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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [3351 गीता के मन्तव्यानुसार तप के स्वरुप व उसके उद्देश्य को का क्षय करता है, कर्मो की निर्जरा करता है। अत: तप का फल दृष्टिपथ में रखकर तप का जो वर्गीकरण किया गया है, वह इस निर्जरा हैं। प्रकार हैं -1. शारीरिक तप 2. वाचिक तप 3. मानसिक तप।85 अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचारी और रस परित्याग-निर्जरा के शारीरिक से वाचिक और वाचिक से मानसिक तप श्रेष्ठ माना गया इन प्रकारों का हमारे जीवन के साथ गहरा संबंध है। इनके प्रयोग है, और यह तप जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से निर्जरा का कारण से शरीर में संचित विषैले रसायन (Toxic) खत्म होते हैं। आसन, हैं।86 गीता के अनुसार तीनों तप यदि निष्काम वृत्ति से (फाकांक्षा प्राणायाम, अन्य यौगिक क्रियायें चंचलता के सन्दर्भ में शरीर और से रहित होकर) दृढ श्रद्धा के साथ किये जाते हैं, वे सात्त्विक तप मन को साधती हैं। प्रतिसंलीनता में मन और इन्द्रियों का निग्रह है67, जो उत्कृष्ट व प्रथम श्रेणी के हैं और निर्जरा करनेवाले हैं। होता है। बाह्य तप द्वारा व्यक्ति के भीतर अनेक ऐसे रसायन पैदा यदि वह तप सत्कार-मान सम्मान एवं पूजा प्रतिष्ठा आदि होते हैं जिसके द्वारा व्यक्तित्व में निम्न गुणों का प्रकटीकरण होता प्राप्त करने के प्रयोजन से दम्भपूर्वक किया जाता है तो राजस तप है, जो मध्यम श्रेणी का हैं। • सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। जो तप मूढतापूर्वक हठ से तथा मन, वचन और काय की • शरीर कृश हो जाता है। पीडा सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, • आत्मा संवेग में स्थापित होती है। वह 'तामस तप' कहाता है, जो जघन्य श्रेणी का हैं। • इन्द्रिय-दमन होता है। तप से विविध लाभ एवं उद्देश्य : • समाधि योग का स्पर्श होता है। तपोमूला हि सिद्धयः । समस्त सिद्धियाँ तपमूलक हैं । सब • वीर्यशक्ति का सम्यक् उपयोग होता है। की जड तप है। तप में अद्भूत, अचिन्त्य, अनुपम शक्ति सन्निहित • जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। है। इसकी शक्ति के समक्ष अन्य शक्तियाँ परास्त हो जाती हैं। इसमें • संक्लेश-रहित दु:ख भावना (कष्ट-सहिष्णुता) का अभ्यास इतनी शक्ति समाहित है कि इसके द्वारा सर्व प्रकार के रोग दूर हो बढता है। जाते हैं। • देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। तपश्चरण के द्वारा तीर्थङ्करत्व, चक्रवर्तित्व आदि समस्त पद • कषाय का निग्रह होता है। भी प्राप्त होते हैं। तप से असंख्य, अगणित, लब्धियाँ, शक्तियाँ, • विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन) भाव उत्पन्न होता है। ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ भी उपब्ध होती हैं। इसलिए प्रवचनसारोद्धार में समाधि मरण की ओर गति होती है। कहा गया है- परिणामतववसेणं इमाइं इंति लद्धीओ- जितनी आहार के प्रति आसक्ति क्षीण होती है। भी लब्धियाँ हैं, वे सब तप का ही परिणाम हैं। • आहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है। तप साधना से आत्मा में अद्भुत ज्योति प्रदीप्त होती है अशुद्धि बढ़ती है। और एक विचित्र अलौकिक शक्ति जागृत होती हैं। "भवकोडी • लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है। संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ" 2 अर्थात् साधक करोडों जन्मों ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। के संचित कर्मो को तपश्चकरण के द्वारा क्षीण कर देता हैं अतः कहा निद्रा-विजय होती है। गया है - "तवसा धुणई पुराण पावगं ।'५3 अर्थात् तपश्चर्या से पूर्वकृत • ध्यान की दृढता प्राप्त होती है। पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। तपश्चरण से सम्यग्दर्शन शुद्ध होता हैं • वियुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है। और आत्मा का ज्ञान दर्शन-चारित्र निर्मल, निर्मलतर होता जाता हैं। दर्प का नाश होता है। वैदिक ग्रंथो में भी तप से महान् फल की प्राप्ति का उल्लेख स्वाध्याय योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है। किया गया हैं। तपश्चरण के द्वारा मन पर विजय करने की ज्ञानशक्ति • सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है। प्राप्त होती हैं। तप से मन वश में होता है। मन वश में हो जाने • आत्मा, कुल, गण, शासन - सबकी प्रभावना होती है। से दुर्लभ आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती हैं और आत्मा की प्राप्ति हो 85. अ.रा.पृ. 4/2205; भगवद् गीता-17/14-15-16 जाने पर संसार से मुक्ति मिलती है, और इस प्रकार तप से आत्मा 86. अ.रा.पृ. 4/2205; गच्छाचार पयन्ना सटीक-2 अधिकार कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाती हैं। 87. अ.रा.पृ. 4/2205; भगवद् गीता-17/17 88. अ.रा.प्र. 4/2205%3भगवद् गीता-17/18 अभिधान राजेन्द्र कोश में भगवान् महावीर और गौतम गणधर 89. अ.रा.पृ. 4/2205% भगवद् गीता-17/19 के संवाद को उद्धृत किया गया है, गौतम पूछते हैं - "तवेण भन्ते ! 90. जयन्तसेन सतसई, पृ.25 जीवे कि जणयइ ?"95 हे भगवान् ! तप करने से किस फल की 91. प्रवचन सारोद्धार, द्वार 270, गाथा 1492 प्राप्ति होती है? तब भगवान् महावीर प्रत्युत्तर देते हैं - "तवेणं 92. अ.रा.पृ. 1/321, 4/2200; उत्तराध्ययन-30/6 वोयाणं जणयई। 96 - तप से व्यवदान (कर्मो की निर्जरा) होता 93. अ.रा.पृ. 4/2207, 5/1566; दशवैकालिक-9/4/10 एवं 10/7 94. यजुर्वेदीय मैत्रायणी आरण्यक 4/3 है। व्यवदान का अर्थ है - दूर हटना या छोडना। 'व्यवदान' का 95. अ.रा.पृ. 4/2205; उत्तराध्ययन-29/27 शाब्दिक अर्थ करते हुए प्रस्तुत कोश में कहा गया है - तपसा 96. अ.रा.पृ. 4/2205; उत्तराध्ययन-29/27 जीवो व्यवदानं जनयति, पूर्वबद्धकर्मापगमनेन विशेषेण शुद्धि 97. अ.रा.पृ. 4/2205; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक-29/27 जनयति १7 - आत्मा तपश्चरण के द्वारा कर्मों को दूर हटाता है, कर्मो 98. अ.रा.पृ. 6/337; आचारांग सूत्र सटीक-1/2/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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