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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [43] के व्यक्तित्व के उन पक्षों को प्रस्तुत किया गया है जो एक महर्षि निर्ग्रन्थ गच्छ 'सौधर्म गच्छ' की शाखा 'तपागच्छ' में दीक्षित होकर के महत्त्व को प्रकट करने के लिए अपरिहार्य हैं।
क्रियोद्धार के साथ ही अपने गच्छ का संशोधित नामकरण 'श्री सौधर्म आचार्यश्री के साधु जीवन का प्रथम महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बृहत्तपागच्छ' किया था।255 है कि आपकी दीक्षा आचार्य श्रीमद्विजय प्रमोदसूरि के हाथों हुई
इस परिच्छेद में आचार्यश्री के व्यक्तित्व के प्रमुख बिन्दुओं थी और आचार्य श्रीमद्विजय प्रमोदसूरिने ही अपने पाट पर मुनि श्री का परिचय मात्र दिया गया है जिनके विषय में स्पष्ट सन्दर्भ रत्नविजय जी को आसीन करते हुए आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया प्राप्त होते हैं। आचार्यश्री जितने सिद्ध लेखक थे उतने ही सिद्ध था और आपका नामकरण श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि किया गया था। वक्ता और कवि भी थे जैसा कि विभिन्न सन्दर्भो से प्रमाणित
यह और भी स्पष्ट करने योग्य है कि आपने क्रियोद्धार का होता है। आचार्यत्व प्राप्त होने के बाद आप प्राचीन शास्त्रों की अभिग्रह तो यति अवस्था में वि.सं. 1920 में लिया था परन्तु क्रियोद्धार व्याख्या करने और स्वतन्त्र लेखन करने के अधिकारी हो गये का क्रियान्वय वि.सं. 1925, आषाढ वदि दशमी को आचार्य अवस्था और आपने अपने जीवन में स्वतन्त्र लेखन भी किया और शास्त्रों में किया था। इस दिन सोमवार या शनिवार था - इसका निर्णय की तर्कसंगत व्याख्याएँ और भाष्य भी किये जैसा कि पूर्व में ज्योतिषी कर सकते हैं; क्योंकि क्रियोद्धार पत्रिका में दोनों वारों का चित्रण किया जा चुका है। उल्लेख है, जैसा कि इसी शोधप्रबन्ध के पृष्ठ क्र. 8 पर रेखांकित
आचार्य श्री के जन्म, दिक्षा, आचार्यत्व, क्रियोद्धार, किया गया हैं।
साहित्यसृजन, सल्लेखना, शरीरत्याग और दाहसंस्कार के संक्षिप्त विवरण आचार्यश्री के गच्छ के विषय में यह स्पष्ट करने योग्य के साथ यह परिच्छेद पूर्ण होता है। है कि आपने किसी नये गच्छ की स्थापना नहीं की थी, अपितु भगवान् महावीर के शिष्य पञ्चम गणधर सुधर्मास्वामी के द्वारा स्थापित 255. अ.रा.भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2
श्री गुरुदेव-वन्दनावली) यन्नामस्मरणेन दुर्दिनचयोऽरं शाकिनीडाकिनीदोषोऽपि प्रलयं प्रयाति विविधा सम्पत्तिरासाद्यते । लोके च प्रियता मुखे मधुरता कार्ये समुत्साहता, तं सन्नौमि सहस्रकृत्वरनिशं राजेन्द्रसूरिं प्रभुम् ॥1॥
यः पूर्व मदमोहकामममतामात्सर्यलोभक्रुधाद्यान् दोषान् सुतरां विजित्य च ततो मिथ्यात्विनो दुर्मदान् ।
शुद्धं लोकेहितावहं समदिशद् धर्मं शमे शेमुषीप्रागल्भ्यं सततं करोतु कृपया राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥2॥ मूर्ति कीर्तिमती विलोक्य सुभगां लोके यदीयां बुधा,
दृष्टास्तद्गुणवर्गवर्णनमहो नानाविधं संव्यधुः। लोकेषु प्रथितः स्वधर्मनिरतस्तेजस्विताऽलङ्कृतः, कामान्मे परिपूरयेत्स सकलान् राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥3॥ लोके कीर्तिलता गता दश दिशो यस्यानवद्या दृढा,
सर्वान्सज्जनपादपान् सुविपुलानाश्रित्य संराजते । विद्या चाखिललोकलग्नकुमतिध्वान्तं पराधूनयत्, स श्री सङ्घसुमङ्गलाय भवताद्राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥4॥ यो मिथ्यामतवादिनामतिमदं मानैस्तथा युक्तिभिह॒त्वा तान्समुपादिशद् सुविपुलं धर्मं परं मोक्षदम्।
लोके दीनजनोपकारनिरतो मह्यं स विद्यानिधिः, शुद्धं यच्छतु बोधिबीजमनिशं राजेन्द्रसूरिः प्रभुः ॥5॥
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