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________________ 74 [10]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन किया एवं वि.सं. 1980, ज्येष्ट सुदि अष्टमी, शुक्रवार को श्रीसंघ आपको वि.सं. 1972 में वागरा (राज.) में श्रीमद्विजय धनचन्द्र ने आचार्य पद प्रदान किया एवं श्री भूपेन्द्र सूरीश्वर जी नाम घोषित सूरिजी म.सा. ने 'व्याख्यान वाचस्पति', वि.सं. 1980 में जावरा किया। वि.सं. 1990 में अहमदाबाद में हुए अ.भा. जैन श्वे.मूर्तिपूजक में श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने 'उपाध्याय पद' एवं आ. मुनि सम्मेलन में अनेकों आचार्य एवं सैकडों मुनियों के बीच जो सागरानंद जी के साथ शास्त्रार्थ में उसी वर्ष रतलाम नरेश की विद्वमंडली 9 प्रामाणिक आचार्यों की समिति बनी थी, उसमें आप चतुर्थ स्थान की मध्यस्थता में पीताम्बरविजेता' पदवी एवं वि.सं. 1995 में वैशाख पर थे। सुदि दशमी को आहोर में श्रीसंघ ने आचार्य पदवी दी। श्री दानविजयजी आदि 5 साधु एवं अनेक साध्वियाँ आपके आपके मुनि श्री विद्याविजयजी आदि 18 शिष्य थे एवं हस्तदीक्षित हैं। आप स्वभाव से सरल और शांति प्रिय थे। साथ अनेकों शिष्याएं थी। आप विद्वानों से प्रेम रखते थे एवं उन्हें आदर ही जैनागम एवं अन्य जैन-जैनेतर धार्मिक-ग्रंथ, संस्कृत, प्राकृत व्याकरण, और सम्मान देते थे। कोश, अलंकारादि, तर्क, न्याय आदि के प्रकाण्ड मर्मज्ञ विद्वान् थे। आपने मुनि श्री दीपविजयजी के साथ रहकर अभिधान आपने विश्वविख्यात अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादन- राजेन्द्र कोश का संपादन-संशोधन एवं प्रकाशन करवाकर गुस्देव संशोधन एवं प्रकाशन कार्य मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी के साथ रहकर एवं श्रीसंघ का अभूतपूर्व विश्वास संपादन किया। स्वाध्याय और पूर्ण जिम्मेदारी पूर्वक संपन्न किया। सूक्त मुक्तावली आदि 5 ग्रंथो लेखन आपका प्रिय व्यसन था।आपके शिष्यों ने कभी आपको की टीका, अनुवाद एवं अनेको चैत्यवन्दन-स्तुति-स्तवनादि की रचना किसी से बात करते या फालतू बैठे नहीं देखा । हमेशा दीवाल की। आपकी रचनाओं में प्रचुर अर्थगांभीर्य प्राप्त होता है। आपका की ओर मुख करके सतत लेखन आपकी प्रिय प्रवृत्ति थी। आपने स्वर्गवास वि.सं. 1993 माध शुक्ला सप्तमी को प्रातः आहोर (राज.) तीन थुइ की प्राचीनता, सत्यबोध-भास्कर, पीत पयग्रह मीमांसादि में हुआ। प्राय: 60 के करीब ग्रंथ लिखे। लेकिन आप एवं मुनि दीपविजयजी श्रीमद्विजय यतीन्द्र सरीश्वर जी महाराज : द्वारा लिखित अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग का उपोद्घात आपका जन्म ओशवंशी जायसवाल गोत्रीय दिगम्बर कोई पढे, वह सहज ही आपकी विद्वत्ता के प्रति नतमस्तक हो सम्प्रदायानुयायी श्री बृजलालजी की धर्मपत्नी चम्पादेवी की कुक्षी जाता हैं। मेरी नेमाड यात्रा, मेरी गोडवाड यात्रा आदि में आपने से वि.सं. 1940 कार्तिक शुक्ला द्वितीया, रविवार के दिन धौलपुर विभिन्न गाँव नगरों के लोगों के रहन-सहन एवं स्वभाव के विषय (धवलपुर) राजस्थान में हुआ था। आपका जन्मनाम रामरत्न था। जब में जो बातें लिखी है वह आज भी इतनी ही सत्य साबित होती रामरत्न 5 वर्ष के थे तब माता का स्वर्गवास हो गया और उनके हैं। इतना ही नहीं जैन श्वे. श्रीसंघ के अन्य बडे-बडे विद्वान् आचार्य पिताजी धौलपुर छोडकर भोपाल (म.प्र.) जा बसे। वहाँ रामरत्नने भी आपकी कही हुई बातों को सैद्धांतिक रूप से प्रामाणिक मानते अल्पायु में ही दिगम्बर पाठशाला में पंचमंगल पाठ, तत्त्वार्थ सूत्र, थे एवं विभिन्न विषयों में आपकी सलाह लेते थे। रत्नकरण्डक श्रावकाचार, आलाप पद्धति, द्रव्य संग्रह, देवगुरु धर्म परीक्षा, नित्यस्मरणपाठ का अर्थ सहित अध्ययन किया, साथ ही भक्तामर, आपने आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा पुनः प्रचारित मंत्राधिराज, कल्याण मंदिर, विषापहार आदि स्तोत्र भी कंठस्थ किये। त्रिस्तुतिक सिद्धांत एवं गच्छ की आचार मर्यादा का दृढतापूर्वक पालन 12 वर्ष की अल्पायु में पिता का भी स्वर्गवास हो जाने करने के साथ श्रीसंघ में उन सिद्धांतो का प्रचार-प्रसार कर दृढतापूर्वक से रामरत्न मामा के यहाँ रहे लेकिन वहाँ अनबन होने से वे उज्जैन पालन करवाया। सामाजिक एकता एवं समाज सेवा हेतु आपने अपने में सिंहस्थ का मेला देखने आये। मेले के बाद श्री मक्षीजी तीर्थ अंतिम जीवन में वि.सं. 2016 में 'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन की यात्रा कर महेन्द्रपुर (वर्तमान महिंदपुर सीटी) में आचार्य श्रीमद्विजय नवयुवक परिषद्' की स्थापना की एवं सामाजिक जागृति हेतु समाज राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दर्शन किये। मुनि दीपविजयजी का मासिक पत्र 'शाश्वत धर्म' शुरु करवाया। (भोपालनिवासी होने से) आपके पूर्व परिचित थे तथा आचार्यश्री वि.सं. 2017 कार्तिक पूर्णिमा को आपने अपनी पाट पर से प्रथम दर्शन एवं वार्तालाप से प्रभावित आपने अपने विद्वता एवं अपने उत्तराधिकारी के रुप में मुनि श्री विद्याविजयजी को 'आचार्य' ज्ञानगांभीर्य से आचार्यश्री को भी प्रभावित कर आप आचार्यश्री के साथ रहे। विहार में आपके संस्कारी हृदय पर श्रीमद् गुरुदेवश्री के एवं मुनि श्री जयन्तविजयजी को 'युवाचार्य' पद पर घोषित कर शुद्ध क्रियाकलाप, दैनिक दिनचर्या एवं विद्वता का अमिट प्रभाव _ वि.सं. 2017 पौष सुदि तृतीया बुधवार दि. 21-22-1960 को प्रातः पडा। फलस्वरुप रामरत्न ने वि.सं. 1954, आषाढ कृष्णा द्वितीया, 4.00 बजे स्वर्गवासी हुए। श्री मोहनखेडा तीर्थप्राङ्गण में आपका सोमवार के दिन खाचरोद में आचार्यश्री के पास लघु दीक्षा एवं दिव्य, मनोरम, संगमरमरीय गुरुमंदिर आज भी आपकी साक्षात् स्मृति वि.सं. 1955 माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार को आहोर (राज.) में बडी करवाता हैं। दीक्षा ली। आपका नाम गुरुदेव ने मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी रखा। श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज':गुरुनिश्रा में नौ साल तक सतत रहने से आपको जैनागमों का तीव्र __आपका जन्म जोधपुर (राज.) में राठौरवंशीय (राजपूत) क्षत्रिय गति से अध्ययन, स्वाध्याय, विहार, प्रतिष्ठञ्जनशलाका, जीर्णोद्धार, गिरधरसिंह की धर्मपत्नी सुन्दरबाई की कुक्षी से वि.सं. 1957 पौष दीक्षा, बडी दीक्षा, उपधान, उद्यापन (उजमणां), संघयात्रा, तीर्थयात्रा, ज्ञानभंडार स्थापना, शास्त्रार्थ, कलह-शांति आदि धर्मकार्यों का सर्वतोमुखी 74. श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ, एवं आचार्य श्रीमद्विजय अनुभव प्राप्त हुआ। एवं बाद में आपने श्री संघ में ये सभी कार्य जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचन वि.सं. 2044 भाण्डवपुर तीर्थ पौष सुदि 3 करवाये। 75. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ - वासक्षेप पृ.22 फरपापा Jain Education International For Private & Personal use only .com. mm www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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