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________________ [330]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परवञ्चन, कपट वचन, कुतीर्थिकों की प्रशंसायुक्त वचन आदि का अभिधान राजेन्द्र कोश में धर्मध्यान के (1) अपाय (2) सतत ध्यान रौद्र ध्यान का द्वितीय भेद हैं। उपाय (3) जीव (4) अजीव (5) विपाक (6) विराग (7) भव 3. परद्रव्यहरणप्रणिधानम् ।- परद्रव्यहरण के फलस्वरुप नरकगमनादि (8) संस्थान (9) आज्ञा और (10) हेतु-विचय (अपाय विचयादि) के बारे में नहीं सोचते हुए दूसरों के धन का हरण करने रुप निद्य, -ये दसभेद भी दर्शाये हैं, परन्तु इन दसों भेदों का उपरोक्त चारों एसे चौर्यकर्म (चोरी) के विषय में सतत चिन्तन रौद्र ध्यान का 'परद्रव्यहरण भेदों में अन्तर्भाव होने से उसका यहाँ अलग विवरण नहीं दिया प्रणिधान' नामक तृतीय भेद हैं। जा रहा है ।29 4. शब्दादिविषयसाधकद्रव्यसंरक्षणप्रणिधानम् - आकुलतापूर्वक धर्मध्यान से मनुष्य देवगति को प्राप्त करता है, तथा धर्मध्यान शब्दादि विषय के साधन या उसके साधक द्रव्य (धन) के संरक्षण मोक्ष का हेतु है ।। धर्मध्यान अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से अप्रमत्त और परिपालन का सतत चिन्तन रौद्र ध्यान का विषयसंरक्षण रुप संयत गुणस्थान तक होता है। इस अपेक्षा से भी जैनेन्द्र सिद्धान्त चतुर्थ भेद हैं। कोश में वर्णीजीने धर्मध्यान के चार भेद बताये हैं।12 तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति महाराजने इन चारों भेदों का शुक्लध्यान :नाम क्रमशः हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तैयानुबंधी और विषय संरक्षणानुबंधी ध्यान की यह सर्वोच्च निर्मल दशा है। जो चिन्तन आठ बताया है। प्रकार के कर्म-मल को दूर करता है और आत्मा को शुद्ध व पवित्र हिंसादि कार्यों में अतिलीन, महारम्भी, परव्यसन-प्रशंसक, बनाता है, वह शुक्लध्यान हैं।33 शुक्लध्यान सिद्धगति का हेतु है। निर्दय, पश्चाताप-रहित जीव रौद्रध्यानी होता है। अतिसंक्लिष्ट परिणाम अन्य ध्यानों के समान शुक्लध्यान के भी चार भेद किये गये हैं35, (लेश्या) युक्त होने के कारण रौद्रध्यान नरक गति का अमोघकारण यथा (1) पृथक्त्ववितर्क-सविचार - जब कोई ध्यान करनेवाला पूर्वधर धर्म ध्यान : हो, तब पूर्वगत श्रुत के आधार पर, और पूर्वधर न हो तब अपने ज्ञानदर्शन चारित्र और पैराग्य भावना का अभ्यस्त साधक में संभावित श्रुत के आधार पर किसी भी परमाणु आदि जड, या पृथ्वीकायादिसंघट्ट- रहित, प्राणातिपातादि आस्रव रहित, स्त्री-तिर्यंच- आत्मरुप चेतन- एसे एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, नपुंसकरहित योग्य स्थान में पूर्वाह्न या अपराह्न (रात्रि या दिन के अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायों का द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक आदि प्रथम और अंतिम प्रहर) में शुभ मन-वचन-काययुक्त, सामायिकादि विविध नयों के द्वारा भेद प्रधान चिन्तन करता है और यथा संभव आवश्यकक्रियासम्पादनपूर्वक प्रतिलेखनादि क्रियायुक्त, दशविधचक्र- श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एकद्रव्यरुप अर्थ से शब्द के विषय वालसमाचारीपालक साधक का दृढ मनोबलपूर्वक यथाशक्य कायोत्सर्ग, में और शब्द से अर्थ के विषय में चिन्तनार्थ प्रवृत्ति करता है तथा दण्डासन, वीरासन, आदि स्वस्थ शरीर पूर्वक सुखासन में सूत्र या मन आदि किसी भी एक योग को छोडकर अन्य योग का अवलंबन अर्थ के वाचनादि आलंबनपूर्वक धर्माधर्म के विवेकदायक श्रुतधर्म करता है - तब वह ध्यान पृथक्त्ववितर्क-सविचार कहलाता हैं। और हिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि चारित्र धर्म का गहराई से चिन्तन (2) एकत्ववितर्क-अविचार - जब कोई ध्यान करनेवाला अपने करना धर्मध्यान कहलाता है। धर्मध्यान-सूत्रार्थपर्यालोचन, दृढव्रतपालन, में संभावित श्रुत के आधार पर किसी भी एक ही पर्यायरुप अर्थ शीलगुणानुराग, सावधव्यापारत्यागादि बाह्य धर्मध्यान, और तज्जनित को लेकर उस के विषय में एकत्व (अभेद) प्रधान चिन्तन करता आत्मसंवेदना अभ्यन्तर धर्मध्यान हैं।24 अन्य प्रकार से धर्मध्यान के चार प्रकार हैं 21. तत्त्वार्थसूत्र 9/36 पर तत्त्वार्थभाष्य (1) आज्ञाविचय - पञ्चास्तिकाय, षड्जीवनिकाय, अष्ट प्रवचनमाता 22. अ.रा.पृ. 4/16633; 6/569 23. अ.रा.पृ. 4/1661 से 1665, 2716 आदि का जिनप्रवचन में क्या स्वरुप है, वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों की 24. अ.रा.पृ. 4/2716; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/476 आज्ञा क्या है, कैसी होनी चाहिए, इसका परीक्षापूर्वक निर्णय करना 25. अ.रा.पृ. 1/144, 4/2716; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/479 और उसका चिन्तन करना 'आज्ञाविचय' धर्मध्यान हैं। यदि साधक 26. अ.रा.पृ. 1/804, 805 एवं 4/1666, 2716: मूलाचार-400; जैनेन्द्र सिद्धान्त अल्पबुद्धि हो तो भी 'सर्वज्ञ के सिद्धान्त ही सत्य हैं' -एसा चिन्तन कोश, पृ. 2/479 27. अ.रा.पृ. 4/1666, 2716 एवं 6/1234; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/ आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता हैं।25 480 (2) अपायविचय - राग-द्वेष-कषाय-आस्रवादि में प्रवर्तमान इस अ.रा.पृ. 4/1666-67, 2716 एवं 7/128; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/ लोक-परलोक संबंधी विचार और मन-वचन-काय के दुष्ट योगों का 480 स्वरुप एवं इन राग-द्वेषादि समस्त दोषों से कैसे छुटकारा हो, इसका 29. अ.रा.पृ. 4/2716;जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/479, 480 अ.रा.पृ. 4/1632-2716; ज्ञानर्णव-3/32; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 21 सतत चिन्तन 'अपायविचय धर्मध्यान' कहलाता हैं।26 484 (3) विपाकविचय- ज्ञानावरणादि आठों कर्मो के शुभाशुभ विपाक 31. तत्त्वार्थ सूत्र-9/29 (फल) का मूल और उत्तर प्रकृति सहित प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और 32. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/481 33. अ.रा.पृ. 4/1661, 7/922-23; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/37 रस के भेद पूर्वक चिन्तन करना 'विपाकविचय धर्मध्यान' हैं।27 अ.रा.पू. 4/1663,1672; ध्यान शतक-96; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4 (4) संस्थानवचिय - सर्वज्ञदर्शित लोक-द्वीप-समुद्रादि के स्वरुप 37 का विचारपूर्वक चिन्तन करना 'संस्थानविचय' धर्म ध्यान हैं ।28 35. अ.रा.पृ. 7/722; तत्त्वार्थ भाष्य-9/46; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/32 36. अ.रा.पृ. 5/1066, 7/922; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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