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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुथ पारच्छद... [365] अष्टप्रकारी पूजा :
त्रिकाल जिनपूजा :जिनपूजा एवं स्नात्रमहोत्सवादि में अष्टप्रकारी पूजा सामान्यतया
जैनागमानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने त्रिकाल अधिक प्रचलित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने इसका जिनपूजा का वर्णन करते हुए कहा है कि, "श्रावक प्रातः शरीर विस्तृत वर्णन किया हैं जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं
शुद्धिपूर्वक शुद्ध वस्त्र (धोये हुए) धारण कर दूर से धूप-दीप पूर्वक (1) जलपूजा - स्नानपूर्वक पूजन के वस्त्र धारण कर पूजन की परमात्मा (की प्रतिमा) की वासक्षेप पूजा करें, मध्याह्न अथवा यथासमय समग्र सामग्री तैयार करने के पश्चात् द्वितीय 'निसीहि' बोलने के अनुकूलतानुसार अष्टप्रकारी आदि पूजा करें एवं संध्या समय आरती बाद परमात्मा की प्रतिमा पर से निर्माल्य (वासी फूल आदि) उतारकर मङ्गलदीपक पूर्वक जिनपूजा करें। मोरपिच्छी से प्रमार्जन करने के पश्चात् शुद्ध जल से अभिषेक करना; जिनपूजा का फल :तत्पश्चात् शुद्ध जल, गाय का दूध, दही, मिश्री और घी (दूध-1
जीव के अशुभ भावरुप लोह को सुवर्ण समान करने के भाग, जल-5 भाग, दही-एक छोटी चम्मच, मिश्री-थोडी सी, घी- लिए जिनप्रतिमा पारसमणि समान है जो मुक्तिफल देती है। जिनपूजा दो-चार बूंद) को मिलाकर छानकर उनसे परमात्मा को प्रक्षाल (अभिषेक) पुण्यबंध का हेतु हैं।6, कर्मरुप मैल को धोने में जल के समान करना, तत्पश्चात् शुद्ध जल से प्रक्षाल करना - 'जलपूजा' हैं। है", स्व-पर उपकारी है। संसार भ्रमण का उच्छेद करती है।४, बोधिबीज (2) चंदन पूजा - उत्तम चंदन के साथ केशर, कस्तूरी, बरास का कारण है। जो जिनपूजा नहीं करता, उसे भवान्तर में बोधिबीज (भीमसेनी कपूर-पूजन में प्रयुक्त होने वाला सुगन्धिपदार्थ) आदि को (सम्यक्त्व) प्राप्त नहीं होता।20 घिसकर, प्रक्षाल के बाद अंगप्रोक्षण करके बरासयुक्त चंदन का विलेपन
जिनेश्वर परमात्मा की जल चंदनादि अष्टप्रकारी पूजा करने करके जिनप्रतिमा के 9 अङ्ग (दो अंगूठे, दो जानु, दो कलाई, दो से ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों का नाश करके भव्यात्मा मोक्षसुख/निर्वाण स्कन्ध, शिखा, तिलक, भाल, कंठ, हृदय, नाभि) पर तिलक करना पद को प्राप्त करता हैं। 'चंदन पूजा' है। चंदन में केशर और बरास चातुर्मास में समानुपात,
जिनमंदिर में शिखर एवं उस पर आरोहित स्वर्ण कलशों शीत ऋतु में 1:2, और ग्रीष्म ऋतु में बरास अधिक और केशर द्वारा आकाश में प्रवाहित हो रही तरङ्गों, विद्युत् शक्तियों, विशुद्ध न्यून मिलाना चाहिए। (बिना चंदन के अकेले केशर से जिनपूजा परमाणुओं एवं ऊर्जा को आकर्षित कर ग्रहण एवं संगृहीत की जाती नहीं करनी चाहिए; एसा करने से प्रतिमा को गड्डे हो जाते हैं।) हैं। जिनमंदिर में जाने से मंदिर में संग्रहीत यह ऊर्जा हमें प्राप्त होती (3) पुष्प पूजा - सुगंधित, अखंड शुद्ध (जिसे पक्षी आदि ने खराब हैं जिससे आराधक को नई ऊर्जा, अद्रुत शांति, विशिष्ट सुखानुभूति न किया हो या किसी अशुद्ध व्यक्ति ने स्पर्श न किया हो) ताजे, की प्राप्ति होती हैं। शुभ, जमीन पर नहीं गिरे हुए हों, गुलाब, मोगरा, चंपा, चमेरी, कमल, 5. अवस्थात्रिक :जाई, जूही आदि के फूल, उनकी माला आदि परमात्मा को चढाना
द्रव्य पूजा करने के पश्चात् प्रतिमा के सामने खडे रहकर 'पुष्प पूजा' हैं। - ये तीनों पूजाएं 'अंगपूजा' कहलाती हैं। हृदय के अहोभावपूर्वक परमात्मा की पिण्डस्थ, पदस्थ और रुपातीत (4) धूप पूजा - कृष्णागरु, गुग्गुल, चंदन शिलारस, दशाङ्गी आदि अवस्था का चिन्तन करना, अवस्थात्रिक हैं। धूप करके परमात्मा की दायीं ओर रखना 'धूपपूजा' हैं। (5) दीपक पूजा - कपास की रुई की बत्ती से शुद्ध घी का
13. अ.रा.पृ. 3/1282 दीपक कर परमात्मा की दाँयी ओर रखना, 'दीपक पूजा' हैं।
मध्याह्न पूजा का अर्थ कुछ लोगो दोपहर 12 बजे चंदन पूजा करना - (6) अक्षत पूजा - शुद्ध अखंड, उत्तम, कोरे (बिना तेल के),
ऐसा करते है जबकि विधि यह है कि, सूर्योदय से एक प्रहर के बाद अक्षतों (चावलों) से परमात्मा के सामने स्वस्तिक, भद्रासन, कलश, श्रावक सपरिवार जिनमंदिर जाकर परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा, स्नात्रपूजादि सिंहासन, नंदावर्त, संपुट दर्पण और मीनयुगल - इन अष्ट मंगलों
करें; आरती आदि करके अभिजित मूहुर्त में (11 बजे बाद) मध्याह्न के
देववंदन करें। जैसाकि जैन तीर्थों में प्रायः 9 बजे प्रक्षाल किया जाता अथवा स्वस्तिक, अक्षत (चावल) से तीन बिन्द्वाकार राशियाँ (ढगली)
है, तत्पश्चात् चंदनपूजा, स्नात्रपूजादि होते है। यदि 12.00 बजे चंदन पूजा बनाना और सिद्धशिला बनाना 'अक्षत पूजा' हैं।
की जाय तो नात्र, अष्टप्रकारी पूजा, आरती, देववंदनादि कब होंगे? मंदिर (7) नैवेद्य पूजा - मिश्री या गुड या घी शक्कर या गुड दूध कब मंगल होगें एवं पूजारी आदि कब भोजन करेंगे ? एवं श्रावकया दही से बनी शुद्ध उत्तम मिठाई (जिसका स्वाद, वर्ण, गंध परावर्तित श्राविका के दो बजे तक मंदिर में रहने पर वे साधु-साध्वी के सुपात्रन हुआ हो), खीर, पकवान एवं घर में बनी उत्तम रसोई परमात्मा
दान से भी प्रायः वंचित रहने की संभावना होगी - सुज्ञ भावुक इस
बात पर सयुक्तिक विचार करें। के सामने रखना 'नैवेद्य पूजा' कहलाती हैं।
14. अ.रा.पृ. 3/1288 (8) फल पूजा - ऋतु के अनुसार यथाप्राप्य उत्तम जाति के, अखंड, 15. अ.रा.पृ. 3/1245 ताजे, पके हुए आम, मौसंबी, संतरे, केला, श्रीफल, बीजोरा, सेवफल, 16. अ.रा.पृ. 3/1278; पञ्चाशक-4/8 गन्ने, चीकू आदि उत्तम फल परमात्मा के सामने रखना ‘फल पूजा'
17. अ.रा.पृ. 3/1279
18. अ.रा.पृ. 3/1281 कहलाती हैं।
19. अ.रा.पृ. 3/1280 पूजा करते समय नैवेद्य स्वस्तिक पर एवं फल सिद्धशिला
20. वही पर रखे जाते हैं। धूप से फल तक की पूजा 'अग्र पूजा' कहलाती 21. अंतराय कर्म निवारण पूजा
22. जैनाचार विज्ञान पृ. 28, 29 23. अ.रा.पृ. 3/1299, 1304; चैत्यवन्दन भाष्य (सार्थ) पृ. 78-79
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