/492; औपपातिक सूत्र-19; भगवती आराधना-215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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