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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [275] अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने जैनागमों के अनुसार (5) भाव चोर - बहुश्रुत नहीं होने पर भी बहुश्रुत/आगमज्ञाता विविध प्रकार के अदतादान का दिग्दर्शन कराया है
कहलाना । श्रुतज्ञानार्जन नहीं करते हुए अन्य से चोरी-छिपे क. द्रव्य-अदत्तादान विरमण :
जैनागमों की बाते सुनकर, लोगों को सुनाकर "मैने जैनागमों यह चार प्रकार का है
का अध्ययन किया है।" एसा कहना ।92 (1) स्वाम्यदत्तादान विरमण - रास्ते में पडे हुए (जिसके स्वामी तृतीय महाव्रत के सुचारुपालन की विधि :का पता नहीं है) मणि, मोती, शिला, प्रवाल, रत्न, सोना, चांदी
जो मुनि दोष रहित आहार, जल, उपधि, शय्या आदिपूर्वक आदि ग्रहण करना नहीं और दूसरों को उसके बारे में कहना भी आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, साधर्मी (साधु), नहीं। तथा साधु प्रयोग्य आहार, जल, औषध, तृण, काष्ठ, कुल, गण, संघ की वैयावृत्त्य करता हैं, जहाँ अपने जाने से अप्रीति राख, पत्थर, चौकी, पटिया, शय्या (संथारा), वस्त्र, कम्बल, उपजे एसे गृहादि में जो नहीं जाता, वहाँ से आहारादि तथा उपकरणादि उपधि, रजोहरण, मुहपत्ति, दण्ड, पात्र, मिट्टी आदि के वर्तनादि, ग्रहण नहीं करता, जो दूसरों की निंदा नहीं करता, ग्लानादि का बहाना उपकरण आदि उसके मालिक की अनुमति/आज्ञा के बिना
बनाकर गृहस्थों से आहारादि द्रव्यादि ग्रहण नहीं करता, किसीको धर्म ग्रहण नहीं करना चाहिए। आचार्य, ग्लान, तपस्वी आदि के
से विमुख नहीं करता तथा वैयावृत्त्यादि करके पश्चाताप नहीं करता, और लिये लाये आहारादि दाता की बिना आज्ञा के नहीं ग्रहण
प्राप्त किये हुए आहारादि का संविभाग करने में कुशल तथा शिष्यादि का करना चाहिए।
संग्रह कर उन्हें आहार, श्रुतादि के दान से संतुष्ट करनेवाला मुनि तृतीय जीव अदत्तादान विरमण - (1) सचित आहार, जल आदि
महाव्रत की अच्छी तरह से आराधना करता है। ग्रहण करने हेतु उसमें रहने वाला जीव अनुमति नहीं देता,
अदत्तादान विरमण व्रत के लाभ :अतः उसे ग्रहण नहीं करना (2) जिस नर-नारी की दीक्षा/
जो भव्यात्मा अदत्त का ग्रहण नहीं करता; सिद्धि उसकी प्रवज्या ग्रहण करने की स्वतःस्फूर्त वैराग्य-भावना या परिणाम न हो, उसके माता-पितादि परिवार के द्वारा उसे दिये जाने पर
इच्छा करती है, समृद्धि उसे प्राप्त होती है, कीर्ति उसकी अनुचरी भी उसे दीक्षा नहीं देना चाहिए। (3) जीवाकुल (जीवों से
है, उसके संसार संबंधी दु:ख दूर होतेहैं, सुगति प्राप्त होती है। दुर्गति व्याप्त) भूमि का उपयोग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार जीव
उसे देख नहीं सकती, विपत्ति दूर होती है, उसमें सद्गुणों की श्रेणि अदत्तादान के तीन प्रभेद हैं।
निवास करती है एवं विनीत को जैसे सभी विद्याएँ स्वतः प्राप्त होती (3) तीर्थंकर अदत्तादान विरमण - जिस आधाकर्मादि दूषित
है वैसे अदत्तादानत्यागी को स्वर्ग एवं मोक्ष की लक्ष्मी सहज प्राप्त आहारादि का तीर्थंकर परमात्मा ने निषेध किया है, उसे ग्रहण
हो जाती है। नहीं करना, तीर्थंकर की आज्ञा के विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं करना।
अदत्तादान ग्रहण से हानि :गुरुअदत्तादान विरमण- तीर्थंकर की आज्ञा के अनुसार गृह
तप-वचन-रुप-आचार और भाव के चोर एसे अदत्तादान स्वामी के द्वारा अपनी इच्छापूर्वक अर्पित किया हुआ 42 ग्रहण करनेवाले साधु यहाँ से आयुः पूर्ण कर किल्बिषक (चांडाल/नोकर दोषरहित आहारादि भी मुनि के द्वारा गुरु को दिखाकर; गुरु की जैसी देव जाति) देव में उत्पन्न होता है; वहाँ से च्युत होकर मनुष्य गति आज्ञा प्राप्त करके ही उपयोग में लेना चाहिए।
में गूंगा-मूंगा (मूक) होता है, या तिर्यंच गति में जन्म लेता है; वहाँ से ख. क्षेत्र अदत्तादान विरमण :
नरक गति में जाता है। वहाँ परंपरा से जिनधर्म एवं बोधिप्राप्ति दुर्लभ ग्राम, नगर या अरण्य में स्वामी की आज्ञा के बिना नहीं
होती है। ठहरना। स्वामी की आज्ञा लिये बिना वसति, उपाश्रय, स्थंडिल, भूमि
सर्वथा मैथन विरमण : चतुर्थ महाव्रत :इत्यादि का उपयोग नहीं करना।
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ग. काल अदत्तादान विरमण - रात्रि में किसी भी द्रव्यादि ने चतुर्थ महाव्रत का वर्णन करते हुए कहा है कि "मुनि के द्वारा या आहारादि को ग्रहण नहीं करना 189 और चाहे दिन हो या रात्रि, किसी
जीवन पर्यंत द्रव्य से रुप (सजीव मनुष्यादि) रुपसहगत (चित्रचित्रित भी समय अदत्तद्रव्यादि ग्रहण नहीं करना ।
अजीव स्त्री आदि) के साथ, क्षेत्र से उर्ध्वलोक, अधोलोक या तिर्यग् घ. भाव अदत्तादान विरमण" - राग या द्वेष से स्वामी,
लोक में काल से दिन में या रात्रि में भाव से राग से (माया या जीव, तीर्थंकर या गुरु के द्वारा नहीं दिया हुआ या उनकी आज्ञा के बिना
लोभ से), द्वेष (क्रोध, मान) से, मन-वचन-काया से देव-मनुष्य या कुछ भी ग्रहण नहीं करना । एवं भाव से तप, वचन, रुप, आचार या श्रुत
तिर्यंच संबन्धी स्त्री-पुरुष या नपुंसक के साथ मैथुन सेवन करूँगा का चोर नहीं बनना।
नहीं, कराऊँगा नहीं, करनेवालों की अनुमोदना करूँगा नहीं - एसी (1) तपःचोर- स्वयं तपस्वी नहीं होते हुए भी तपस्वी कहलाना 87. अ.रा.पृ. 1/538, 542
या 'साधु मात्र तपस्वी होते हैं' -एसा बोलना या सही तपस्वी 88. अ.रा.पृ. 1/539, 542; निशीथ चूर्णि-2/72 को छिपाना।
89. अ.रा.भा. 3/'कप्प' शब्द (2) वचनचोर - स्वयं,व्याख्याता नहीं होने पर भी वैसा कहलाना
90. अ.रा.पृ. 1/539; साधु प्रतिक्रमण-तृती आलापक
91. अ.रा.पृ. 1/539; दशवैकालिक मूल 5/2/46 (प्रसिद्धि करवाना)।
92. अ.रा.पृ. 1/539; एवं 1/543 (3) स्म चोर - पेट भरने हेतु साधु वेश धारण करना।
93. अ.रा.पृ. 1/543 (4) आचारचोर-सुविहित साध्वाचार का क्रियारुचि सहित मन- 94. सूक्त मुक्तावली-33, 34 वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक पालन नहीं करना।
95. अ.रा.पृ. 1/539-40
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