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[398]... पञ्चम परिच्छेद
जैनियों के वार्षिक 11 कर्तव्य25:
(1) संघ भक्ति (2) साधर्मिक भक्ति (3) तीर्थयात्रा (4) स्नात्र महोत्सव (5) देवद्रव्य की वृद्धि (6) महापूजा ( 7 ) रात्रि जागरण (जिन भक्ति हेतु) (8) श्रुतभक्ति (9) उद्यापन (उजमणां) (10) तीर्थ प्रभावना और (11) आलोचना / प्रायश्चित्त ग्रहण करना । जैनियों के जीवन भर के बृहत्कर्तव्य": -
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन से अभिषेक करना, कुसुमाञ्जलि चढाना, विलेपन, नवांग पूजा (चंदन केसर बरसादि से), पूष्पपूजा, चांदी आदि की आंगी चढाना, चंदनकेसर या अन्य योग्य पदार्थो से आंगी बनाना, जिनेश्वर के हाथ में बिजोरादि रखना, वासक्षेप से पूजा करना, आभूषण पहनाना आदि अनेक प्रकार से अंगपूजा की जाती है। अग्रपूजा :- जो पूजा परमात्मा के सन्मुख की जाती है, जिसमें जिनप्रतिमादि को स्पर्श की आवश्यकता नहीं है, वह अग्रपूजा है। परमात्मा के सामने कृष्णागरु, यक्षकर्दम, दशांग धूप आदि की जाने वाली धूपपूजा, शुद्ध घी का दीपक, अक्षतादि से अष्टमंगल (स्वस्तिक, भद्रासन, कलश, सिंहासन, नदावर्त, संपुट, दर्पण, मीनयुगल) आदि का आलेखन करना, फूल, फूलों की माला, गुलदस्ता रखना, अशन-पान - खादिम - स्वादिम ये चार प्रकार का नैवेद्य धरना, श्रीफल, बिजोरा आम्रादि देशकालानुसार प्राप्त उत्तम फल रखना, गीत-नृत्यवादित्र आदि तथा आरती, मंगल दीपक करना आदि अनेक प्रकार से अग्रपूजा की जाती है।
(1) जिन मंदिर का निर्माण करना, जीर्णोद्धार करवाना (2) जिन प्रतिमा भरवाना (3) उपाश्रय बनवाना (4) तीर्थयात्रा का छः री 27 पालक (पैदल) संघ निकालना (5) अपने पुत्र-पुत्रियों को साधु-साध्वी बनने की प्रेरणा देना । (6) आचार्य पदवीका महोत्सव करना (7) आगम शास्त्र लिखवाना ।
श्रावकों के पर्युषण पर्व के कर्तव्य" :
(1) अमारी प्रवर्तन (अहिंसा पालन) (2) छट्ट (दो उपवास), अट्टम (तीन उपवास) का तप (3) सुपात्रदान (4) नारियल प्रमुख प्रभावना (5) जिनपूजा - चैत्यपरिपाटी (जिनदर्शन, वंदन- भक्ति) (6) सर्वसाधुओं को वंदन (7) श्री संघ भक्ति (8) सचित्त त्याग (9) ब्रह्मचर्य पालन (10) आरंभत्याग (11) सन्मार्ग में द्रव्य व्यय ( 12 ) श्रुतज्ञान की भक्ति (13) अभयदान (14) कार्योत्सर्ग (15) उभय काल प्रतिक्रमण (16) महोत्सव (17) कल्पसूत्र पाठक की अशनादि से भक्ति (18) श्री संघ में परस्पर खमतखामणां (क्षमापना) (19) भावना का चिन्तन (20) कल्पसूत्र
श्रवण ।
जैनियों को जैसे उक्त कर्तव्यों से अपने जीवन को सफल बनाना है वैसे शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के लिए निम्न पापों का त्याग भी करणीय है
(क) नरक के चार द्वारों का त्याग :
(1) रात्रि भोजन त्याग (2) परस्त्रीगमन (3) अभक्ष्य अनंतकाय भोजन त्याग (4) चलित रस (जिसके वर्ण-गंधादि परिवर्तन हो गये हो वैसे आचार -मुरब्बादि खाद्यों का) त्याग ।
(ख) चार लोकोत्तर पापों का त्याग -
(1) मुनि हत्या (2) साध्वी का शील भंग करना (3) जिन मंदिर और जिन मूर्ति को तोडना अथवा इसके विषय में किसी की श्रद्धा का नाश करना। (4) देवद्रव्य का नाश या दुरुपयोग । (ग) सप्तव्यसन का त्याग -
(1) चोरी (2) जुआ (3) शिकार (4) मद्य (शराब, बीयर आदि तथा उपलक्षण से चरस, भाँग आदि) (5) मांसाहार (6) परस्त्रीगमन (7) वेश्यागमन ।
(घ) चार महाविकृतियों का त्याग 2 -
(1) मधु (शहद) (2) मक्खन (3) मांस और (4) मदिरा (शराब
आदि) ।
श्वेताम्बर परम्परा में पूजा विधि :
श्वेताम्बर परम्परा में श्री जिनेश्वर (जिनबिम्ब) की पूजा का वर्णन करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने जिन पूजा के विधि भेदोपभेदों का वर्णन किया है। अंगपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा - इस प्रकार जिनपूजा तीन प्रकार की है। अंगपूजा :- जिस पूजा में परमात्मा के अंग को स्पर्श करने की आवश्यकता होती है उसे अंगपूजा कहते है। जिनप्रतिमा से पुष्पादि निर्माल्य उतारना, पञ्चामृत (दूध, दही, घी, मिश्री और शुद्ध जल )
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भावपूजा :- परमात्मा के आगे चैत्यवंदन करना, स्तुति करना, यह भाव पूजा है।
इन पूजाओं में उत्तम भावों से युक्त होकर गृहस्थ श्रावक विभिन्न द्रव्यों से अनेक प्रकार से जिनपूजा करता-करवाता है, जिसमें पुष्प - अक्षत-गंध-धूप और दीप से की जाने वाली पूजा पञ्चोपचारी, जल - चंदन- पुष्प-धूप-दीप-अक्षत-नैवेद्य और फल से की जाने वाली पूजा अष्टप्रकारी एवं (1) जल (2) विलेपन (3) वस्त्र युगल समर्पण (4) वासक्षेप समर्पण (5) पुष्प समर्पण (6) पुष्पमाला समर्पण (7) पंचवर्ण की अङ्ग - रचना (अङ्गविन्यास) (8) गन्ध समर्पण (9) ध्वजा समर्पण (10) आभूषण समर्पण (11) पुष्पगृहरचना 912) पुष्पवृष्टि (13) अष्टमङ्गल रचना (14) धूप समर्पण (15) स्तुति (16) नृत्य और (17) वादित्र पूजा (बाजे बजाना) सत्रहभेदी पूजा है। इसी प्रकार जैन शास्त्रों में 21 भेदी, 64 प्रकारी, 99 प्रकारी आदि अनेक प्रकार की पूजाएँ हैं जिन्हें सर्वोपचारी पूजा कहते है, जिसका विस्तृत वर्णन 'राजप्रश्नीय (रायप्पसेणीय)' सूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, चैत्यवन्दन महाभाष्य आदि ग्रंथो में किया गया है।
इस प्रकार यहाँ पर श्वेताम्बर परम्परानुसार जैनाचार (साध्वाचार और श्रावकाचार) का अति संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया गया है जिसका इस शोधप्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान विस्तृत वर्णन पूर्व में हम कर चुके हैं।
25. श्राद्धविधि प्रकरण, पंचम प्रकाश 5/12-13; अ.रा. 6 / 1100 श्राद्धविधि प्रकरण, षष्ठ प्रकाश
26.
27.
समकितधारी, पदचारी (पैदल चलना), ब्रह्मचारी, सचित परिहारी, एकल आहारी, भू-संथारी इन छः नियमों का पालन करते हुए तीर्थयात्रा करना
- करवाना
28. कल्पसूत्र बालावबोध, पृ.30
29. पद्म पुराण, प्रभास खंड, रात्रिभोजन महापाप पृ 16 से उद्धृत 30. संबोधसत्तरी प्रकरण- 104
31. पच्चकखाण भाष्य 41
32. योगशास्त्र 3/6
33. क. अ. रा. भा. 3 पृ. 'चेइय' शब्द;
ख. अंगग्गभाव भेया पुप्फऽऽहार - तुईहि पूय-तिगं । पञ्चवयारा अट्ठो वयार सब्वोवयारा वा ॥
चैत्यवन्दनभाष्य गाथा 10 एवं उसका विवेचन, पृ. 76,77
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