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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [183] फिर कर्म और आत्मा के संयोग का स्वरुप क्या है, और ज्ञान से वंचित हो ही जाता है। यही कहलाता है "जैसी करनी उसके परिपाक की क्या सीमा है? इत्यादि प्रश्न हमारे सामने हैं। तैसी भरनी।" वे विचार और क्रिया न केवल आत्मा पर ही प्रभाव वर्तमान में आत्मा की स्थिति अर्धभौतिक जैसी हो रही है। (जैसे डालते हैं किन्तु आसपास के वातावरण पर भी अपना तीव्र, मन्द अग्नितप्त लौह का गोला अपने प्रत्येक कण में अग्नि से युक्त हो)। और मध्यम प्रभाव छोडते हैं । शरीर, मस्तिष्क और हृदय पर तो उसका उसका ज्ञान विकास, क्रोधादिविकार, इच्छा और संकल्प आदि सभी, प्रभाव निराला ही होता है। इस तरह प्रतिक्षणवर्ती विचार और क्रियाएँ बहुत कुछ शरीर, मस्तिष्क और हृदय की गति पर निर्भर करते हैं। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्म के परिपाक से उत्पन्न हुई हैं पर उनके उत्पन्न मस्तिष्क का एक केन्द्र निष्क्रिय होते ही सारी स्मरण-शक्ति समाप्त होते ही जो आत्मा की नयी आसक्ति, अनासक्ति, राग, द्वेष और तृष्णा हो जाती है और मनुष्य पागल और बेभान हो जाता है। शरीर के आदि रुप परिणति होती है ठीक उसी के अनुसार नये-नये संस्कार प्रकृतिस्थ रहने से ही आत्मा के गुणों का विकास और उनका अपनी और उसके प्रतिनिधि पुद्गल सम्बद्ध होते जाते हैं और पुराने झडते उपयुक्त अवस्था में संचालित रहना बनता है। बिना इन्द्रिय आदि जाते है। इस तरह यह कर्मबन्धन का सिलसिला तब तक बराबर उपकरणों के आत्मा की ज्ञानशक्ति प्रकट ही नहीं हो पाती । स्मरण, चालु रहता है जब तक आत्मा सभी पुरानी वासनाओं से शून्य होकर प्रत्यभिज्ञान, विचार, कला, सौन्दर्याभिव्यक्ति और संगीत आदि सम्बन्धी पूर्ण वीतराग या सिद्ध नहीं हो जाता। प्रतिभाओं का विकास भीतरों और बाहरी दोनों उपकरणों की अपेक्षा कर्मविपाक26:रखता है। विचारणीय बात यह है कि कर्मपुद्गलों का विपाक कैसे आत्मा के साथ अनादिकाल के कर्मपुद्गल (कार्मण शरीर) होता है? क्या कर्मपुद्गल स्वयमेव किसी सामग्री को जुटा लेते का सम्बन्ध है, जिसके कारण वह अपने पूर्ण चैतन्य रुप में प्रकाशमान हैं और अपने आप फल दे देते हैं या इसमें कुछ पुरुषार्थ की भी नहीं हो पाता। यह शंका स्वाभाविक है कि 'चेतन पर अचेतन अपेक्षा है ? अपने विचार, वचन व्यवहार और क्रियाएँ अन्ततः संस्कार द्रव्य क्यों प्रभाव डालता है?' इसका उत्तर इस छोर से नहीं दिया तो आत्मा में ही उत्पन्न करती हैं और उन संस्कारों को प्रबोध देनेवाले जा सकता, किन्तु दूसरे छोर से दिया जा सकता है - आत्मा अपने पुद्गल द्रव्य कार्मण शरीर से बँधते हैं। ये पुद्गल शरीर के बाहर पुरुषार्थ और साधनाओं से क्रमश: वासनाओं और वासना से उद्बोधक से भी खिंचते हैं और शरीर के भीतर से भी। उम्मीदवार कर्मयोग्य कर्मपुद्गलों से मुक्ति पा जाता है और एक बार शुद्ध (मुक्त) होने पुद्गलों में से कर्म बन जाते हैं। कर्म के लिए एकविशेष प्रकार के बाद उसको पुनः कर्मबन्धन नहीं होता, अतः हम समझते के सूक्ष्म और प्रभावी पुद्गल द्रव्यों की अपेक्षा होती है। मन, वचन हैं कि दोनों पृथक् द्रव्य हैं। एक बार इस कार्मणशरीर से संयुक्त और काया की प्रत्येक क्रिया, जिसे योग कहते हैं, परमाणुओं में हलनआत्मा का चक्र चला तो फिर कार्य-कारण व्यवस्था जमती जाती है। आत्मा एक संकोच-विकासशील (सिकुडन और फैलनेवाला) चलन उत्पन्न करती है और उसके योग्य परमाणुओं को भीतर से बाहर द्रव्य है जो अपने संस्कारों के परिपाकानुसार छोटे-बडे स्थूल शरीर खींच लेती जाती है। यों तो शरीर स्वयं एक महान् पुद्गल पिंड के आकार हो जाता है। देहात्मवाद (जडवाद) की बजाय देहप्रमाण है। इसमें असंख्य परमाणु श्वासोच्छ्वास तथा अन्य प्रकार से शरीर आत्मा मानने से सब समस्याएं हल हो जाती है। में आते-जाते रहते है। इन्ही में से छटकर कर्म बनते जाते हैं। आत्मा देहप्रमाण भी अपने कर्मसंस्कार के कारण ही होता जब कर्म के परिपाक का समय आता है, जिसे उदयकाल है। कर्मसंस्कार छूट जाने के बाद उसके प्रसार का कोई कारण नहीं कहते हैं, तब उसके उदयकाल में जैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रह जाता; अत: यह अपने अंतिम शरीर के आकार का बना रहता की सामग्री उपस्थित होती है वैसा उसका तीव्र, मध्यम और मन्द है, न सिकुडता है और न फैलता है। एसे संकोच विकासशील फल होता है। नरक और स्वर्ग में औसतन असाता और साता की शरीर प्रमाण रहनेवाले, अनादिकार्मणशरीर से संयुक्त, अर्धभौतिक आत्मा सामग्री निश्चित है। अत: वहाँ क्रमशः असाता और साता का उदय की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक विचार और वचनव्यवहार अपना एक संस्कार अपना फलोदय करता है और साता और असाता प्रदेशोदय के रुप तो आत्मा और उसके अनादिसाथी कार्मण शरीर पर डालते हैं। संस्कार में अर्थात् फल देनेवाली सामग्री की उपस्थिति न होने से बिना फल तो आत्मा पर पड़ता है, पर उस संस्कार का प्रतिनिधि द्रव्य उस दिये ही झड जाते है। जीव में साता और असाता दोनों बँधी हैं, कार्मण शरीर से बँध जाता है जिसके परिपाकानुसार आत्मा में वही किन्तु किसीने अपने पुरुषार्थ से साता की प्रचुर सामग्री उपस्थित भाव और विचार जाग्रत होते हैं और उसी का असर बाह्यसामग्री की है तथा अपने चित्त को सुसमाहित किया है तो उसको आने पर भी पडता है, जो हित और अहित में साधक बन जाती है। वाला असाता का उदय फल विपाकी न होकर प्रदेशविपाकी ही होगा। जैसे कोई छात्र किसी दूसरे छात्र की पुस्तक चुराता है या उसकी स्वर्ग में असाता के उदय की बाह्य सामग्री न होने से असाता का लालटेन इस अभिप्राय से नष्ट करता है कि 'वह पढने न पावे' प्रदेशोदय या उसका साता रुप में परिणमन होना माना जाता है। तो वह इस ज्ञान विरोधक क्रिया और विचार से अपनी आत्मा में इसी तरह नरक में केवल असाता की सामग्री होने से वहाँ साता एक प्रकार का विशिष्ट कुसंस्कार डालता है। उसी समय इस संस्कार का या तो प्रदेशोदय ही होगा या उसका असाता रुप से परिणमन का मूर्तरुप, पुद्गल द्रव्य आत्मा के चिरसंगी कार्मणशरीर से बँध हो जायेगा। जाता है। जब उस संस्कार का परिपाक होता है तो उसे बँधे हुए जगत् के समस्त पदार्थ अपने-अपने उपादान और निमित्त कर्मद्रव्य के उदय से आत्मा स्वयं उस हीन और अज्ञान अवस्था के सुनिश्चित कार्यकारणभाव के अनुसार उत्पन्न होते हैं और सामग्री में पहुँच जाता है जिससे उसका झुकाव ज्ञानविकास की ओर नहीं हो पाता । वह लाख प्रयत्न करे, पर अपने उस कुसंस्कार के फलस्वरुप 25. अ.रा.पृ. 7/821 26. अ.रा.पृ. 3/342 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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