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________________ [98]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. सांस्कृतिक शब्दावली सांस्कृतिक शब्दावली से अभिप्राय यह है कि वे शब्द जो मानव की जीवनपद्धति से जुडे हए हों, वे चाहे परम्परागत संस्कारों की सूचना देते हों अथवा आजीविकार्जन, जाति-व्यवस्था, वर्णव्यवस्था, उपासनापद्धति या मनोरंजन से सम्बद्ध हों । इस शीर्षक के अन्तर्गत अभिधान राजेन्द्र कोश में आये हुए ऐसे ही कुछ शब्दों का परिचय दिया जा रहा हैं। अइहिपूआ - अतिथिपूजा (पुं.) 1/33 सतत प्रवृत्ति के कारण जिनके आने की तिथि निश्चित नहीं है ऐसे तिथि पर्व आदि लौकिक व्यवहार के त्यागी, भोजन समय उपस्थित महात्मा/भिक्षु विशेष को 'अतिथि' कहते हैं। उनका आहारादि दान के द्वारा सत्कार (भक्ति) करना 'अतिथिपूजा' हैं। 'अतिथिपूजा' को भारतीय संस्कृति में देवपूजावत् माना गया है। यह लोकोपचार विनय का भेद हैं। अट्टणसाला - अट्टनशाला (स्त्री.) 1/238 व्यायामशाला को 'अट्टनशाला' कहते हैं, जहाँ लोग व्यायाम, योगासन, मल्लयुद्धादि करते हैं। अणाहसाला - अनाथशाला (स्त्री.) 1/329 आरोग्यशाला को 'अणाहशाला' कहते हैं। अपारंगम - अपारङ्गम (त्रि.) 1/606 अनन्तसंसारवासी, सर्वज्ञों के उपदेश से रहित स्वरु चिविरचित, शास्त्रवृत्तियुक्त कुतीर्थिकों को अपारङ्गम कहते हैं। आगंतार - आगन्तार (पुं.) 2/60 आगमणगिह - आगमनगृह (न.) 2/90 पथिकादि को रहने की धर्मशाला को 'आगंतार' या 'आगमनगृह' कहते हैं। आगारिय - आगारिक (न.) 2/106 गृहस्थ को 'आगरिक' कहते हैं। आधायकिच्च - आघातकृत्य (न.) 2/113 अग्निसंस्कार, जलाञ्जलिप्रदान, पितृपिण्ड आदि मरणकृत्य को 'आघातकृत्य' कहते हैं। आजीविया - आजीविका (स्त्री.) 2/117 जीविका, वृत्ति, जीवनयापन हेतु व्यापार को 'आजीविका' कहते हैं। उसके सात प्रकार हैं (1) वणिकों के लिए व्यापार (2) वैद्यादि को विद्या (3) किसानों को कृषि (4) गोपालकों के लिए पशुपालन (5) चित्रकार आदि के लिए शिल्प (6) सेवकों के लिए सेवा (7) भिक्षाचरों (द्रमक) के लिए भिक्षा आणय - आनय (पुं.) 2/130 वेदादि अध्ययन हेतु देशान्तरगमन और उपनयन संस्कार को 'आनय' कहते हैं। आपण - आपण (पुं.) 2/271 क्रय-विक्रय बाजार, दुकानको 'आपण' कहते हैं। आपणवीहि - आपणवीथि (स्त्री.) 2/271 'बाजार' को 'आपणवीथि' कहते हैं। आभीर - आभीर (पुं.) 2/313 . अहीर नामक शुद्र जाति और आभीर देशवासी लोगों को 'आभीर' कहते हैं। आय - आय (पुं.) 2/320 ज्ञानादि की प्राप्ति, द्रव्यादि का लाभ, धन का आगम, द्रव्यादि निमित्त आठों प्रकार के कर्मरुप आस्रव की प्राप्ति को 'आय' कहते आम समाज को और साधुओं को हितशिक्षा देते हुए यहाँ आचार्यश्रीने कहा है कि, आय को देखकर ही खर्च करना चाहिए। लक्ष्मी का लाभ के अनुसार ही दान, भोग, परिवार और अतिथि आदि में व्यय करना चाहिए। 'आय' का चार भाग करके एक-एक भाग क्रमश: बचत, व्यापार, धर्म एवं परिवार पोषण में रखना चाहिए। पंचाशक सूत्र में आधी कमाई धर्म में वापरने का भी कथन हैं। आयतण - आयतन (न.) 2/326 वन, स्थान, धार्मिक लोगों का मिलन स्थान, आश्रय, देव मंदिर, मंदिर के पास की धर्मशाला, ज्ञानादि रत्नत्रयधारक साधु आदि, यथाविध अर्थकथन रुप निर्णय, विश्राम स्थान, यज्ञ स्थान, बन्ध हेतु, आविष्कार, चोरपल्ली, दस्युओं का अड्डा आदि के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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