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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [273] किये) हुए वस्त्र-पात्रादि को स्वयं के द्वारा निर्मित है। -एसा कहना।6 क्षेत्रविषयक मृषावाद - लोक-अलोक या किसी स्थान के विषय में झूठ बोलना, अथवा रात्रि के अँधेरे में अनजान में दूसरों की संथारा की भूमि को अपनी कहना या मुनि जहाँ वर्षावास रहे हो वहाँ चातुर्मास बाद अन्य मुनि के द्वारा उसी जगह पर ठहरने की आज्ञा माँगने पर 'यह तो मेरा उपाश्रय है'- एसा बोलना 163 काल संबन्धी मृषावाद - अतीत-अनागत काल संबन्धी या वर्तमान में जिस समय मृषावचन बोले तत्काल संबन्धी या दशवैकालिकादि विधि सूत्र के अध्ययन विषयक काल संबन्धी झूठ बोलना।64 अथवा उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी, सुषमादि आरों के विषय में झूठ बोलना 165 भाव संबन्धी मृषावाद - यह अनेक प्रकार से है1. क्रोध से - क्रोध होने पर पिता पुत्र को कहता है कि 'जा, तू मेरा पुत्र नहीं है', इत्यादि । 2. मान से - अभिमान के कारण झुठ बोलना । जैसे -मनुष्य के हाथ दो होने पर भी कहना कि "मेरे तो बहुत हाथ हैं।''67 3. माया से - राग-द्वेष से माया-कपट वृत्ति से मुनि के द्वारा स्वयं के दोष छिपाने या अन्य मुनि को त्रस्त करने के भाव से प्रचला निद्रा संबन्धी, वर्षा (गिरते पानी) में गमनागमन संबन्धी, जिनमंदिर दर्शनार्थ गमन संबन्धी, वंदन हेतु दीक्षापर्याय संबन्धी, गोचरी हेतु संखडी (एक प्रकार का दोष) संबन्धी, क्षुल्लक साधु को आर्तध्यानादि कराके त्रस्त करने हेतु उसे मायावी वचन बोलकर दुःख-खेदादि मानसिक विकार उत्पन्न कराने संबन्धी, समुदाय संबन्धी, भिक्षाचार्य हेतु दिशा, कुल, द्रव्यादि संबन्धी झूठ बोलना 'माया-मृषावाद' कहलाता हैं।68 लोभ से - झूठी साक्षी देना, द्रव्य के लोभ में सामनेवालों को विश्वास में लेकर झूठ बोलना लोभ हेतु मृषावाद कहलाता दशविध सत्या :1.जनपद सत्य - किसी देश विशेष में पानी को उदक, जल, नीर, पिच्छ इत्यादि कहते हैं, उस देश में वह सत्य हैं। 2.सम्मत सत्य - प्रामाणिक आचार्यों या विद्वानों द्वारा जिस शब्द का जो अर्थ नियत किया है, उन शब्दों को उसी अर्थ में मानना । जैसे - 'पङ्कज के शैवाल, मेंढक इत्यादि अर्थ होने पर भी उसे 'कमल, अर्थ में ही मानना। 3. स्थापना सत्य - जीव या अजीव कोई भी वस्तु के आकार का चाहे उसमें वह गुण हो या न हो, वह नाम स्थापित करना । जैसे - आचार्य की मूर्ति को आचार्य कहना। 4. नाम सत्य व्यक्ति में गुण न होने पर भी उसे गुणचन्द्र, धनपाल, राजा इत्यादि नाम से बुलाना । 5.स्प सत्य साधुत्व न होने पर भी साधु वेशधारी को 'साधु' कहना व्यवहार दृष्टि से सत्य हैं। 6. प्रतीत सत्य - किसी की अपेक्षा से किसी को बडा या छोटा कहना । जैसे - हिमालय की अपेक्षा गिरनार को छोटा कहना। 7. व्यवहार सत्य - पर्वत नहीं जलता, अपितु पर्वत पर लकडी या चारा आदि ईधन जलता है, तथापि 'पर्वत जल रहा है' - एसा कहना। 8. भाव सत्य किसी गुण की अधिकता से उस पदार्थ या व्यक्ति को वैसा कहना । जैसे- बगुले के शरीर पर पाँचों वर्ण होने पर भी श्वेत रंग की अधिकता के कारण उसे श्वेत कहना । 9.योग सत्य किसी पदार्थ के संबन्ध से उसे सम्बोधित करना। यथा - दण्ड रखने से मनुष्य को दण्डी, लकडी वहन करने से लकडहारा कहना, इत्यादि योगसत्य हैं। 10. उपमान सत्य- तालाब समुद्र जैसा कहना या किसी पुरुष को तुम तो सिंह हो, किसी स्त्री को वह तो देवी है - इत्यादि कहना उपमान सत्य हैं। 61. अ.रा.पृ. 1/773 62. अ.रा.पृ. 6/321, 322 63. अ.रा.पृ. 1/773 64. अ.रा.पृ. 1/773, 6/321 65. अ.रा.पृ. 6/332 66. अ.रा.पृ. 6/321,322 67. वही 68. अ.रा.पृ. 1/774 से 7 एवं 6/321 से 324 69. अ.रा.पृ. 6/321 70. अ.रा.पृ. 6/329 71. अ.रा.पृ. 7/271 72. वही 73. वही 74. वही 75. अ.रा.पृ. 3/229, 230; 7/271, 272; स्थानांग 10 वाँ ठाणां अन्य भी असद्भूतवाद, विकथा, अनर्थवाद (निष्प्रयोजन वाद), कलह, अन्याययुक्त वचन, दूसरों के दूषण कहना, विवाद, परविडम्बनकारी वचन, लज्जारहित वचन, लोकनिन्दाकारी, असभ्य वचन, अज्ञात वचन, स्व-प्रशंसा एवं परनिन्दा, जाति-कुल-रुप-व्याधि इत्यादि से किसी को अपमानित करनेवाले (नीचा दिखाने वाले) वचन, परचित्तपीडाकारी वचन या शाप (अभिशाप) युक्त वचन बोलना'-यह भी मृषावाद कहलाता हैं। यदि एसे सत्य वचन हों तो भी असत्य हैं, अत:त्याज्य हैं। असत्य के त्याग हेतु सत्य को समजना आवश्यक है अतः सत्य का परिचय दिया जा रहा है। सत्य : 'सत्य' की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि यथावस्थित वस्तुविकल्प चिन्तन 'सत्य' कहलाता हैं। सत्य के भेद :क. सत्य के तीन प्रकार से2: 1. मनोवचन सत्य 2. मनः काय सत्य 3. वचन काय सत्य। ख. सत्य चार प्रकार से : 1. नाम सत्य 2. स्थापना सत्य 3. द्रव्य सत्य 4. भाव सत्य । ग. सत्य चार प्रकार से : 1. काययुक्त 2. भाषायुक्त 3. भावयुक्त 4. अविसंवादनयुक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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