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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [181] पदार्थो की संयोगावस्था। जैन सिद्धांत में दो शब्दों का प्रयोग होता रुप में लिया जा सकता है। हम हल्दी को पीला देखते हैं और है: 'स्वभाव-परिणाम' और 'विभाव-परिणाम' विभावपरिणाम स्वतंत्र चूना को सफेद । किन्तु जैसे ही दोनों को मिलाया जाता है वैसे द्रव्य के नहीं होते । यद्यपि प्रत्येक 'सत्' अपने आप में पूर्ण एवं ही वर्णान्तर (रक्तवर्ण) दृष्टिगोचर होता है। यहाँ पर भी पीत और स्वतंत्र है परन्तु यहाँ स्वतंत्र कहने का आशय यह है कि जिन की श्वेत वर्ण तिरोभूत हुए हैं और रक्त वर्ण उद्भूत हुआ है। यह उदाहरण पौद्गलिक संयोगी अवस्थाएँ नहीं होतीं वे विभाव रुप परिणत होते किसी को पूरी कल्पना लग सकता है। किन्तु हम पूछ सकते हैं नहीं देखे जाते । उदाहरण के लिए आकाश और पुद्गल की संयोगी अवस्थाएँ नहीं होती (जबकि पुद्गल को अवगाह देने का कार्य आकाश कि जब हम हल्दी का पीतवर्ण देखते हैं तो हल्दी से परावर्तित ही करता है)। इसी प्रकार काल और पुद्गल की भी संयोग होकर होकर हमारी आँख के पर्दे (रेटिना) पर पड़ता है, और हमारी आँख कोई अवस्था नहीं बनती जबकि पुद्गल भी काल सापेक्ष ही वर्तन भी उसे विविक्त रुप से पहचानने में समर्थ हो तभी हम देख सकते करता है। हैं। इसी प्रकार चूने के विषय में भी समझना चाहिए। किन्तु जब जैन सिद्धांत में जड वर्ग में पुद्गल, आकाश और काल हम हल्दी और चूना की संयोगी अवस्था को देखते हैं तब वही के अतिरिक्त दो और तत्त्व स्वीकृत हैं : धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य। रक्त वर्ण का क्यों प्रतीत होते है ? उत्तर स्पष्ट है कि जैसे ही ये किन्तु चारित्र के सैद्धांतिक पक्ष के विवेचन में इनका परिचय देना दोनों मिल जाते हैं वैसे ही उस संयोगी पर्याय में रक्त प्रकाश को आवश्यक नहीं है। क्योंकि चारित्र का परिणाम मोक्ष है और उसके परावर्तित करने की सामर्थ्य उद्भूत हो जाती है और तब रक्तवर्ण भौतिक पक्ष में चेतन पदार्थ का पुद्गल संयोग से सदा के लिए प्रकाश हमारी आँखे से प्रतीत होने लगता है। अभिप्राय यह है की (आत्यान्तिक) पृथग्भाव ध्वनित होता है इसलिए यहाँ केवल पुद्गल । सूक्ष्म परमाणुओं का व्यवस्थापन जिस प्रकार का होगा वैसा ही वर्ण और चेतन, इन दो पदार्थों की स्वतंत्रता, और संयोगावस्था की नश्वरता हमें प्रतिभात होगा। हम यह भी कह सकते हैं कि परमाणु का अपना मात्र विचारणीय है। कोई वर्ण नहीं, किन्तु संयोग अवस्था में उनके व्यवस्थापन के अनुसार 3. स्वतंत्रता का सिद्धांत: प्रकाश परावर्तन होता है और हमें पदार्थ का वर्ण दिखाई देता है। प्रत्येक चेतन (आत्मा) अपने आप में पूर्ण हैं और नितान्त अर्थात् तत्तत् प्रकाश परावर्तन की उद्धृत पुद्गलशक्ति को ही उसका रुप से स्वतंत्र है। चेतन पदार्थ का चेतन पदार्थ से कभी संयोग वर्ण कहा जा सकता है। कांचशकल यदि स्थालीवत् हो तो प्रकाश नहीं होता जबकि चेतन का पुद्गल से संयोग होता है। इसी तरह उस में से पार हो जाता है किन्तु यदि वही प्रिज्म के रुप में ढाल पुद्गल परमाणु यद्यपि अपने आप में पर्ण हैं किन्तु उनका अपनी दिया जाये तो हमें सप्तवर्णी प्रकाश दिखाई देने लगता है। योग्यतानुसार दूसरे परमाणुओं से संयोग होता है जिससे स्कन्ध बनता इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक द्रव्य है। किन्तु अन्य द्रव्य किसी अन्य द्रव्य में कोई परिवर्तन नहीं करा स्वतंत्र है और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को परिवर्तित नहीं कर सकता। सकता; कोई अचेतन, चेतन पदार्थ को जड नहीं बना सकता और 4. बन्ध का सिद्धांत:इसका उल्टा भी नहीं हो सकता। 'मोक्ष' चारित्र का परिणाम है।, एसा स्वीकार करने पर यदि कोई प्रश्न करे कि ओक्सिजन और हाइड्रोजन मिलकर मोक्ष का विपरीत 'बन्ध' भी अधिकरण के रुप में स्वीकृत हो जाता जल बन जाता है तो एक द्रव्य को परिवर्तित करने में दूसरा द्रव्य है। सांख्य शास्त्र में 'बन्ध' को संयोग नाम से भी जाना जाता है। कारण कैसे नहीं हुआ? इसका उत्तर यह है कि यहाँ 'जल' उनकी जैन सिद्धान्त में स्वीकृत षड् द्रव्यों में से केवल पुद्गल और जीव संयोगी पर्याय है किन्तु आक्सीजन ने हाइड्रोजन को जल में नहीं में बंध हो सकता है।3; अन्य द्रव्यों में बंध योग्यता नहीं है। बदला है अन्यथा जल में केवल हाइड्रोजन ही होता। दूसरे यह भी तत्त्वार्थश्रद्धान प्रकरण में बंध तत्त्व से जीव और कार्मण कि 'ओक्सिजन' हाइड्रोजन को बदल कर ओक्सीजन नहीं बना लेता वर्गणा (पुद्गल) का अभिप्राय अभीष्ट है। जबकि यहाँ उभय प्रकार अन्यथा जल में केवल ओक्सीजन तत्त्व ही होता। का बन्ध अभीष्ट है। तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध का मौलिक आधार स्निग्ध यहाँ यह प्रश्न भी होता है कि यदि द्रव्यान्तर में परिवर्तन और रुक्ष गुण बताये गये हैं। । बन्ध की पूरी प्रक्रिया में यही स्पष्ट नहीं होता हो तब तो स्नान आदि के लिए ऑक्सिजन आदि का 9. अ.रा.पृ. 5/592-93 उपयोग होना चाहिए, किन्तु देखा जाता है कि संयोगी अवस्था 10. क. अ.रा. 5/504-507, पृ. 6/880 जल का उपयोग तो स्नान में होता है किन्तु स्वतंत्र ओक्सीजन/ ख. अण्णदविएण अण्णदव्वस्स णो कीरदे गुणुप्पादो। तम्हा दु सव्वदव्वा हाईड्रोजन का उपयोग स्रान के लिए नहीं होता। इसका उत्तर यह उप्पज्जन्ते सहावेण । समयसार 372 11. अ.रा.प्र.3/1126 है कि द्रव्य विशेषों के संयोग से गुणविशेष उद्भूत होते हैं (नवीन 12. क. सांख्यकारिका 21, 44 उत्पन्न नहीं होते) और गुणविशेष तिरोहित होते हैं (उच्छेद नहीं ख. स्वस्वामिशक्त्यों स्वरुपोपलब्धिहेतुः संयोगः।। -पातञ्जल योगदर्शन होता)। जैसे द्रवता-शीतता युक्त जल का अग्नि से संयोग होने 2/23 13. अ.रा. 5/1165 पर द्रवता-शीतता तिरोभूत हो जाते हैं (नष्ट नहीं होते) और वायव्यता 14. अ.रा.पृ. 5/1164; सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । उष्णता उद्भूत हो जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र 8/2 यहाँ पर हल्दी और चूना के संयोग को भी उदाहरण के 15. स्निग्ध रुक्षत्वात्बन्धः । न जघन्यगुणानाम् । गुणसाम्ये सदृशानां । -तत्त्वार्थसूत्र 5/33-35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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