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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिनपूजा - 'जिनपूजा' शब्द में 'जिन' और 'पूजा' ये दो शब्द हैं ('जिन' का वर्णन पूर्व में (पृ. 153 पर किया जा चुका हैं)। 'पूजा' की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि, प्रशस्त मन-वचन-काय की चेष्टा, सत्कार, पुष्प, फल-आहार-वस्त्रादि के द्वारा पूजा, स्तवादि के द्वारा पूजा / भक्ति करना 'पूजा' कहलाती हैं।' [364]... चतुर्थ परिच्छेद जिनपूजा के दो भेद 1. 2. दशत्रिक : द्रव्यस्तव जल, चंदन, पुष्पादि उत्तम सुगन्धित द्रव्यों से शुभभावपूर्वक परमात्मा की पूजा (जिनपूजा) 'द्रव्य स्तव' हैं।' -: भावस्तव - परमात्मा के सामने चैत्यवंदन, भक्ति, भावना, जिनवाणी सम्मत नृत्य, नाटक, स्तुति, स्तवन, स्तोत्रादि को सस्वर, वादित्रादि के साथ गायन 'भावस्तव' हैं। द्रव्यपूजा के प्रकार : जैन शास्त्रों में जिनपूजा के दो, तीन, पञ्चोपचारी, अष्टप्रकारी, सत्रहभेदी, इक्कीसप्रकारी, चौंसठप्रकारी सर्वोपचारी आदि अनेक भेद अंगपूजा और अग्रपूजा के अन्तर्गत वर्णित हैं। 4 : चैत्यवंदन महाभाष्यादि ग्रंथों में द्रव्यस्तव और भावस्तव का विस्तृत वर्णन जिनमंदिर संबंधी 'दशत्रिक' के अन्तर्गत किया गया हैं, अतः यहाँ भी दशत्रिक का वर्णन किया जा रहा हैं। 1. निसीहित्रिक : जिनमंदिर में प्रवेश करने से पूर्व मुख्य द्वार पर तीन बार 'निसीहि' शब्द बोलना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि, "मै सावद्य पाप व्यापार (सांसारिक कार्यों) का त्याग करता हूँ।" जगत संबंधी सर्व विचारों को छोडकर जिनभक्ति के लिए मैं मंदिर में प्रवेश कर रहा हूँ ।" तत्पश्चात् द्रव्य पूजा संबंधी सामग्री तैयार करना मंदिर संबंधी सफाई सार-संभाल आदि के त्यागरुप तीन बार 'निसीहि' शब्दोच्चारण रुप दूसरी निसीहि मंदिर के गर्भगृह / गभारे के द्वार के पास बोलना चाहिए। और द्रव्यपूजा संपूर्ण हो जाने के बाद द्रव्य पूजा का त्याग करके एवं भाव पूजा (चैत्यवंदन, स्तुति-भक्ति, कायोत्सर्ग आदि) को प्रारंभ करते समय रङ्गमण्डप में तीन बार 'निसीहि' शब्दोच्चारणपूर्वक तीसरी 'निसीहि' बोलनी चाहिए।" 2. प्रदक्षिणात्रिक : प्रथम निसीहि के बाद और द्वितीय निसीहि के पूर्व परमात्मा के सामने खड़े रहकर परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए (इसका वर्णन आगे 'जिनथुणणं' शीर्षकान्तर्गत किया जायेगा) तत्पश्चात् परमात्मा को अपनी दायीं ओर रखकर परमात्मा के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा / फेरी लगाना 'प्रदक्षिणात्रिक' हैं ।' प्रदक्षिणा लगाते समय मन में परमात्मा के वीतरागतादि गुणों का ध्यान, सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र की प्राप्ति, शुद्धि-विशुद्धि, वृद्धि आदि भाव गुंजायमान होने चाहिए। इससे इलड-भौंरी न्याय से आराधक में शुभानुबंध वीतरागता का आकर्षण एवं संस्कार उत्पन्न होते हैं। मंदिर में शिखर, संगीत और मंत्र ध्वनि Jain Education International के माध्यम से एकत्रित हुई ऊर्जा-शक्ति को ग्रहण करने के लिए प्रदक्षिणा एक सशक्त माध्यम हैं, प्रदक्षिणा से भवमी में रही हुई जिन प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं एवं दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना होती है। 3. प्रणामत्रिक : जिनेश्वर परमात्मा को प्रणाम करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय गुण का प्रादुर्भाव होता हैं। प्रणाम तीन प्रकार के होते हैं - (क) अंजलिबद्ध प्रणाम परमात्मा दृष्टिगोचर होते ही दो हाथ जोडकर अञ्जलि ललाट के आगे रखकर, कुछ झुक कर 'नमो जिणाणं' बोलते हुए प्रणाम करना । " (ख) अर्धावनत प्रणाम द्रव्य पूजा के पूर्व मूल गर्भगृह के पास पहुँचकर कमर से आधा शरीर झुकाकर हाथ जोडकर प्रणाम करना 110 (ग) पञ्चाग प्रणिपात द्रव्यपूजा पूर्ण होने पर चैत्यवंदन करते समय दो घुटनों दो हाथ और मस्तक ये पाँचों अङ्ग भूमि को स्पर्श करते हुए प्रणाम करना (खमासमण देना) ।" 4. पूजात्रिक" : 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. (1) अङ्गपूजा जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा को स्पर्श करके जल, चंदन, पुष्प एवं अंगरचना (आंङ्गी) करना अङ्ग पूजा हैं । अग्रपूजा - भगवान के सामने धूप-दीप करना; अक्षत, फल, नैवेद्यादि चढाना, घंटी बजाना, चामरादि ढोलना, दर्पण दिखाना, पंखा झेलना आदि परमात्मा के सामने परमात्मा को बिना स्पर्श किये की जानेवाली पूजा 'अग्रपूजा' कहलाती हैं। (2) - (3) भावपूजा - भावस्तव भावनूजा हैं इसका परिचय आगे दिया जा रहा हैं 1 अ. रा. पृ. 5/1073 अ. रा. पृ. 3/1283, 4/2171; अ. रा. पृ. 5/1073 अ. रा. पृ. 3/1257-58-83-85 अ. रा. पृ. 3/1283 अ. रा. पृ. 3/1299 अ. रा. पृ. 3/1298 1303 साप्ताहिक: श्रमण भारती पृ. 3, 14 फरवरी सन् 1999 जैनाचार विज्ञान पृ. 32 अ. रा. पृ. 3/1298-99, 1303 अ.रा. पृ. 3/1299, 1304 10. 11. अ. रा. पृ. 3/1299, 1304 अ. रा. भा. 3 'चेइय' शब्द 12. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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