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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [333] हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा आदि से रहित होकर करना आदि के प्रतिलेखन, प्रमार्जन हेत, जिनालय में जाने पर, बाहर से चाहिए। उपाश्रय (या जहाँ साधु साध्वी ठहरे हैं, उस स्थान) में आने पर, कायोत्सर्ग का हेतु : 25 श्वासोच्छ्वास (एक 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा' तक) प्रमाण कायोत्सर्ग के हेतुओं का वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने कायोत्सर्ग करना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि पाप की विशेष आलोचना सूत्रों के विषय में उद्देश्य, समुद्देश, अनुज्ञा, प्रस्थापन, प्रतिक्रम, और निंदा करने के लिए, प्रायश्चित करने के लिए, चित्त को विशेष श्रुतस्कन्ध के अङ्ग के परिवर्तनादि में अविधिपूर्वक आचरण के त्याग रुप से शुद्ध करने के लिए, चित्त को आलस्यरहित करने के लिए, हेतु 27 श्वासोच्छ्वास (एक 'लोगस्स सागरवरगंभीरा' तक) प्रमाण पापकर्मों का संपूर्ण नाश करने के लिए तथा श्री अरिहंत की प्रतिमाओं कायोत्सर्ग करना चाहिए। की आराधना के लिए, वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान के लिए, बोधिलाभ कायोत्सर्ग के आगार :के लिए, निरुपसर्ग-मोक्ष के लिए, श्रुतज्ञान की आराधना के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'कायोत्सर्ग' के सोलह आगार और चारित्र की विशुद्धि के लिए बढती हुई श्रद्धा-मेघा(प्रज्ञा), - (छूट) बताये हैंधैर्यधारणा (ध्येय का स्मरण) और अनुप्रेक्षा (बार-बार चिंतन करना) (1) साँस लेने से (2) साँस छोडने से (3) खाँसी आने पूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता हैं। से (4) छींक आने से (5) जम्हाई (उबासी) लेने से (6) डकार कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है - आत्मा और शरीर का आने से (7) अपान वायु निःसरण से (8) चक्कर आने से (9) भेदज्ञान। काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है पित्त के कारण मूर्छा आने से (10) सूक्ष्म अङ्ग संचार होने से (11) प्रवृत्ति । जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य सूक्ष्म रीति से शरीर में कफ तथा वायु का संचार होने से (12) में रहना चाहता है वह स्थान (आसन) मौन और ध्यान के द्वारा सूक्ष्म दृष्टि होने से अर्थात् थोडी सी नजर हिलने से (तथा 'एवमाइएहिं' कायगुप्ति, वाग्गुप्ति और मनोगुप्ति करता है। कायोत्सर्ग द्वारा मानसिक, पद से चार अन्य) (13) आग लग जाय या बिजली या अन्य अग्नि वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां निवृत्त होती हैं। कायगुप्ति से संवर के प्रकाश की प्रकाश उज्जेइ, (उद्योत) लग (पड) जाय (14) कोई या पापाश्रवों का निरोध होता है।69 हिंसक प्राणी सामने आ जाय (15) चोर आदि का भय उपस्थित कायोत्सर्ग का प्रमाण : होने पर अथवा राजादि पकडकर ले जाये तो (16) स्वयं को या अभिधान राजेन्द्र कोश में कायोत्सर्ग तप का वर्णन करते अन्य साधु को सर्प दंश दे (काटे) तो अर्थात् उपरोक्त परिस्थिति समय आचार्यश्रीने कार्य-कारण के अनुरुप कायोत्सर्ग के समय का में कायोत्सर्ग में शरीर चलायमान हो जाय या अग्नि आदि की ज्योति प्रमाण बताते हुए कहा है कि कायोत्सर्ग दो प्रकार के हैं - नियत लगने की स्थिति में कामली (ऊनी शाल-'कम्बलिका') आदि ओढी और अनियत । जाय अथवा 'आग लगने' आदि कारणों की स्थिति में शब्दोच्चारण (1) नियत कायोत्सर्ग : हो जाय या बोलना पडे या स्थान परिवर्तन करना पडे तो कायोत्सर्ग 'देवसिअ' आदि प्रतिक्रमण में दिवस, रात्रि आदि संबंधी का भङ्ग नहीं होता - एसी पूर्वाचार्यों की आज्ञा है। प्रायश्चित हेतु किये जानेवाले कायोत्सर्ग नियत कायोत्सर्ग कहलाते कायोत्सर्ग के 19 दोषा:हैं। उसका प्रमाण बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि जैनागमों 1. घोटक दोष - घोडे की तरह एक पाँव उपर उठाकरालंगडा में दिवस संबंधी प्रतिक्रमण का 100 श्वासोच्छ्वास अर्थात् -चार करके खडे रहना। 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयर' तक; रात्रि संबंधी प्रतिक्रमण का 50 2. लता दोष - लता/बेल की भाँति इधर-उधर घूमना । श्वासोच्छ्वास एवं कुसुमिण (कुस्वप्न) 50 श्वासोच्छ्वास और यदि 3. स्तम्भकुड्य - खम्भे या दीवाल की तरह अकडकर या उसके दुसुमिण (दुःस्वप्न आया हो तो) 58 श्वोसोच्छ्वास73 - इस प्रकार सहारे खडे रहना। 100 या 108 श्वोसोच्छ्वास तक; पाक्षिक प्रतिक्रमण का 300 श्वासोच्छ्वास 4. माल दोष - सिर ऊँचा करके अपनी मञ्जिल या किसी वस्तु (12 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा' तक) चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का का आश्रय कर के खडे रहना। 500 श्वासोच्छ्वास (20 'लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा' तक) और 5. शबरी दोष - भील की स्त्री की भाँति (तरह) अपने गुह्यस्थान सांवत्सरिक (वार्षिक) प्रतिक्रमण का 1008 श्वासोच्छ्वास (40 लोगस्स को अपने हाथ से ढकते हुए खडे रहना। . चंदेसु निम्मलयर' तक और एक नवकार अधिक) प्रमाण कायोत्सर्ग 6. वधू दोष - वधू की तरह सिर नीचा करके खडे रहना। करने का विधान हैं। (2) अनियत कायोत्सर्ग14 : 67. वही, पृ.-3/406 जो कायोत्सर्ग किसी क्रिया करने पर में उसके द्वारा लगे 68. अ.रा.पृ. 3/410, 416, 422, 423, 415; -दो प्रतिक्रमण सूत्र (सार्थ) अतिचार दोषों की शुद्धि हेतु किया जाता है, उसे अनियत कायोत्सर्ग 69. उत्तराध्ययन-29/55 70. अ.रा.पृ. 3/422 से 425 कहते हैं। गमनागमन संबंधी, मल-मूत्र (उच्चार-प्रसवण) का त्याग 71. अ.रा.पृ. 3/422 करने पर, अनिष्टसूचक स्वप्नदर्शन होने पर, प्रयोजनवश शास्त्रोक्त विधिपूर्वक 72. अ.रा.पृ. 3/422, 423, 425 नदी उतरने पर, या प्रयोजनवश नाव से नदी या समुद्र पार करने 73. धर्मसंग्रह भाषांतर भा. | पृ. 590 पर, गोचरी (आहार-चर्या) लाने पर, पानी लाने पर, विश्राम हेतु। 74. अ.रा.पृ. 3/423 बिना प्रतिलेखन (पडिलेहण) किये आसन, शय्या (संथारा, पाट) 75. अ.रा.पृ. 3/411, 414 76. अ.रा.पृ. 3/426 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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