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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कव्वरस - काव्यरस ( 3/393 कवि के अभिप्राय की अनूभूति 'काव्यरस' कहलाता है। उससे उत्पन्न चित्तविकार इसका सहकारी कारण है। अथवा बाह्य अर्थावलम्बन से मानसिक वस्तुविकार 'भाव' कहलाते हैं; भाव का उत्कर्ष 'रस' कहलाता है। वह रस नौ प्रकार का है- 1. वीर, 2. श्रुंगार, 3. अद्भूत, 4. रौद्र, 5. विस्मय, 6. बीभत्स, 7. हास्य, 8. करुण और 9 प्रशान्त । कहा - कथा (स्त्री.) 3/402 उनके (कथा नायक के) नामोच्चारण, गुणोत्कीर्तन, चरित्रवर्णनादि रुप वचन पद्धति, वाक्य प्रबन्ध, या शास्त्र को 'कथा' कहते हैं। यहाँ पर कथा, विकथा के भेद-प्रभेदों का वर्णन किया गया हैं- जैसे- अर्थकथा, धर्मकथा, कामकथा, मिश्रकथा, श्रृंगारकथा, तपोनियमकथा, उत्सर्गकथा, आस्तिकनय कथा, निश्चयनय कथा, पर्यायास्तिक नय कथा; नैयायिकोक्त वादादि कथा, प्रकीर्णकथा, अपवादकथा, इत्यादि । अभिधान राजेन्द्र कोश में इसी शब्द के अन्तर्गत कथा कहने की विधि, स्थान, समय, द्रव्यादि अनुकूलता आदि का किया गया है। वर्णन कोस कोष (श) पुं., न.- 3/681 साहित्य विधा में शब्द पर्यायज्ञापक अभिधान (नाम) के संग्रह को 'कोश' कहते हैं। यहाँ अन्य अर्थ में अण्ड, सोने के कुण्ड, मुकुट, समूह, दिव्य का भेद, पनसादिक के मध्य का 'कोवा' नामक पदार्थ पानपात्र, पानी भरने की कोश (चषक), शिम्बा, धान्यनिधि, नेत्रकोष, बर्तनघर, आश्रय, लक्ष्मी का भंडार, शस्त्रों का समूह, तलवार का आवरण, प्रत्याकार, त्वचा का प्रथम आवरण में कोशवत् आकार (कोशिका), घर, कान्यकुब्ज और दो हजार धनुष्क प्रमाण माप आदि के लिये 'कोस (कोश)' शब्द प्रयुक्त हैं। ग्रंथ - ग्रंथ (पुं.) 3/793 जिसके द्वारा अर्थ का ग्रथन किया जाय उसे, श्रुत को, शब्द संदर्भ को और शास्त्र को 'ग्रन्थ' कहते हैं । अन्यत्र जिस बाह्य आभ्यन्तर निमित्त से जीव कर्म बन्धन से ग्रथित होता (बँधता) है, उसे 'ग्रंथ' कहते हैं। यहाँ तत्संबन्धी अनेक प्रकार के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया है। गज्ज - गद्य (न.) 3/812 सूत्र और अर्थ, दोनों के द्वारा मधुर, सहेतुक ( उपपति सहित) आनुपूर्वीबद्ध (क्रमबद्ध), विशिष्ट छन्द रचना रहित / पाद रहित, अर्थ से विरामयुक्त किन्तु पाठ से विरामरहित, बडा, ( अंत में मृदुपाठ्य) काव्य 'गद्य' कहलाता हैं । गमिय गमिक (न.) 3/841 - - तृतीय परिच्छेद... [95] भङ्गयुक्त शास्त्र, गणितादि युक्त शास्त्र, प्रायः गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि से सदृश पाठवाले दृष्टिवादादि अंग सूत्र एवं उत्तराध्ययना सूत्र को 'गमिक सूत्र' कहते हैं । गाहा - गाथा (स्त्री.) 3/872 संस्कृत (प्राकृतादि) भाषा में निबद्ध 'आर्या' छंद को 'गाथा' कहते हैं। यहाँ 'गाथा' छंद के भेद-प्रभेदों के लक्षणपूर्वक वर्णन किया गया है। अन्यत्र 'गाथा' का अर्थ प्रतिष्ठा और घर भी किया गया है। गीतिया - गीतिका (स्त्री.) 3 / 901 पूर्वार्ध के समान उत्तरार्ध के लक्षण वाले 'आर्या' छंद को 'गीतिका' कहते हैं। गीत गाने की कला को भी गीतिका कहते हैं । गीय - गीत (न.) 3/901 गाने योग्य रचना, गान, ध्रुवकादि छंद निबद्ध, पद-स्वर ताल के अवधानपूर्वक का गान्धर्व 'गीत' कहलाता है। गीत कला में सात स्वर, इक्कीस मूर्च्छना और उनपचास तान युक्त स्वरमण्डल होता है। इसी शब्द के अन्तर्गत गीत के और गीतकार के गुण-दोषों का भी वर्णन किया गया हैं। गेय - गेय (न.) 3/948 तन्त्री, ताल, वर्ण, ग्रह, लय की समानतायुक्त, गान योग्य, स्वर संचार के द्वारा गीतिप्राय निबद्ध काव्य रचना को 'गेय' कहते हैं। गौडी - गौडी (स्त्री.) 3 / 1340 समासबहुल काव्यरचना को गौडीकाव्य कहते हैं । अन्यत्र गुड से निष्पन्न मदिरा को भी गौडी कहा जाता है। छन्द - छन्दस् (पु. न. ) 3 / 1340 वेद के चतुर्थ अङ्ग, पद्य वचन के विषय में लक्षण शास्त्र और छंद (बनाने की) कला के विषय में छंद शब्द का प्रयोग होता हैं। संस्कृत पुलिङ्ग में छंद शब्द का अर्थ अभिलाषा, अभिप्राय, प्रार्थना, गुर्वादेश रहित आचरण और गुरु का अभिप्राय किया हैं । छंदोणिबद्ध - छन्दोनिबद्ध (न.) 3 / 1343 छन्दः शास्त्र के नियमों के अनुसार (संस्कृतादि भाषा के) पद्य को 'छन्दोनिबद्ध' कहते हैं। निज्जुत्ति नियुक्ति (स्त्री.) 4/2060 निश्चयपूर्वक अर्थप्रतिपादक युक्ति, श्रीभद्रबाहुस्वामीकृत व्याख्यान ग्रंथ, व्याख्या के उपायभूत सत्पदप्ररूपणा को 'निर्युक्ति' कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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