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________________ [274]... चतुर्थ परिच्छेद सत्य-असत्य की चतुर्भङ्गी" : 1. द्रव्य से असत्य भाव से सत्य जैसे किसी व्यक्ति को कोई शिकारी या वधिक के पूछा कि इधर गाय / मृग इत्यादि कोई पशु को जाते हुए देखा ? तो देखा हुआ होने पर भी जीवदया के कारण "नहीं देखा।" - एसा कहना यह द्रव्य से असत्य होने पर भी जीवदया पालन के भाव से सत्य हैं। 2. द्रव्य से असत्य भाव से भी असत्य जानबूझकर द्रव्य से ( शब्द से) और परिणाम से भी झूठ बोलना इस प्रकार का यह असत्य हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सत्य के गुण : सत्यवचन पवित्र, मोक्ष का हेतु, यथार्थ होने से सुजात (शुभ), सुभाषित, शुभाश्रित, सुखाश्रित, सुधासित, सुव्रत (सुंदर), सुकथित, सुदृष्ट (अतीन्द्रियार्थदर्शी), दृढ, सुप्रतिष्ठित (समस्त प्रामाणों से सिद्ध), सुप्रतिष्ठितयशयुक्त, सुसंयमित, बहुत (श्रेष्ठ सुर-नर) सम्मत, परम साधुओं के द्वारा तप-नियम स्प धर्मानुष्ठान में अङ्गीकृत, सुगतिपथदेशक लोकोत्तमवृत्त से युक्त हैं । यही अनवद्य परम श्रेष्ठ हैं । - 3. द्रव्य से सत्य भाव से असत्य किसी के द्वारा जानते हुए भी असत्य बोलने पर भी सहसा (अचानक किसी कारण से) वह वचन सत्य हो जाना। यदि एसे वचन सत्य हो जायें तथापि उस व्यक्ति की भावना सत्य बोलने की नहीं होने से यह मृषावाद हैं। 4. द्रव्य से सत्य भाव से सत्य लोक- अलोक, शाश्वत पदार्थ, तत्त्वादि के विषय में या अन्य विषयों में सत्य कहने की भावनापूर्वक शास्त्रसम्मत सत्य वचन बोलना । चतुर्भङ्गी का ग्राह्यग्राह्यत्व : इसमें अंतिम भङ्ग सत्य है वह आचरणीय है । प्रसंगवश प्रथम भङ्ग भी सत्य होने से आचरणीय है, क्योंकि निशीथचूर्णि में कहा है कि “यदि प्रवचन-उड्डाह/शासननिन्दा रोकने हेतु, संयम रक्षा हेतु, चोरादि के द्वारा पकडे जाने पर, प्रत्यनीक (शासन का द्वेषी / वैरी) के क्षेत्र में, शैक्ष (नवदीक्षित) के निमित्त यदि मुनि को असत्य बोलना पडे तो भी प्रवचनरक्षा एवं संयमरक्षा हेतु बोला हुआ असत्य भी असत्य नहीं कहलाता, क्योंकि असत्यभाषी मुनि के परिणाम शुद्ध हैं, अतः वह सत्यवक्ता ही है।” अलीकवचन (झूठ बोलने से हानि : मृषावादी गुणगौरवरहित, चपल, भयकारी, दुःखकारी, अपयशकारी, संक्लेशकारी, अशुभफलयादी जात्यादिहीन, नृशंस, निःशंस (प्रशंसादि रहित), अविश्वसनीय, भवभ्रमणकारी, विपाकदारुण 8, विवेकरहित, महाभयवर्धक, तपरहित, दुःखदायी स्थानवासी, परवश, अर्थभोगरहित, दुःखी, मित्ररहित, बीभत्स, खर (अतिकर्कश), संस्काररहित, अचेतन (विशिष्ट बुद्धिरहित) दुर्भाग्यवान्, कठोर, दुःस्वरयुक्त, हिंसक, धर्मबुद्धिरहित, अपमानित, प्रेमरहित, सत्संगहीन, कुभोजन- कुवस्त्र वसतियुक्त होते हैं; अतः सज्जन समाज में उनकी निर्भत्सना होती है, वे लोकगर्हणीय होते हैं, अंत में नरक - तिर्यंच योनियों के दुःख और वेदना प्राप्त करते हैं और पुनः मनुष्य भव प्राप्त होने पर भी वे जड, बधिर, मूक, अंध इत्यादि दुःखमय स्वरुप को प्राप्त होते हैं; धर्म उन्हें दुर्लभ हो जाता हैं।” अतः अलीक वचन का त्याग करना चाहिए । आदर्श वचन : Jain Education International अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने मुनि या सज्जन वर्ग योग्य भाषा का वर्णन करते हुए कहा है कि महाव्रती मुनि द्रव्य, पर्याय, गुण वर्ण, कर्म, शिल्प, आगम (सिद्धांत), तथा नाम, आख्यात (क्रियापद), निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, संधि, पद, हेतु, यौगिक, उणादि क्रियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण से युक्त तथा जनपदादि (दस प्रकार के) सत्ययुक्त वचन भी अरिहंत परमात्मा के द्वारा अनुज्ञात, उभयलोक परिशुद्ध और स्व- पर किसी को भी पीडा जनक न हो तो ही बुद्धिपूर्वक पर्यालोचित (विचार) करके, संयमपूर्वक, योग्य अवसर होने पर ही बोलें 80 सत्य बोलने से लाभ : 'जो जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्ररुपित है, वही निःशंक सत्य हैं।' इस परम सत्य (शास्त्रज्ञता) को जानकर जो आत्मा तदनुसार आचरण करती हैं वह संसार-समुद्र को तैरती है। 2 सत्यवक्ता महासमुद्र में भी नहीं डूबता, जाज्वल्यमान अग्नि में या अग्नि से उकलते तेल की कढाही में भी नहीं जलता, पर्वत से गिरने पर भी वह नहीं मरता, संग्राम में तनी हुई तलवारों के बीच भी वह अक्षतशरीर निकल जाता है । ताडन, बन्ध, वध, बलात्कार इत्यादि में घोर रियों / शत्रुओ के द्वारा भी वह मुक्त किया जाता है। (उसे ताडनादि नहीं होते) शत्रुओं के बीच में भी वह सुरक्षित निकल जाता है। देवता उसका सान्निध्य करते हैं, लोकप्रियत्व, आकाशगामिनी आदि विद्याएँ और विशिष्ट लब्धियाँ, मंत्र - मणि - औषधि - वशीकरणादि प्रयोग, विभिन्न कलाएँ - विघाएँ, अस्त्र-शस्त्र, शास्त्र, सिद्धान्त आदि सत्य में प्रतिष्ठित हैं । उभयलोक में सत्य वचन ही आदेय, अनुकरणीय वक्तव्य है । अतः मुनि को अल्पांश भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। 83 सर्वथा अदत्तादानविरमण : तृतीय महाव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि के तृतीय महाव्रत की व्याख्या/विवेचन करते हुए आचार्य श्रीने स्थानांगसूत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि मुनि के द्वारा ग्रहण किये जानेवाले कोई भी द्रव्य, क्षेत्रादि उसके स्वामी, उनमें रहने वाले जीव, तीर्थंकर या गुरु की आज्ञा या अनुमति के बिना ग्रहण करना 'अदत्तादान' कहलाता हैं। 84 इन चारों प्रकार के अदत्तादानों का सर्वथा त्याग / प्रत्याख्यान करना मुनि का सर्वथा अदत्तादानविरमण नामक तृतीय महाव्रत हैं 185 अभिधान राजेन्द्र कोश में तृतीय महाव्रत का स्वरुप वर्णन करते हुए कहा है, "हे भगवान! मैं तृतीय महाव्रत में सर्वथा सर्व प्रकार की चोरी करने का त्याग करता हूँ। मैं जीवनपर्यंत गाँव या नगर में या जंगल में, अल्प या बहुमूल्य की, छोटी या बडी, सचित या अचित बिना दी हुई वस्तु को मन-वचन-काय से ग्रहण नहीं करूँगा, नहीं कराऊँगा, और करनेवालों को अच्छा नहीं समझँगा । 76. 77. 78. 79. 80. 81. 82. 83. 84. अ. रा. पृ. 6/321 अ.रा. पृ. 6/325; निशीथ चूर्णि - 1/322-23-24 अ.रा. पृ. 1/777 अ. रा. पृ. 1/784, 3/326 अ.रा. पृ. 6/329, 330 अ.रा. पृ. 6/328 अ. रा. पृ. 6/273 अ. रा. पृ. 6/328-329 अ.रा. पृ. 1/526; स्थानांग- 1/1 85. अ.रा. पृ. 1/540; प्रश्न व्याकरण-3 संवर द्वार 86. अ. रा.पृ. 1/540, 541; पाक्षिक सूत्र- तृतीय आलापक, साधु प्रतिक्रमण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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