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________________ [180]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. चारित्र का सैद्धांतिक पक्ष 'चारित्र' को बिन्दु बनाने से कथ्य की सीमा सांसारिक जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति से भिन्न अर्थात् निवृत्त्युन्मुख प्रवृत्ति के विस्तार से बंध जाती है। अनादि अविद्यावासना से दूषित संस्कारवान् शरीरी को यह अस्वाभाविक प्रतीत हो सकती है किन्तु यह उसके शरीरबद्ध होने के कारण है। शरीर-रहित जीवन के निवृत्तिमात्र शेष रह जाती है। यहाँ पर प्रयुक्त 'चारित्र' शब्द व्यावहारिक एवं पारमार्थिक, दोनों तलों को स्पर्श करता है। वस्तुतः चारित्र पालन करना या चारित्र धारण करना व्यवहार चारित्र की ओर संकेत है। जहाँ निष्क्रियत्वमात्र शेष रह जाता है वहाँ स्वरुप के अनुभव के अतिरिक्त कुछ भी संपन्न करने के लिए नहीं बचता। यह द्विपक्षीय चारित्र जैनधर्म में मुख्यपने से प्रतिपादित है अर्थात् 'चारित्र ही धर्म है। - एसा कहा गया है। यहाँ स्वाभाविक जिज्ञासा यह होती है कि चारित्र क्यों, किसके द्वारा धारण किया जाये, और चारित्र का आधार क्या है ? इस विषय में कुछ एसे सार्वभौम तत्त्वों की ओर संकेत किया जा सकता है जिन्हें आस्तिक-नास्तिक आदि सभी विचारधाराओं के अनुयायी समान रुप से स्वीकार करते हैं। इस तथ्य को प्रथमतः संक्षेप में इसप्रकार से कह सकते हैं कि जो भी यह जगत् का प्रपञ्च है वह सब तभी सप्रयोजन ठहरता है जबकि इसका ज्ञाता कोई नित्य पदार्थ हो। चरक संहिता में अनात्मवादियों का खंडन करते हुए कहा गया है कि प्रकाश-अंधकार, ज्ञान-अज्ञान, शुभकर्म-अशुभकर्म आदि विरोधी युगलों की सार्थकता तभी सिद्ध होती है जबकि इन पदार्थों का जाननेवाला कोई शाश्वत पदार्थ हो और वह शाश्वत पदार्थ जीव है। इस प्रकार चारित्र का प्रथम सैद्धांतिक आधार है अविनाशिता का सिद्धांत । से जड स्वरुप का नहीं होता। अविनाशिता के सिद्धांत से यह स्फटिक के समान साफ हो जाता है कि जीव शाश्वत है। अत: यदि उसे मोक्ष प्राप्त करना है तो चारित्र धारण करना क्रियाकारी है। 2. नश्वरता का सिद्धांत: किन्तु यदि एकान्त रुप से सभी पदार्थो को शाश्वत (नित्य) मान लिया जावे तब तो दुःख का कभी नाश ही न हो। जबकि लोक में भी यह देखा जाता है कि अमुक व्यक्ति दु:खी था, कुछ काल पश्चात् (भले ही भ्रम वश ही सही) वह सुख अनुभव करता है अर्थात् दुःख नष्ट हो सकता है। इसलिए पदार्थ एकांतरुप से शाश्वत भी नहीं है। कोई भी पदार्थ अवस्था की अपेक्षा से नश्वर भी है। अर्थात् अवस्था अपने क्षण के पश्चात् नष्ट हो ही जाती है इसीलिए तो उसका नाम 'अवस्था' है। अवस्था दो तरह से हो सकती है -- 1. स्वतंत्र पदार्थ की स्वतंत्र अवस्था 2. दो या दो से अधिक 1. अविनाशिता का सिद्धांत: दर्शनशास्त्र की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में किसी न किसी पदार्थ को शाश्वत माना गया है। शाश्वत का अर्थ है जिसकी न तो उत्पत्ति होती हो और न ही नाश। इस विषय में सांख्य-योग का मत यह है कि चतुर्विशति तत्त्वों को उत्पन्न करनेवाली समग्र संसार की कारणभूत अव्यक्त नामक प्रकृति स्वयं अकारण है अर्थात् उसकी उत्पत्ति नहीं होती। इसी प्रकार पुरुष जो नित्य पदार्थ है वह भी अनादि है। तात्पर्य यह है कि द्वैतवादी सांख्य के जड और चेतन पदार्थ अनादि हैं। इनमें परिणाम (परिवर्तन) तो हो सकता है किन्तु इनका नाश नहीं हो सकता। वेदांत दर्शन के सिद्धांत में तो एक ही पदार्थ है - ब्रह्म। ब्रह्म में वास्तविक परिवर्तन नहीं होता किन्तु अज्ञान के कारण विवर्त होता है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार पाँच महाभूत नित्य पदार्थ हैं, इनका नाश नहीं होता अर्थात् प्रलय नहीं होता। चार्वाक दर्शन में भी चार भूतों को अनादिसिद्ध पदार्थ माना गया है। यहाँ तक कि जिस बौद्ध दर्शन में 'सत्' पदार्थ का लक्षण ही क्षणिक रुप में किया गया है वहाँ भी किसी आरंभिक 'क्षण' की कल्पना नहीं है। अर्थात् एसा कोई भी क्षण नहीं है जिसके पहले 'क्षण' न रहा हो; अर्थात् क्षणिकवाद की सत्ता भी तभी है जब अनादि क्षण को स्वीकार कर लिया जाये। आकाश का कोई छोर नहीं है इसलिए इसे अनादि-अनंत कहा जाता है। जिसका आदि अन्त नहीं हो उसे ही शाश्वत अथवा नित्य कहा जाता है, शब्दमात्र का अन्तर है किन्तु अभिप्राय एक ही है। आकाश और काल की तरह सभी पदार्थो के विषय में यह कहा जा सकता है कि उसका न किसी खास क्षण में उत्पाद हुआ है और न ही किसी खास क्षण में उसका विनाश ही होगा। गीता में कहा गयाहै कि असत् पदार्थ की सत्ता नहीं (उत्पाद नही) और सत् पदार्थ की असत्ता (नाश) नहीं होती। इसी प्रकार का कथन पंचास्तिकाय में भी आया है। __कहने का तात्पर्य यह है कि पदार्थ अविनाशी है। उसका रुपान्तर तो होता है किन्तु वह रुपान्तर भी जड से चेतन और चेतन 1. चारित्तं खलु धम्मो। - अ.रा. 4/2663, 2665 2. अत्र कर्म फलं चात्र ज्ञानं चात्र प्रतिष्ठितम् । अत्र मोहः सुखं दुःखं जीवितं मरणं स्वता। भास्तमः सत्यमनृतं वेदाः कर्म शुभाशुभम् । न स्युं कर्ता च बोद्धा च पुरुषो न भवेद्यदि। नाश्रयो न सुखं नातिन गति गतिर्न वाक् । न विज्ञानं न शास्त्राणि न जन्म मरणं न च। न बन्धो न च मोक्षः स्यात् पुरुषो न भवेद् यदि ।..... न चेत् कारणमात्मा स्याद् भादयः स्युरहेतुकाः । न चैषु सम्भवेज्ज्ञानं न च तैः स्यात् प्रयोजनम् । - चरकसंहिता, शारीरस्थान, 2/37, 39-42 3. अ.रा.प. 1/806:7793 4. सर्वभूतानां कारणमकारणं सत्त्वरजस्तमोलक्षणमष्टरुपमखिलस्य जगतः सम्भवहेतुव्यक्तं नाम। - सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, 113 5. अनादिपुरुषो नित्यः..... - चरकसंहिता, शारीरस्थान 1/59 अनादेश्चेतनाधातोर्नेष्यते परनिर्मितिः। - चरकसंहिता, सूत्रस्थान, 11/13 6. नाऽसतो विद्यते भावो नाभावो विद्यतेऽसतः । गीता 2/16 7. भावस्स णत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। - पंचस्तिकाय 15 8. अ.रा.पृ. 1/845 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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