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[182]... चतुर्थ परिच्छेद
किया गया है कि कैसे स्निग्ध (स्नेह गुणवान् ) और रुक्ष (खर गुणवान् ) पदार्थों में बन्ध होता हैं। यह बन्ध परमाणु स्तर पर अथवा द्वयणुकादि स्तर पर भी हो सकता है" ।
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन यदि निश्चय से (वास्तविक रुप में) परमाणु और जीव में बन्ध माना जाये तो (तब तो जीव और पुद्गल की जिस संयोगी पर्याय से विचार आरम्भ करें वही असम्भव होगी) मृत्यु असंभव हो जाये और शिशु की वृद्धि न हो, गर्भाधानादि ही न हो। किन्तु यह बन्ध अवास्तविक होता है इसलिए मृत्यु आदि सम्भव होते हैं।
यहाँ पर यह प्रश्न भी हो सकता है कि जीव और पुद्गल ये दो विरोधी द्रव्य हैं, जीव में स्नेहादि गुण नहीं और पुद्गल में ये गुण हैं, तब दो विरोधी द्रव्यों में बन्ध कैसे संभव है और संभव हो भी गया तो एक द्रव्य विजातीय द्रव्य पर प्रभाव क्यों डालता है ?
पूर्व में यह स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है और यहाँ बन्ध का सिद्धान्त स्वीकार किया जा रहा है, फिर तो यह विपरीत कथन प्रतिभासित होता है क्योंकि लोक में भी स्वतंत्र को बद्ध नहीं कहा जाता और बद्ध को स्वतंत्र नहीं कहा जाता । यदि एसा संशय हो तो उसे अनेकान्त दृष्टि से दूर कर लेना चाहिए। बन्ध होना भी व्यवहार नय का कथन है। निश्चय से तो एक द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य को स्पर्श भी नहीं कर पाता। एक परमाणु दूसरे परमाणु को कभी स्पर्श नहीं कर पाता। लौह जैसे घनपिण्ड में भी एक परमाणु दूसरे परमाणु को स्पर्श नहीं करता और प्रत्येक परमाणु एक दूसरे से निश्चित दूरी बनाये रखते हैं। उससे अधिक समीप हो जाने की उनकी सामर्थ्य नहीं होती। जैसे ऋण चुम्बक और ऋण चुम्बक (दो ऋणचुम्बकों) को समीप ले जाने पर एक दूरी के बाद वे पास नहीं जा सकते।
इतना ही नहीं, हम किसी घन लौहपिण्ड को हाथ से छूते हैं तब भी एक परमाणु दूसरे परमाणु को स्पर्श नहीं कर पाता किन्तु निश्चित दूरी से ही हम उसके गुण को समझते है। इसी प्रकार उसी पिण्ड को हाथ से पकड कर उठाते समय भी किसी परमाणु को छुए बिना ही पकड़ते हैं और उठाते हैं। यह सब परमाणु की निजशक्ति से सम्भव होता है।
आत्मा और शरीर, आत्मा और कर्म (कार्मण शरीर) के बन्ध के विषय में भी एसा ही है। शरीर का कोई परमाणु आत्मप्रदेश को नहीं छूता और कार्मण शरीर का परमाणु भी आत्मप्रदेश को नहीं छूता । इसका कारण यह है कि आत्मा तो निराकार है 17 जबकि स्पर्श तो परमाणु का धर्म है18 |
जब आत्मा निराकार है, उसमें स्पर्श नहीं है; उसमें स्निग्धतारुक्षता नहीं है तब शरीर परमाणु आत्मा के साथ कैसे बंध रहते हैं अर्थात् आत्मा स्वतंत्र होने से वह शरीर के बाहर क्यों नहीं आताजाता ? इसका उत्तर यह है कि शरीर परमाणुओं का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होता किन्तु एकक्षेत्रावगाह अवस्थान होता है। इसी प्रकार कर्म परमाणुओं का भी आत्म प्रदेशों से समानक्षेत्रावगाह होता है। समानक्षेत्रावगाह होकर भी शरीर की गति होने पर आत्मप्रदेश भी और कार्मण शरीर भी समान गति करते रहते हैं। यही बन्ध कहा जाता है। किन्तु कर्मबन्ध के विषय में यह विशेष है कि जीवन उन कर्मों के विपाक के कारण होनेवाले फल का भोग भी करता है । भोग के बाद वे कर्म उस प्रचय से विच्छिन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार आत्मप्रदेशों के कम्पन से नये कर्म परमाणु कार्मण शरीर में जुड़ते जाते हैं।
किन्तु वस्तुतः तो कोई परमाणु आत्मप्रदेशों को स्पर्श नहीं करता। इसीलिए सांख्य दर्शन में यह कहा गया है कि पुरुष न तो बद्ध होता है और न मुक्त, किन्तु प्रकृति ही बद्ध होती है और प्रकृति ही मुक्त होती है" । प्रकृति ही कर्म की कर्ता है और वह फल की भोक्ता भी है 20 |
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पहले हम यह स्पष्ट करलें कि यह तो निश्चित है कि जीव पदार्थ शरीररूप जड से बद्ध है (अन्यथा शरीर गति करे तब आत्मा पीछे छूट जाये) । जो बंधता है वह छूटता है (यदि एसा न हो तो मृत्यु असंभव हो जाये) । अव केवल यह पक्ष बचता है कि दो विजातीय पदार्थ कैसे बंधते सकते हैं? इसका उत्तर यह हो सकता है कि बंधे तो हैं न ? भले ही वे कैसे ही बंधे हों। जब बंधे
तो किसी शक्ति के कारण ही बंधे है। पुद्गल परमाणुओं में आत्मप्रदेशों से बंधने की शक्ति होने से ही वे बंधते हैं 21 (समानक्षेत्रावगाह करते हुए 'कर्म' संज्ञा पाते हैं) । यह पूरा का पूरा सिद्धान्त कर्मवाद के नाम से जाना जाता है।
5. कर्मवादः -
जैन सिद्धान्त में कर्मसिद्धान्त पर विशद चर्चा की गयी है । यद्यपि पातञ्जल योग दर्शन में भी इसी प्रकार के सिद्धान्त पर आश्रित चर्चा है 22 किन्तु वह सूक्ष्म विवेचन नहीं करती। बौद्ध दर्शन में अनादिवासना - संस्कार नाम से यही सिद्धान्त दृष्टिगोचर होता है। सर्वत्र बन्ध की स्वकृति होने से यह तो स्वीकृत हो ही जाता है कि यह बन्ध की प्रक्रिया दो पदार्थों में होती है, उनमें एक है आत्मा और दूसरा है कर्म । आत्मा चेतन है और कर्म जड है। इसी से जैन सिद्धान्त में 'कर्म' पदार्थ को द्रव्यपक्ष में पुद्गल माना गया है जिसे कार्मणवर्गणा (का परिवर्तित रुप) कहते हैं और क्रियासापेक्ष है आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन । इस प्रकार आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन के निमित्त से कार्मणवर्गणा परिस्पन्द्यमान आत्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह अवस्थान करता हुआ विपाक की योग्यता युक्त हो जाता है उसे कर्म कहते 23 । यहाँ पर जीव के भाव तो निमित्त होते हैं और कार्मणवर्गणा पुद्गल की कर्मरुप पर्याय नैमित्तिक । किन्तु इससे न तो जीव पुद्गल के रुप में बदलता है न पुद्गल जीव के रुप में 24 । 16. द्वयधिकादिगुणानां तु । तत्त्वार्थसूत्र 5/36 - 17. नित्यावस्थितान्यरुपाणि । - तत्त्वार्थसूत्र 5/4 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्रला: -वही 5/23
18.
19
तस्मान्न बद्धयतेऽ श्रद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः । सांख्यकारिका 62
20. वही
21. अ. रा.पू. 5/1165
22. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरममृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः । पातञ्जल योगदर्शन
1/24
क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । पातञ्जल योगदर्शन 2/12 अ.रा.पृ. 3/245, ; तत्त्वार्थ सूत्र - 8/25
23.
24. क. जीव परिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमन्ति ।
पुग्गलकम्मनिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ।
ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अणोरणणिमित्तं तु कत्ता आदा सएण भावेण ।
ख. अ.रा. 3/245, 250, 'कम्म' शब्द पर
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