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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [41] 43. सिद्धाचल देववंदन45:
कथा के अनुसार ललित विस्तरा के कर्ता श्री हरिभद्रसरि इसमें सिद्धाचल तीर्थ की आराधना-विधि का वर्णन हैं।
सिद्धर्ष गणि के समय में हुए हैं। प्रथम 21 खमासमण, तत्पश्चात् चैत्यवंदन, सिद्धाचल के 21 एवं 99 प्र.4. साधु को श्वेत वस्त्र पहनना या रंगीन? नामयुक्त स्तुति एवं स्तवन, सिद्धाचल के उपर दर्शनीय एवं वंदनीय उ.4. महावीर-शासन के साधु को श्वेत-मानोपेत-जीर्णप्राय स्थानों के वर्णन युक्त स्तवन एवं सिद्धाचल तीर्थ की नवाणुं (99)
वस्त्र धारण करना - यह उसका अचेलकत्व हैं। यात्रा की विधि एवं यात्रा के नियम दिये हैं।
प्र.5. जिसके ज्ञान-दर्शन होय अरु चारित्र मलिन होय, उस पासत्थे 44. सिद्धचक्र (नवपद) पूजा246:
कुं वांदणा (वंदन करना)? श्री नवपद पूजा के अंत में दिये गये 'कलश' के अनुसार
___उ.5. पासत्था ( चारित्र एवं शासनद्रोही ) कारण विना सर्वथा श्री नवपद पूजा की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.ने
नहीं वांदणा ।सामान्यतया तो पासत्था अवंदनीय ही है। वि.सं. 1950 में खाचरोद चातुर्मास में की थी।
पासत्था को ज्ञान भण्डार भी नहीं दिखाना। प्रस्तुत पूजा में प्रत्येक पूजा के प्रारंभ में हिन्दी एवं प्राकृत
हमें प्राप्त 'सिद्धांत प्रकाश' की पाण्डु-लिपि के अनुसार में दोहा एवं भुजंगप्रयात तथा हरिगीत छंदों में प्रारंभिक श्लोक एवं
यह ग्रंथ वि.सं. 1930 के जेठ सुदि एकादशी के दिन पूर्ण हुआ गेय रागों में एक-एक पद की दो-दो ढालें (भजन) रचे गये हैं।
था। यह ग्रंथ अमुद्रित हैं। अंत में 'धनाश्री' राग में कलश दिया गया है जिसमें 'नवपद' की 46. षड् द्रव्य विचार-48:महिमा, नवपद आराधक श्रीपाल राजा एवं मयणा सुंदरी का वर्णन
इस ग्रंथ की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी एवं श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की पाट परंपरा एवं पूजा का रचना समय ने वि.सं. 1927 में कुक्षी (म.प्र.) चातुर्मास में की थी। इस ग्रंथ बताया है।
की भाषा मालवी हैं। यह पूजा 'जिनेन्द्र पूजा महोदधि एवं जिनेन्द्र पूजा संग्रह
प्रस्तुत ग्रंथ में जैनदर्शन के अनुसार विश्व के मूल छ: तत्त्वों में कई आवृत्तियों में आहोर, खुडाला (राज.), मोहनखेडा (म.प्र.),
1. धर्मास्तिकाय 2 अधर्मास्तिकाय 3.आकाशास्तिकाय 4 पुद्गलस्तिकाय अहमदाबाद (गुजरात) आदि जगह से छप चुकी हैं।
5. जीवास्तिकाय और 6. काल - का स्पष्टीकरण किया गया है। 45. सिद्धांत प्रकाश247:
साथ ही नय, प्रमाण एवं सप्तभंगी की सुंदर व्याख्या की हैं। तत्त्वज्ञान वि.सं. 1929 में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के
की प्राप्ति एवं समझ के लिये यह ग्रंथ उपयोगी है। रतलाम चातुर्मास में उन्होंने संवेगी झवेरसागरजी और यति बालचन्द्र
आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरिने इस ग्रंथ की विस्तृत उपाध्याय से हुए त्रिस्तुतिक सिद्धांत विषयक शास्त्रार्थ के समय प्रतिपक्षी
विशद व्याख्या वर्तमान हिन्दी भाषा में की है जो जैन तत्त्वज्ञान को उत्तर देने के लिए इस ग्रंथ की रचना की हैं, जिसके फल स्वरुप के परिपूर्ण एवं सहज-सुबोध एवं सरल भाषा में है। प्रस्तुत ग्रंथ आचार्यश्री विजयी बने थे।
हिन्दी व्याख्या सहित आचार्यश्री की प्रेरणा से वि.सं. 2048 में इस ग्रंथ में भूमिका में जैनागमों के अनुसार प्रमाण, निर्णयकर्ता, सूरत चातुर्मास में सूरत श्रीसंघ के अत्थ सहयोग से श्री राज-राजेन्द्र सम्यक्त्व, श्रोता, तपागच्छ और खरतर गच्छ की आचरणा, पंडित आदि ट्रस्ट, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया हैं। के स्वरुप का वर्णन करके वादी के पाँचों प्रश्नों का शास्त्रोक्त उत्तर शास्त्र 47. होलिका आख्यान (प्रबंध):पाठ सहित दिया है। साथ ही इन प्रश्नों में हेत्वाभास आदि दोष भी
इस संस्कृत प्रबंध की रचना आचार्यश्री श्रीमद्विजय राजेन्द्र यथास्थान दिखलाये हैं। ये प्रश्नोत्तर संक्षिप्त में निम्नानुसार हैं
सूरीश्वरजीने वि.सं. 1961 में मध्यप्रदेश (मालवा) में की थी।249 प्र.1. श्री जिन - द्रव्य पूजा शुभानुबंधी प्रभूततर निर्जरारुप है,
भारतीय जनता फाल्गुन महीने के सुदि पक्ष में 'होली' उसमें अल्प-पाप नहीं हैं।
नामक पर्व अश्लील चेष्टापूर्ण रीति से मनाती है, जो वास्तव में कर्म उ.1. जिन पूजा से शुभानुबंधी परंपरा से मोक्ष फल है तथापि दव्य पूजा में आरंभ संबंधी विराधना है, उस विराधना
सिद्धांतानुसार कर्मबंधन करवाता है। आचार्य श्री ने इस ग्रंथ में इस को धर्म नहीं कहते इसलिए द्रव्य पूजा में अल्पपाप
अश्लीलतामय पर्व की उत्पत्ति का वर्णन किया हैं। और सुज्ञजनों बहुनिर्जरा कहते हैं।
को इस अन्धानुकरण रुप मिथ्या पर्व से दूर रहने को कहा है। प्र.2. चतुर्थ स्तुति, 'वेयावच्चगराणं' और वंदित्तुसूत्र का
यह कथा श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय 'खुडाला' से प्रकाशित 'सम्मादिद्विदेवाए' यह पाठ प्रतिक्रमण में कहना और तीन 'चरित्र चतुष्टय' में मुद्रित हुई हैं। स्तुति मंदिर में कहना।
48. होलिका व्याख्यान (कथा):उ.2. प्रतिक्रमण में चतुर्थ स्तुति और 'वेयावच्चगराणं' नहीं
उपरोक्त कथा प्रबंध का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है जो कहना । वंदित्तु में सम्मादिट्ठिदेवाए' पाठ नहीं कहना और
कि 'पर्वकथा संचय' में मुद्रित है।250 सर्व जगह तीन स्तुति कहना । मंदिर में प्रतिष्ठादि प्रसंगे
245. देववंदनमाला 'वेयावच्चगराणं' करना कारण की बात हैं, नित्य नहीं। 246. -श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह, पृ. 51, श्रीनवपद पूजा, कलश-श्लोक 5 प्र.3. ललितविस्तरा के कर्ता श्री हरिभद्रसूरि वि.सं 585 में निश्चय 247. सिद्धांतप्रकाश (हस्तलिखित अमुद्रित ग्रंथ), श्रीराजेन्द्र ज्ञानभंडार, कुक्षी
से हुए। उ.3. श्री हरिभद्रसूरिनामक अनेक आचार्य हुए है अत: निश्चय
248. षड्द्रव्यविचार ग्रंथ
249. होलिकाऽऽख्यानम्, पृ 17 से उपरोक्त कथन सही नहीं है। और उपमिति भवप्रपंच
250. पर्वकथा संचय
(म.प्र)
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