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________________ [12]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन . धर्मशालादि की अंजनशलाका, प्रतिष्ठा, निर्माण एवं उद्घाटन हुए और हो रहे हैं। सेवा के क्षेत्र में आपकी प्रेरणा से स्कूल, हॉस्पिटल आदि का निर्माण हो रहा है। साथ ही संघ-समाज की सेवा हेतु आपके द्वारा स्थापित श्री अ.भा.राजेन्द्र जैन नवयुवक, महिला, तरुणबालक-बालिका परिषद, गुरु राजेन्द्र फाउन्डेशन ट्रस्ट, श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, नवकार परिषद्, आदि अनेकों संस्थाएँ कार्यरत हैं। आपके सदुपदेश से गुरु जन्मभूमि भरतपुर में श्री राजेन्द्रसूरि जैन कीर्ति मंदिर, श्री राजराजेन्द्र तीर्थ-नेल्लौर, महाविदेह धाम मद्रास, डीसा; नवकार तीर्थ शंखेश्वर-छत्राल, श्री राज-राजेन्द्र जैन तीर्थ दर्शन मोहनखेडा, श्री राज-राजेन्द्र जयन्त धाम, रतलाम, इन्दौर आदि अनेकों तीर्थों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार हुए हैं एवं हो रहे हैं। आपके मुनि नित्यानंद विजयजी आदि 24 शिष्य एवं आपकी हस्तदीक्षित सा. पीयूषलताश्रीजी आदि 96 साध्वियाँ हैं एवं निकट भविष्य में अनेक मुमुक्षु चारित्र ग्रहण करने हेतु लालायित हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का शिष्यवृन्द" क. उपसम्पत् शिष्य 1. श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरिजी (मुनि श्री धनविजयजी) 2. मुनि श्री प्रमोदरुचिजी ख. हस्तदीक्षित शिष्य वृन्द क्रम शिष्य का नाम क्रम शिष्य का नाम 1. श्री मोहनविजयजी म. 12. श्री दीपविजयजी म. 2. श्री विनयविजयजी म. 13. श्री यतीन्द्रविजयजी म. 3. श्री टीकमविजयजी म. 14. श्री केशरविजयजी म. 4. श्री उदयविजयजी म. 15. श्री हर्षविजयजी म. 5. श्री मेघविजयजी म. ___16. श्री चमनविजयजी म. 6. श्री ऋषभविजयजी म. 17. श्री गुलाबविजयजी म. 7. श्री धर्मविजयजी म. 18. श्री चन्द्रविजयजी म. 8. श्री पद्मविजयजी म. 19. श्री नरेन्द्रविजयजी म. 9. श्री रुपविजयजी म. 20. श्री वल्लभविजयजी म. 10. श्री लक्ष्मीविजयजी म. 21. श्री कमलविजयजी म. 11. श्री हिम्मतविजयजी म. साध्वी वृन्दा: वि.सं. 1932 में वरकाणा तीर्थ में आपके करकमलों से प्रथम साध्वी दीक्षा अमरश्रीजी एवं साध्वी लक्ष्मीश्री जी की और तत्पश्चात् राजगढ में साध्वी विद्याश्री जी की हुई। इस परम्परा में साध्वी प्रेमश्री जी, मानश्री जी, कुशल श्री जी, रुपश्री जी, मनोहरश्री जी, भावश्री जी, विनयश्री जी, रायश्री जी आदि 35 साध्वियों की दीक्षा आपके द्वारा संपन्न हुई थी। 77 धरती के फूल पृ. 327, 328 78. धरती के फूल पृ. 78 (आचार्यपद की आराधना पीतवर्ण से क्यों ?) सूर्य के समान जिनेश्वरदेव और चन्द्र के समान केवली भगवन्त के अभाव में आचार्य महाराज दीपक के समान है। जैसे-दीपक की शिखा पीत वर्ण की है वैसे आचार्य महाराज भी पीतवर्ण वाले हैं। इसलिए उनकी आराधना पीतवर्ण से होती है। 2. जिन-शासन में आचार्य महाराज राजा के समान हैं । राजा स्वर्ण के बनाये हुए मुकुट आदि अलंकारों से समलंकृत होते हैं । स्वर्ण का वर्ण पीत होता है । यही भाव समझाने के लिए आचार्यपद की आराधना पीतवर्ण से होती है। 3. परवादीरु पी हाथियों को भगाने के लिए आचार्य महाराज केसरी सिंह के समान है। जैसे-केसरी सिंह का वर्ण पीत-पीला है वैसे ही आचार्य महाराज का भी वर्ण पीत-पीला है। यही भाव स्पष्ट करने के लिए आचार्यपद की आराधना पीत वर्ण से होती है। दूसरे के साथ वाद करते हुए जीत हो जाय तो जीतनेवाले को विजयश्री वरती है। आचार्य महाराज परवादी के साथ वाद करके स्वसिद्धान्त का मण्डन और परसिद्धान्त का खण्डन कर विजय प्राप्त करते हैं। विजयश्री के साथ विवाह करने के लिए पीली-पीठी चोल कर सज्ज बने हुए आचार्य महाराज वरराजा के समान हैं। यह भाव प्रदर्शित करने के लिए आचार्यपद की आराधना पीतवर्ण से होती है। मन्त्रशास्त्र में किसी को स्तब्ध और स्तम्भित करने के लिए पीतध्यान धरने का विधान है। महाप्रभावशाली आचार्य महाराज प्रसंग आने पर सबको स्तब्ध कर देते हैं। परतन्त्र को स्तब्ध और स्तम्भित करने में आचार्य महाराज मुख्य हैं, इसलिए उनको पीतवर्ण कहा है । परतन्त्र को स्तब्ध करने के लिए आचार्यपद का आराधनध्यान पीत-पीले वर्ण से ही होता है। ऐसे अनेक कारण पीतवर्ण से आचार्यपद की आराधना में कहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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