________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
शुक्ला प्रतिपदा को हुआ था। आपका जन्म का नाम बहादुरसिंह था। बाल्यकाल में माता-पिता के स्वर्गवास के बाद चाचा कालूसिंह ने आपको नीमच में उपाध्याय श्री मोहनविजयजी को अर्पित किया । उन्होंने आपका नाम ‘प्रभुलाल' रखा एवं आपको श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनि यतीन्द्र विजयजी) के पास भेजा। उनके पास अध्ययनरत आपको मुनि यतीन्द्र विजयजी ने वि.सं. 1979, माघ शुक्ल 11 को जावरा में लघु दीक्षा एवं वि.सं. 1980 ज्ञान पञ्चमी (कार्तिक शुक्ल पञ्चमी) को बडी दीक्षा देकर मुनिश्री विद्याविजयजी नाम रखा । गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजीने वि.सं. 2016 भाद्रपद सुदि त्रयोदशी को ' संघप्रमुख' पदवी दी। उनके स्वर्गवास के पश्चात् वि.सं. 2021 फाल्गुन शुक्ल 3 रविवार दि. 16-2-1964 को श्रीसंघ ने आपको आचार्य पदवी देकर आचार्य श्रीमद्विजय 'विद्याचन्द्रसूरि' नाम घोषित किया ।
गुरुसेवा और वैयावृत्य में आप एक अनुपम आदर्श रुप थे । ढलती उम्र में गुरुदेव के अस्वस्थ होने पर आपने गुरु की माँ जैसी सेवा की थी। आप अतिशय सरल परिणामी थे। ज्योतिष के मर्मज्ञ विद्वान् होने से आपने जहाँ भी प्रतिष्ठादि कार्य करवाये वहाँ संघ की सविशेष उन्नति हुई। आपने कई प्रतिष्ठाञ्जनशलाका-दीक्षादि धर्म कार्यो के साथ श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के अर्ध शताब्दी महोत्सव का सफल संचालन किया। श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनका दिव्य गुरुमंदिर बनवाया एवं मोहनखेड़ा तीर्थ में श्री आदिनाथ जिन मंदिर को पुन: संगमरमर का बनवाकर पुनः प्रतिष्ठा करवाकर उसे विश्व प्रसिद्ध तीर्थ बनाकर अमर यश प्राप्त किया।
संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान् आपने शिवादेवीनन्दन, आदीश्वर, दशावतारी आदि संस्कृत महाकाव्य एवं गुरुदेव तथा 'श्री तीर्थंकर महावीर' आदि काव्यों तथा अन्य अनेकों स्तुति-स्तवनादि की रचना
की ।
वि.सं. 2036 आषाढ शुक्ला सप्तमी को श्री मोहनखेडा तीर्थ पर आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पार्थिव शरीर के अग्निसंस्कार के स्थान पर भव्य समाधि मंदिर हैं।
आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी महाराज" :
आपका जन्म वि.सं. 1993 के कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (गुजराती) तदनुसार दि. 11/12/1936 को प्रातः 4 बज कर 37 मिनिट पर श्री स्वरुपचन्दजी धरु की धर्मपत्नी श्रीमती पार्वतीबाई की कुक्षि से ग्राम पेपराल (थराद से 17 कि.मी) में हुआ था। आपका जन्म का नाम पूनमचंद था । आपके गगलदास, शांतिलाल, छोटालाल, लहेरचंद नामक चार अग्रज बंधु एवं एक पोपटलाल नामक लघु बांधव हैं। आपके शैशव काल में ही आपके पिताश्री ने व्यापार हेतु थराद में निवास किया था । वहीं वि.सं. 2004 में आपको अपने गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी का चातुर्मास में परिचय हुआ तब से आपके बाल सुलभ मन में दृढ वैराग्य भावना प्रस्फुटित हुई ।
आपकी दीक्षा वि.सं. 2010 में माघ शूक्ला चतुर्थी, रविवार को सियाणा में हुई। आपका दीक्षा का नाम मुनि जयंतविजयजी घोषित हुआ। आपकी बडी दीक्षा वि.सं. 2012, कार्तिक सुदि एकादशी
प्रथम परिच्छेद... [11]
को राजगढ़ (म.प्र.) में हुई । एवं वि.सं. 2017 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूज्य गुरुदेवश्री ने मुनि विद्याविजयजी को आचार्य पद पर अपने उत्तराधिकारी के रुप में घोषित करते समय आपको युवाचार्य के पद पर घोषित किया था । तदनुसार आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वर जी के स्वर्गवास के पश्चात् वि.सं. 2040 के माघ शुक्ला त्रयोदशी, बुधवार, दि. 15-2-1984 को भाण्डवपुर तीर्थ (राज.) में समस्त अखिल भारतीय त्रिस्तुतिक श्री संघ एवं विशाल जनमेदनी की उपस्थिति में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए, तब आपका नामकरण आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी रखा गया।
मुनि जीवन से ही आपका उपनाम 'मधुकर' है जो कि अध्ययन काल में महाकाव्यों के शिक्षाप्रद सारगर्भित श्लोकों को चुन-चुनकर कंठस्थ करने की आपकी प्रवृत्ति के कारण पंडित श्री करमलकरजी शास्त्री ने दिया था, आपको विद्वत्परिषद्ने साहित्यमनीषी, तीर्थप्रभावक एवं तत्कालीन उपराष्ट्रपतिवर्य (बाद में राष्ट्रपति) डो. शंकरदयाल शर्मा ने वि.सं. 2048 मार्गशीर्ष सुदि द्वितीया, रविवार, दि. 8-12-1991 को जावरा में 'राष्ट्रसंत' की पदवी से अलंकृत किया था ।
आपने गृहस्थ जीवन में 7 वीं कक्षा तक की व्यवहारिक शिक्षा के साथ-साथ, पांच प्रतिक्रमण, नव स्मरण, प्रकरण, भाष्य, कर्मग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र, योगशास्त्र आदि धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन कर लिया था। दीक्षा के पश्चात् आपने जैनागम, धर्मशास्त्र, व्याकरण, तर्क, न्याय, कोश, अलंकार, मीमांसा, ज्योतिष, राजनीति, शील्प, संगीत, अध्यात्म आदि अनेकों विषयों का विशद अध्ययन एवं गुरुप्रदत अनुभव प्राप्त किया। मूल गुजराती भाषी होने 'बावजूद भी आप गुजराती, हिन्दी, मारवाडी, प्राकृत संस्कृत आदि के सिद्धहस्त लेखक एवं वक्ता होने के साथ साथ मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, अंग्रेजी, ऊर्दू आदि अनेक भाषाओं के ज्ञानी है। इतना ही नहीं, अपितु आप देशके किसी भी प्रदेश में होने पर भी एक साथ अलग-अलग भाषाभाषी व्यक्तियों के साथ उनकी भाषा में बात भी करते हैं।
Jain Education International
स्वभाव से आप अध्ययनशील, संयमी, मधुरवक्ता, धीरगंभीर, उग्रविहारी, उग्र तपस्वी, विनयी, विवेकी, समभावी, अजातशत्रु, परोपकारी, करुणाधारी, साहित्यस्वष्टा, , हमेशा अपने साधु जीवनचर्या में ज्ञान-ध्यान में व्यस्त रहने वाले, शांतप्रकृति महापुरुष हैं । आप एक समर्थ साधु, अध्यात्म योगी, आत्मज्ञानी, शासनप्रभावक, युगपुरुष, लब्धप्रतिष्ठ स्वनामधन्य आचार्य हैं।
मुनि जीवन के प्रारंभ से ही खादी धारण करना, देशप्रेम, राष्ट्रीय कर्तव्यों एवं सामाजिक कर्तव्यों के पालन हेतु देश की युवा शक्ति को प्रेरित करना, आपका अनूठा व्यसन है। स्व. पू. गुरुदेव द्वारा पुनरुद्धरित त्रिस्तुतिक परंपरा के सत्य सिद्धांत के पालन, प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण हेतु आप तन-मन से आजीवन अथक प्रयास कर रहे हैं।
मुनि जीवन के प्रारंभ से ही संघ समाज की सेवा, संगठन, संस्कार, निर्माण, उन्नति और विकास हेतु आपका अदम्य पुरुषार्थ तो रहा है लेकिन जब से आपने आचार्य पद पर आरुढ होकर संघ की बागडोर हाथ में ली है तब से आपकी पावननिश्रा और मार्गदर्शन में मुनि मंडल, साध्वीवृन्द, गच्छ, संघ, समाज, दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा हैं।
आपके हाथों से सैकडों जिन मंदिर - गुरु मंदिर - उपाश्रय
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ से संकलित
76.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org