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[42]... प्रथम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की नित्य जीवन-चर्या
क्रियोद्धारक आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज जैसे प्रकाण्ड प्रज्ञापुरुष थे वैसे ही उत्कृष्ट क्रियापालक थे। शिथिलता आपको लेशमात्र पसंद नहीं थी।आप दिन में कभी निद्रा नहीं लेते थे। रात्रि में भी सिर्फ एक प्रहल विश्राम करते थे। ध्यान और अनुप्रेक्षा की लीनता में कभीकभी तो कई दिन तक सतत निद्रा का त्याग हो जाता। आप अपने छोटे-बडे समस्त दैनिक कार्य अपने स्वयं के हाथ से करते थे। कैसी भी कडी ठंड में आप उभयकाल प्रतिक्रमण और सज्झाय हमेशा खुले बदन ही करते थे इतना ही नहीं अपितु शीतकाल में कहीं नदी-नाले के किनारे वृक्ष नीचे या पहाड़ियों की गुफा में खुल्ले शरीर ध्यान में लीन हो जाते तो ग्रीष्मकाल में तपी हुई बालु रेत में या पहाड़ियों की तप्त शिलाओं पर आतापना लेते थे।
आप हमेशा मुनिजीवन के नियमानुसार निर्दोष आहार ग्रहण करते एवं उस बिना किसी रसलोलुपता के उदरस्थ करते । इतना ही नहीं कडवी तुम्बी के साग के भी गोचरी में आ जाने पर उससे प्रभावित मुनि मोहन विजयजी को भी समभाव हेतु प्रेरित किया। मात्र आहार ही नहीं अपितु आप वस्त्र, पात्र आदि भी निर्दोष ही ग्रहण करते थे। अहमदाबाद में श्रावक मयाचंदभाईने आपको क्रीतदोषयुक्त मलमल का कपडा वहेराने का प्रयत्न किया परन्तु आपने उसका निषेध कर दिया।
आप मुनिजीवन की मर्यादानुसार 14 उपकरण एवं आवश्यक ओधोपधि से अतिरिक्त किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करते थे। कडी ठंड में भी साडे चार हाथ की मात्र दो सूती चादर एवं एक ही ऊनी कम्बल मात्र रखते थे। आप नित्यक्रम से आवश्यक क्रिया से निवृत्त होकर या तो साधुश्रावकों से शास्त्र-चर्चा, धर्म-चर्चा या व्याख्यानादि करते या फिर शास्त्र-अध्ययन, स्वाध्याय में लीन रहते । अस्सी (80) वर्ष की आयु तक में कभी भी आपकी लेखनी ने विराम नहीं लिया।
अंतिम समय तक आपने स्वाध्याय, साहित्य निर्माण, ध्यान-अनुप्रेक्षा आदि से विराम नहीं लिया अपितु अंतिम चातुर्मास (विसं 1963, बडनगर) के उत्तरार्ध में दीपावली के दिनों में आपने अट्ठाई तप (आठ उपवास) करके आचारांगादि ग्यारह अंगसूत्रों का स्वाध्याय किया।51
अनशन एवं देहत्याग:
बडनगर के चातुर्मास के पश्चात् माण्डवगढ की यात्रा के निमित्त विहार करते समय दसाई से मांगोद के रास्ते पर मार्ग में बबूल का विषैला काँटा पैर में चुभ गया, जिसकी असह्य वेदना से (निमित्तज्ञान के बल से) अपना आयुष्य पूर्ण जानकर आचार्यश्री राजगढ पधारे। यहीं पर वि.सं. 1963, पौष सुदि तृतीया के दिन सकल श्रीसंघ की उपस्थिति में आपने अपने प्रतिभासंपन्न शिष्य अठारहवर्षीय मुनि श्री दीपविजयजी एवं 22 वर्षीय मुनि श्री यतीन्द्र विजय जी को अभिधान राजेन्द्र कोश के सम्पादन-संशोधन और प्रकाशन का उत्तरदायित्व दिया। तत्पश्चात् आचार्यश्रीने उपस्थित श्रीसंघ से, 84 लक्ष जीवयोनि से, एवं शिष्य परिवार आदि से सान्तःकरण क्षमापना की। सभी शिष्यों ने भी विरहाकुल हृदय एवं सजल नयनों से त्रिकरण-त्रियोगपूर्वक गुरुदेव से क्षमापना की। और वि.सं. 1963 पौष सुदि तृतीया की संध्या को समस्त आहार, औषध, शरीर, उपधि आदि का त्याग कर यावज्जीव अनशन ग्रहण कर संलेखना व्रत अङ्गीकार किया और पद्मासन में बैठकर 'ॐ अहँ नम:' के ध्यान में लीन हो गये।252 स्वर्गवास:
आत्म-साधना में लीन परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने महाप्रयाण की कुछेक मिनिट पहले फिर एक बार सबसे क्षमापना की और दि. 28 दिसम्बर ई.स. 1906 तदनुसार वि.सं 1963, पौष सुदि छठ गुरुवार की रात्रि को आठ बजकर आठ मिनिट पर एक बार आचार्यश्री की आवाज तेज होकर मंद हुई और फिर वे सदा के लिए मौन हो गए 1253
राजगढ में राजेन्द्र भवन में व्याख्यान की पाट के पास
जिस स्थान पर आचार्यश्री ने अनशन व्रत अङ्गीकार कर स्वर्गारोहण किया उसी जगह पर वर्तमान में श्वेत संगमरमर की कलात्मक छत्री में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के चरणयुगल प्रतिष्ठित हैं एवं वर्तमान में राजगढ़ श्रीसंघ की ओर से भव्य गुरुमंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है। अग्नि संस्कार:
दिनांक 29 दिसम्बर ई.स. 1906/वि.सं. 1963 पौष सुदि सप्तमी शुक्रवार को मध्याह्न में सुंदर चंदन काष्ठ निर्मित एवं सोनेचांदी के तारमय वस्त्रों से सुशोभित वैकुंठी में गुरुदेव के पार्थिक शरीर को विराजमान कर वैकुंठी के साथ राजा-प्रजा एवं श्रीसंघ ने पूरे नगर में अन्तिम यात्रा में घूमते हुए राजगढ से पश्चिम दिशा में गुरुदेवश्री की प्रेरणा से निर्मित श्री मोहनखेडा तीर्थ के प्रांगण में गुरु शरीर का अग्नि-संस्कार किया, जिस समय हजारों भक्त एवं जैन-जनेतर लोग उपस्थित थे। वहीं पर आज सुंदर गुरुमंदिर निर्मित है जिसमें अग्नि संस्कार के स्थान पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की दिव्य मूर्ति विराजमान है।254 मूर्ति का चित्र आगे दिया गया हैं। उपसंहार:
इस शोध प्रबन्ध का प्रथम परिच्छेद श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के कर्ता श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का संक्षिप्त परिचय के लिए निर्धारित किया गया था। इसमें आचार्यश्री 251. विश्वपूज्य पृ. 98 252. विरल विभूति, पृ. 96; राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ 147; जीवनप्रभा पृ. 36 253. श्री राजेन्द्रगुणञ्जरी पृ. 147; जीवनप्रभा पृ. 36 254. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 150, 151, 155; परम योगीश्वर पृ 17, 79;
जीवनप्रभा पृ. 36
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