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________________ [52]... द्वितीय परिच्छेद वस्तुकोश तथा अन्य कन्नड कोश: कन्नड कवियों ने कन्नड और संस्कृत शब्दों के परिचायक अनेक शब्दकोशों की रचना की। इन शब्दकोशों में नामवर्म द्वितीय का 'वस्तुकोश' और अभिधान रत्नमाला ( 1145 ई. स.) तथा देवोत्तम का नानार्थरत्नाकर (ई.स. 1600), और श्रृंगार कवि के कर्णाटक सजीवन (ई.स. 1600 ) का उल्लेख है। इसमें अभिधान वस्तुकोश की रचना वररुचि, हलायुध आदि कृतियों का आधार लेकर हुई है। इनमें तीन भाग हैं - अर्थकाण्ड, नानार्थकाण्ड और सामान्यकाण्ड । इसमें प्राचीन कन्नड कवियों द्वारा प्रयुक्त संस्कृत पदों का कन्नड में अर्थ दिया गया हैं । 38 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि का परिचय प्रथम परिच्छेद में विस्तार से दिया जा चुका है। अब तक के कोश साहित्य में विश्वकोश की शैली में अभिधान राजेन्द्र कोश प्रथम स्थान पर है और जैन कोशग्रंथो में भी विश्वकोश के आकार का यह प्रथम कोश है । इसके अतिरिक्त आपने इसी का संक्षिप्त रुप किंतु अभी तक के कोशों में सबसे विस्तृत 'पाइयसद्दंबुहि' नामक प्राकृतकोश की रचना की थी परंतु इसकी प्रति संप्रति उपलब्ध नहीं है। अभिधान राजेन्द्र कोश का परिचय इसी परिच्छेद में आगे दिया जा रहा है। नागोरी तपोगच्छीय श्री पद्मसुंदर ने वि.सं. 1619 में 'सुंदरप्रकाश 'शब्दनिर्णय' की रचना की। इसके अलावा भी नामकोश, शब्द चन्द्रिका, महेश्वरकृत शब्दभेदनाममाला, नामसंग्रह, सुधाकलशकृत अव्ययैकाक्षर नाममाला, शब्दसंदोहसंग्रह, शब्दरत्नप्रदीप, पञ्चवर्गसंग्रह नाममाला, एकाक्षरी - नानार्थ कोश, एकाक्षर कोश, एकाक्षर नाममालिका, पाइयसद्दमण्णव, अर्धमागधी डिक्शनरी, जैनागम कोश, अल्पपरिचित सैद्धांतिक कोश, जैनेन्द्रसिद्धांत कोश- इत्यादि अनेक कोशग्रंथ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। 39 38. शाश्वत धर्म फरवरी 1990 पृ. 32 39. वही 40. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ विश्लेषण पृ. 33, 34 - डो. रुद्रदेव त्रिपाठी Jain Education International 'न कार्या निन्दा स्वार्थविधातिका' दत्तेऽसौ सर्वसौख्यानि, त्रिशुद्धयाराधितो यतिः । विराधितश्च तैरश्च्य नरकानल्पयातनाः ॥1 ॥ चारित्रिणो महासत्त्वा, व्रतिनः सन्तु दूरतः । निष्क्रियोऽप्यगुणज्ञोऽपि न विराध्यो मुनिः क्वचित् ॥2॥ , याद्दशं ताद्दशं चापि, द्दष्वा वेषधरं मुनिम् । गृही गौतमवद्भक्त्या, पूजयेत्पुण्यकाम्यया ॥3॥ वंदनीयो मुनिर्वेषो, न शरीरं हि कस्यचित् । व्रतिवेषं ततो द्दष्वा, पूजयेत्सुकृती जनः ॥4॥ पूजितो निष्क्रियोऽपि स्या-ल्लज्जया व्रतधारकः । अवज्ञातः सक्रियोऽपि, व्रतेस्याच्छिथिलादरः ॥5॥ दानं दया क्षमा शक्तिः, सर्वमेवाल्पसिद्धिकृत् । तेषां ये व्रतिनं द्दष्वा, न नमस्यन्ति मानवाः ||6|| आराधनीयास्तदमी, त्रिशुद्धया जैनलिङ्गिनः । न कार्या सर्वथा तेषां निन्दा स्वार्थविघातिका ॥7॥ " - अ. रा. पृ. 7/333 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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