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________________ [272]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रमादी साधु को प्रमाद के कारण द्रव्य क्रिया करने पर भी के द्वारा विरति/चारित्र की प्राप्ति होती है, उससे परंपरा से स्वर्ग और मोक्ष अहिंसा के परिणाम नहीं होने से यह भङ्ग घटित होता हैं।40 की प्राप्ति होती है।55 दव्य से हिंसा,भाव से अहिंसा - ईर्यासमितिपूर्वक गमन क्रिया प्राणियों पर की गई दया (अहिंसा पालन) सुकृतों की करते समय उपयोगवान् अप्रमत्त साधु से यदि कोई हिंसा हो क्रीडास्थली, दुष्कृतो रुपी रज को दूर करने हेतु पवन, संकट रुपी जाय तो वह द्रव्य हिंसा है, भाव से तो अहिंसा है। सम्यग्दृष्टि अग्नि (के नाश) हेतु मेघपटल, लक्ष्मी की दूती, स्वर्ग की निसरणी, श्रावक के द्वारा जिनालय निर्माणादि में हुई द्रव्यहिंसा भाव से मुक्ति की प्रियसखीवत् है। अहिंसा पालन से दीर्धायुः, श्रेष्ठ तनु, हिंसा नहीं है (अहिंसा है)। उच्च गोत्र, धनाढ्यता, बल, स्वामीत्व, ऐश्वर्य, आरोग्य, यश कीर्ति, 3. द्रव्य से हिंसा, भाव से हिंसा- कोई शिकारी के द्वारा शिकार आदि प्राप्त होता है एवं वह आत्मा संसार सागर को सुखपूर्वक तैरकर की इच्छा से किसी जीव को निशाना बनाकर उसे बाणादि से पार पहुँचती है। बींधना - द्रव्य और भाव दोनों से हिंसा है क्योंकि यहाँ सर्वथा मृषावाद विरमण : द्वितीय महाव्रत :शिकारी की क्रिया और परिणाम दोनों हिंसा के हैं।42 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने द्रव्य अहिंसा, भाव से हिंसा - शिष्य के विकास की बुद्धि से द्वितीय महाव्रत का वर्णन करते हुए कहा है कि "द्रव्य, क्षेत्र, काल या गुरु के द्वारा शिष्ट के उपर किया जाता 'कोप' द्रव्य-भाव दोनों भाव से क्रोधादि से जीवन पर्यंत मन-वचन-काया से किसी भी प्रकार तरह से अहिंसा हैं। का झूठ बोलना नहीं, दूसरों से बुलवाना नहीं और बोलनेवालों की अहिंसा पालन हेतु कुछ सावधानियाँ : अनुमोदना करना नहीं।" -यह साधु का द्वितीय महाव्रत हैं।58 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अहिंसक साधक के मृषावाद के चार प्रकार :पूर्ण अहिंसा पालन के लिए निम्नाङ्कित सावधानियाँ रखने का निर्देश 1. सद्भाव प्रतिबंध - 'नास्ति आत्मा, नास्ति पुण्यं, पापं च किया हैं इत्यादि । - अर्थात् आत्मा, पुण्य-पाप इत्यादि कुछ भी नहीं 1. पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति, बस-स्थावर आदि समस्त है। -एसी प्ररुपणा करना या कहना। जीवों की दयापालन करने हेतु शुद्ध आहार (गोचरी) की 2. असद् भावोद्भावन - आत्मा सर्वगत है या तन्दुल मात्र है। गवेषणा (खोज) करनी चाहिए । साधु कृत-कारित-अनुमोदन इस प्रकार आत्मादि का जो स्वरुप नहीं है वैसा (विपरीत की नव कोटि से शुद्ध, उद्गम-उत्पादनादि एवं स्वप्न-ज्योतिष स्वरुप) कहना-असद्भावोद्भावन रुप मृषावाद है। निमित्तादि 42 दोषों से रहित, ऋद्धि, रस और शाता गारव 3. अर्थान्तर - गाय को अश्व (घोडा) इत्यादि कहना (अहंकार) से रहित, वंदन-पूजन, मान-सम्मान, मित्रता-प्रार्थना, 4. गर्हा - जैसे - काणे को काण' कहना । पुन: यह क्रोधादि के निंदा-हीलना-गर्हा, रसलोलुपतादि से रहित जयणापूर्वक भेद से चार प्रकार का है। चारित्र-विनयगुणयुक्त एषणापूर्वक आहार चर्या करें। द्रव्यादि के भेद से मृषावाद के चार प्रकार :अहिंसा महाव्रत की पाँचों भावनाओं का पालन करना द्रव्यविषयक मृषावाद - धर्मास्तिकायादि या अन्य चाहिए। सचित्तचित्त सर्व द्रव्य संबन्धी विपरीत प्ररुपणा करना , मुनि के द्वारा किसी भी जीव की हिंसा करना नहीं, आज्ञापूर्वक कराना अन्य के वस्त्र-पात्रादि को अपना कहना, या अन्य के द्वारा बनाये (तैयार नहीं, उनका परिग्रहण करना नहीं तथा उन्हें परिताप (कष्ट) भी 40. अ.रा.पृ. 1/872 नहीं पहुँचाना 146 41. अ.रा.पृ. 5/872, 7/1231; श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति-224 इन षड् जीवनिकाय के समस्त जीवों के स्वरुप को ज्ञातकर 42. अ.रा.पृ. 5/872, 7/12313 श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति-225 मन-वचन-कायापूर्वक जीवहिंसामय आरंभ और परिग्रह से 43. अ.रा.पृ. 7/1231; श्रावक धर्म प्रज्ञसि-228 44. अ.रा.पृ. 1/874 मुनि दूर रहें। 45. अ.रा.प्र. 1/877 दुष्ट अनुबंध से बचने हेतु हिंसा कार्य से ही नहीं अपितु हिंसा 46. वही के निमित्तों से भी दूर रहना चाहिए ।48 47. अ.रा.पृ. 1/878, 879; सूत्रकृताङ्ग 1/9/9 'धार्मिक' की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने अनुयोगद्वार 48. अ.रा.पृ. 1/881; हरिभद्रीय अष्टक 16/3 49. न हिंस्यात्सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । सूत्रोक्त श्लोक को उद्धृत करते हुए कहा है कि "स्थावर या त्रस किसी आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः ।। - अ.रा.भा. 1/878 भी जीव की हिंसा न करें। जो सभी भूतों (प्राणियों) को आत्मवत् 50. अ.रा.पृ. 1/879; सूत्रकृताङ्ग 2/2/80 देखता है (समझता है), वह 'धार्मिक' हैं। अहिंसा श्रेष्ठ धर्माङ्ग हैं।" 51. अ.रा.पृ. 1/879; सूत्रकृताङ्ग 1/11/10 -इस बात को अन्यान्य सभी दार्शनिक, धार्मिक लोग मानते हैं।50 52. अ.रा.पृ. 1/878; सूत्रकृताङ्ग 1/1/4/10 53. अ.रा.पृ. 1/881; सूत्रकृताङ्ग 2/2/1 ज्ञानी होने का यही सार है अहिंसा ही सिद्धान्त (आगम) हैं" - एसा 54. अ.रा.पृ. 1/882; हरिभद्रीय अष्टक 16/5 समझकर किसी भी जीव की हिंसा न करना । अहिंसा के लिए ही 55. अ.रा.पृ. 1/882 तीर्थंकरों ने अणुधर्म (अणुव्रत) कहा है। अहिंसा स्वर्ग और मोक्ष के 56. सूक्त मुक्तावली-25 57. वही-28 मुख्य हेतुभूत है। उसकी रक्षा के लिए सत्यादि व्रत कहे गये हैं।54 58. अ.रा.पृ. 6/326, 7/273 अहिंसा पालन का फल : 59. अ.रा.पृ. 6/321,322 अहिंसा पालन से क्लिष्ट कर्मो का वियोग होने से शुभानुबंध 60. वही 2. 5. दुष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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