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________________ [230]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करता है, उसे लेश्या कहते है।' तत्त्वार्थ राजवार्तिक में अकलंकने कहा ___'विस्त्रसा नोकर्म द्रव्य लेश्या' कहलाती है। है- "कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्ति लेश्या।" अर्थात् कषायों के 4. भाव लेश्या- कषाय से अनुरंजित जीव की मन-वचन-काया के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है। आत्म-परिणामों की शुद्धता योगों की प्रवृत्तिजनित परिणाम/अध्यवसाय/परिणति/अन्तःकरण की वृत्ति और अशुद्धता की अपेक्षा से इसे कृष्णादि नामों से पुकारा जाता है।18 भावलेश्या कहलाती है। यह संयोगी जीव के होती है। लेश्या के प्रकार: अयोगी आत्मा को योग-परिणाम का अभाव होने से लेश्या अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लेश्या चार प्रकार की का अभाव होता है। दर्शाई है। भाव लेश्या के प्रकार :1. नाम लेश्या- किसी पदार्थ या स्त्र्यादि का 'लेश्या' -एसा नाम भाव लेश्या छ: प्रकार की है - 1. कृष्ण, 2. नील, 3. होना। कापोत, 4. तेजस् , 5. पद्म और 6. शुक्ल ।25 2. स्थापना लेश्या - जंबुवृक्षादि के द्वारा लेश्याओं के भावों का लेश्याओं के वर्ण26 :दृष्टान्त, चित्रपट्ट आदि स्थापना लेश्या है। अभिधान राजेन्द्र कोश आदि ग्रन्थों में कृष्णादि लेश्याओं के 3. द्रव्यलेश्या- आचार्यश्री एवं पं. सुखलालजी के अनुसार निम्नाङ्कित वर्ण के संबंध में निम्न विवेचन प्राप्त होता है। तीन मत है20 1. कृष्ण लेश्या - जलपूर्ण मेघ, महिष, द्रोण, खंजन, काक, (i) लेश्या-द्रव्य कर्मवर्गणा से बने हुए है। यह मत उत्तराध्ययन काजल, अरिठा, नेत्र की कीकी जैसी श्याम । की टीका में है। 2. नील लेश्या - नील अशोक, मयूरपिच्छ, नीलमणि (वैडूर्य), (ii) लेश्या दव्य बध्यमान कर्मप्रवाहसम हैं। यह मत भी चासपक्षी के पाँख जैसा निला। उत्तराध्ययन की टीका में वादिवेताल शांतिसूरि का है। (ii)लेश्या-योग परिणाम है अर्थात् शारीरिक, वाचिक और मानसिक 3. कापोत लेश्या - अलसी (धान्य विशेष) के फूल, कोफिल क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्रसूरि का है। या तेलकंटक वनस्पति, पारावत (कबूतर) की ग्रीवा की तरह डॉ. सागरमल जैनने द्रव्य लेश्या को व्यक्ति का आभा मण्डल कपोती वर्ण। कहा है। 4. तेजो लेश्या- हिंगुल, उदीयमान सूर्य, शुकतुण्ड (तोते की अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार द्रव्य लेश्या दो प्रकार चोंच) के समान लाल। की है - कर्म लेश्या और नोकर्म लेश्या। 5. पद्म लेश्या - टूटा हुआ हरताल, हल्दी, शण, असन के पुष्प क. कर्म लेश्या- लेश्या संबंधी कर्म के पुद्गल द्रव्य 'कर्म लेश्या' और स्वर्ण जैसा पीला। कहलाते हैं। 6. शुक्ल लेश्या - शंख, अंकमणि, कुन्द पुष्प, दूध, कपास/ ख. नोकर्म लेश्या- नोकर्म लेश्या दो प्रकार की होती है। (1) जीव तुल, चांदी, मुक्ताफल के समान श्वेत । सम्बन्धी और (2) अजीव सम्बन्धी। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में कृष्णादि लेश्याओं का वर्ण (1) जीवनोकर्म लेश्या- जीव की नोकर्म लेश्या उपयोगलक्षणा होती क्रमशः भौंरे, नीलम, कबूतर, स्वर्ण, कमल और शंख के समान है; वह भी दो प्रकार की है - भवसिद्धि अर्थात् भव्य जीव संबंधी और बताया है। अभवसिद्धि अर्थात् अभव्य जीव संबंधी। भव्य जीव संबंधी कृष्णादि लेश्या की गन्धःषड् लेश्या और जयसिंहसूरि के मत से सातवीं संयोगजा लेश्या है। (संयोगजा लेश्या शरीर की छायात्मिका मानी है।) अन्य आचार्य औदारिक, कृष्णादि छ: लेश्याओं में से प्रथम तीन अशुभ लेश्याओं की औदारिक-मिश्र इत्यादि सात काययोग की छायारुप सात प्रकार की गन्ध क्रमशः गाय के, कुत्ते के और सर्प के मृत कलेवर जैसी दुर्गंधवाली जीव नोकर्म द्रव्य लेश्या मानते हैं। होती है और शेष तेजोआदि तीन लेश्याओं की गन्ध सुगंधी पुष्प-सुगंधी (2) अजीव नोकर्म द्रव्य लेश्या - यह दस प्रकार की है चन्दनादि का चूर्ण - और गंधकषायादि सुगंधी वस्त्रों की गंध से भी 1. चन्द्र संबंधी 2. सूर्य संबंधी अधिक सुगंधयुक्त होती है।28 3. ग्रहसंबंधी 4. नक्षत्र संबंधी 17. पंचसंग्रह-1/142-43 (मंगल-बुधादिविमान संबंधी) 5. तारा संबंधी 19. तत्त्वार्थ राजवातिक-2/6 6. आभरण (अलंकार) संबंधी 19. अ.रा.पृ. 6/676 7. आच्छादन-सुवर्णचरितादि संबंधी 8. आदर्श-दर्पण संबंधी 20. अ.रा.पृ. 6/675, दर्शन और चिन्तन पृ. 2/297 21. जैन विद्या के आयाम-खण्ड-6 पृ. 384 9. मणि (मरकतमणि) आदि संबंधी 10. काकिणी 22. अ.रा.पृ. 6/676 (चक्रवर्ती का रत्न) संबंधी 23. अ.रा.पृ. 6/676-77 ये अजीव संबंधी होने के कारण इसे अजीव नोकर्म द्रव्य 24. अ.रा.पृ. 6/676-77, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/422 लेश्या कहते हैं। इन दस प्रकारों के अतिरिक्त भी रजत, रुप्य, ताम्रादि 25. अ.रा.पृ. 6/676-77 भेद से लेश्या अनेक प्रकार की है। तथा शरीरादि पर तैलादि अभ्यंग के 26. अ.रा.पृ. 6/682 से 684, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/422; उत्तराध्ययन-34/ 4-9 कारण या मनःशिल आदि के घर्षण से 'प्रयोगज नोकर्म द्रव्य लेश्या 27. गोम्मटसार, जीवकाण्ड-495 और इन्द्रधनुषादि में जीव के व्यापार के बिना प्रकट हुई द्रव्य लेश्या 28. अ.रा.पृ. 6/686 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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