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________________ [334]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 7. निगड दोष - बेडी से जकडे हुए मनुष्य की तरह खडे रहना। 1. देहजाड्यशुद्धि - श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की 8. लम्बोतर दोष - चोलपट्टे को जानु से नीचे या डूंटी से उपर जडता नष्ट हो जाती है। ____ या अव्यवस्थितरुप से रखकर कायोत्सर्ग करना। 2. परमलाघव - शरीर बहुत हल्का हो जाता है। 9. स्तन दोष - स्त्री की भाँति वस्त्र से स्तन (सीने) को ढंककर 3. मतिजाड्यशुद्धि - जागरुकता के कारण बुद्धि की जडता नष्ट कायोत्सर्ग करना। हो जाती है। 10. ऊर्द्धिका दोष - पैर के पंजों के अंगूठे को बाहर की ओर 4. सुख-दुःख तितिक्षा -- सुख-दुःख को सहने की क्षमता बढती फैलाना बहिः शकटोद्धिका और अंदर की ओर फैलाना अभ्यन्तर शकटोर्द्धिका दोष हैं। 5. अनुप्रेक्षा - अनुचिन्तन के लिए स्थिरता प्राप्त होती है। 11. संयती दोष - साध्वी की तरह ऊपरी वस्त्र (चद्दर, खेस) 6. ध्यान - मन की एकाग्रता सधती है।80 __आदि से कन्धे को ढंककर कायोत्सर्ग करना। अनुयोगद्वार में कायोत्सर्ग को व्रण चिकित्सा कहा है।। 12. खलीन दोष - लगाम से पीडित घोडे की तरह मुँह हिलाते साधना में सतत जागरुकता के बाद भी प्रमादवश जो दोष लग जाते हुए या सिर हिलाते हुए या रजोहरण को आगे रखकर कायोत्सर्ग हैं, उन दोष रुप घावों की चिकित्सा के लिये कायोत्सर्ग का प्रावधान करना खलीन दोष हैं। महत्त्वपूर्ण है। संयमी जीवन को परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त 13. वायस दोष - दृष्टि को इधर-उधर घुमाते हुए चलायमान करने के लिए, अपने आपको विशुद्ध करने के लिए, आत्मा को चित्त से कायोत्सर्ग करना। माया, मिथ्यात्व और निदानशल्य से मुक्त करने के लिए, पापकर्मों 14. कपित्थ दोष - गोलाई में घूमते हुए या जंघादि के बीच के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है।82 वस्त्रों को रखकर या मुट्ठी बाँधकर कायोत्सर्ग करना। शरीर शास्त्रीय दृष्टि से कायोत्सर्ग प्राणऊर्जा का संचय करता 15. शीर्षोत्कम्पित दोष - सिर को हिलाते/कम्पायमान करते है। इसके द्वारा ऐच्छिक संचलनों का संयमन होता है। आगम प्रेरणा हुए कायोत्सर्ग करना। देते हैं कि साधक हाथों का संयम, पैरों का संयम, वाणी का संयम 16. मूकदोष-कायोत्सर्ग के निकटवर्ती स्थान में हरी वनस्पत्यादि तथा इन्द्रियों का संयम करें जिससे प्राण ऊर्जा को संग्रहीत कर उसे का छेदन भेदन होने पर गूंगे की तरह हुँकार करते हुए कायोत्सर्ग चेतना से ऊध्वारोहण में लगा सके। करना। कायोत्सर्ग द्वारा उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, नाडीतंत्रीय 17. अङ्गलिभ्रू दोष - कायोत्सर्ग में सूत्र (लोगस्स, नवकारादि) अस्त-व्यस्तता, पाचनतंत्रीय वर्ण, अनिद्रा, तनावजनित रोगों की रोकथाम की संख्या गिनने हेतु अंगुली हिलाना, अंगुली चलाना, चुटकी एवं उपचार किया जा सकता है। तनाव-जनित बीमारियों का कारण बजाना, भौंहे टेढी करना या भौंहे नचाना । है तनाव की निरन्तरता एवं तीव्रता । तनाव विकल्पों के लिए ऊर्वरा 18. वारुणी दोष - कायोत्सर्ग में बड-बडाहट करना या शराबी भूमि है। मानसिक तनाव, स्नायविक तनाव, भावनात्मक तनाव इनको __ की तरह शरीर को दोलायमान करना। मिटाना, इनकी ग्रंथियों को खोल देना कायोत्सर्ग का कार्य है। 19. प्रेक्षा दोष - कायोत्सर्ग में ओष्ठ आदि को चलाना। तप के अन्य प्रकार :__अन्य कोई आचार्य इनमें स्तंभ दोष और कुड्य दोष तथा बारह प्रकार के तपों के अतिरिक्त प्रस्तुत कोश में आजीविको अङ्गलि और भ्र दोष को अलग-अलग गिनने के साथ इक्कीस दोष के चार प्रकार के तप का भी वर्णन उपलब्ध होता है। यथा आजीवियाणं भी मानते हैं। इनमें से स्त्री को वधू दोष, संयती दोष और स्तन चउविहे तवे पण्णते । तं जहा-उग्ग तवे घोर तवे, रसनिज्जूहणया, दोष नहीं लगते। जिम्भिदिय पडिसंतीव्या । अन्य कोई आचार्य बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना, शरीर-स्पर्श आजीविकों के मतानुसार तप चार प्रकार का होता हैं। वह करना, प्रपञ्चपूर्वक कायोत्सर्ग करना, सूत्रोक्त विधि से न्यून विधि निम्न हैंसे कायोत्सर्ग करना, व्याक्षेपपूर्वक कायोत्सर्ग करना, आसक्त लोभाकुल (1) उग्र तप - जो आचरण में कठिन हों। चित्त से या पापकार्योद्यमपरक कायोत्सर्ग करना या कृत्याकृत्य की (2) घोर तप - जो दिखने में कठिन हो। विमूढतापूर्वक कायोत्सर्ग करना - आदि को कायोत्सर्ग के दोष मानते (3) रसनि!हण तप - स्वादिष्ट वस्तु न लेना। (4) जिह्वेन्द्रिय तप/प्रतिसंलीनता तप - रसनेन्द्रियों के विषयों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि भगवती आराधना का संकोच करना। में (1) घोटक पाद (2) लतावक्र (3) स्तम्भ स्थिति (4) स्तम्भावष्टम्भ 77. अ.रा.पृ. 3/426 (5) कुड्यश्रित (6) मालिकोद्वहन (मालदोष) (7) लम्बिताघर (प्रेक्षा 78. अ.रा.पृ. 3/427 दोष) (8) स्तनदृष्टि (9) काकावलोकन (10) खलीनित (11) युगकन्धर 79. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/621, 622; अनगारधर्मामृत 8/112 से 119; (कन्धे झूकाना) (12) कपित्थमुष्टि 913) मूक संज्ञा (14) अंगुलिचालन भगवती आराधना-116/279/8 (15) भ्रूक्षेप (16) शबरीगुह्यगूहन (17) श्रृंखलित (18) उन्मत - 80. आवश्यक नियुक्ति-1462 ये कायोत्सर्ग के अठारह दोष दर्शाये हैं। 81. अनुयोगद्वार 74 (नवसुत्ताणि, भाग-5, पृ. 15) 82. आवश्यक सूत्र 5/3 (नवसुत्ताणि, भाग-5, पृ. 15) कायोत्सर्ग के लाभ : 83. दशवकालिक 10/5 कायोत्सर्ग की अनेक उपलब्धियां हैं 84. अ.रा.पृ. 4/2205; स्थानांग-4/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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