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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [399] 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार दिगम्बर परम्परा में भी धर्मसाधना दो प्रकार की स्वीकृत है -- सर्वविरति और देशविरति । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में स्पष्ट किया गया है कि उपदेशक का कर्तव्य है कि वह श्रोता को सबसे पहले तो सर्वविरति का उपदेश करे, यदि श्रोता सर्वविरति में असमर्थता प्रगट करे तभी देशविरति का उपदेश करना चाहिए । इसका कारण यह है कि सर्वविरति के विना पूर्ण धर्म प्रगट नहीं होता और सर्वविरति के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। सर्वविरत अर्थात् मुनि के लिङ्ग का वर्णन करते हुए कहा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी मुनियों के आचार्य, उपाध्याय और है कि नग्न मुद्रा, संस्कार/अलंकार से रहित शरीर, सिर, दाढी और साधु - एसे तीन भेद किये गये हैं। दोनों परम्पराओं में आचार्य मूंछ के केशों का हाथ से लुञ्चन और हाथ में मयूरपंख की पिच्छि के 36 और उपाध्याय के 25 गुण समान रुप से स्वीकृत हैं। जबकि तथा काष्ठ के कमण्डलु के अतिरिक्त अन्य समस्त परिग्रह से रहित मुनि के श्वेताम्बर परम्परा मं 27 और दिगम्बर परम्परा में 28 गुण जैन मुनि हैं। माने गये हैं। जैन मुनि के गुणों का वर्णन करते हुए आचार्य नेमिचंद्र आर्यिका :ने दिगम्बर परम्परानुसार मुनि के अट्ठाईस गुणों का वर्णन करते हुए दिगम्बर परम्परा में भी पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी उत्कृष्ट कहा है - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, संयम धारण कर मोक्षमार्ग में अग्रसर हो सकती हैं (यद्यपि उन्हें स्त्रीरुप छह आवश्यक, अदन्तधावन, अस्नान, भूमिशयन, एकभुक्ति, स्थितिभोजन, में मोक्षप्राप्ति का सामर्थ्य दिगम्बर परम्परा में मान्य नहीं है) उत्कृष्ट केशलुंचना और नग्नता - इन अट्ठाईस मूलगुणों का पालन प्रत्येक संयम धारण करनेवाली स्त्रियाँ आर्यिका कहलाती हैं। आर्यिकाओं दिगम्बर जैन मुनि के लिए अनिवार्य है। का समस्त आचार प्रायः मुनियों के समान ही होता है। अन्तर मात्र पाँच महाव्रत :- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का इतना है कि स्त्रीपर्यायगत मर्यादा के कारण आर्यिकाएँ मुनियों की प्रतिज्ञापूर्वक पूर्णरुप से परित्याग कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तरह निर्वस्त्र नहीं रहतीं, अपितु शरीर पर एक सफेद साडी धारण और अपरिग्रह व्रत को सकलरुप से - पञ्चमहाव्रत कहा गया करती है और बैठकर ही अपने अञ्जलिपुटों में आहार करती हैं। आर्यिकाएँ है। इनके नाम अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, दो-तीन आदि आर्यिकाओं के समूह में रहती हैं। इनकी प्रधान 'गणनी' ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत हैं। इनका विस्तृत वर्णन कहलाती है, जिनके निर्देशन में ये अपने संयम का अनुपालन करती हम शोधप्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान कर चुके हैं। हैं। इनके महाव्रतों को औपचारिक महाव्रत कहा जाता है। आर्यिकाएँ इसी प्रकार पाँच समिति, पाँचों इन्द्रियों का निरोध एवं षड् क्षुल्लक-एलक (श्रावकभेद) से उच्च श्रेणी की मानी गयी हैं। आवश्यक का पूर्व में विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। यहाँ शेष श्रावक :सात गुणों का परिचय दिया जा रहा है। पं. दौलतरामजीने कहा है श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी चतुर्थ (1) अस्त्रान (2) अदन्तधावन (3) नग्नता (4) भूशयन (5) गुणस्थान में मिथ्यात्व के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम तथा अनन्तानुबंधी स्थितिभुक्ति (6) एकभुक्ति (एकाशन) और (7) केशलोंच - ये मुनि कषाय के क्षयोपशम के बाद अप्रत्याख्यानीय कषाय के क्षयोपशम, के शेष सात गुण हैं। पाँचो स्थावरों के वध में प्रवृत्त होने पर भी यथाशक्ति त्रस के वध वीतरागी मुनियों को स्नान और दाँत को स्वच्छ करना नहीं से निवृत्त होनेवाले, पाँचों आस्रवों (हिंसादि) के एकदेश त्याग में होता; शरीर ढंकने के लिए किञ्चित् भी वस्त्र नहीं होता; रात्रि के लगे हुए, पंचम गुणस्थान योग्य दान, शील, पूजा, उपवासादि रुप पिछले भाग में स्वाध्याय, ध्यान, विहारजन्य थकान दूर करने के लिए अथवा दर्शनप्रतिमादि ग्यारह प्रतिमारुप व्रतादि धारण करने वाले मनुष्य धरती पर या शिला, लकडी के पाटे, सूखे घास अथवा चटाई पर को श्रावक कहते हैं। एक करवट विश्राम करते हैं; दिन में एक बार खडे रहकर अपने हाथों को ही पात्र बनाकर गोचरीवृत्ति से आहार करते हैं; सिर और 1. योगसार 8/52; आचार सार 1/11 दाढी-मूंछ के बालों का केशलोंच करते हैं। 2. बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका; पञ्चाध्यायी 2/743, 744; ज्ञानार्णव 8/6 उक्त अट्ठाईस मूलगुणों के अतिरिक्त जैनमुनि पूर्वकथित क्षमादि प्रवचनसारोद्धार-208, 209 - आचार्य नेमिचंद्र सूरि दश धर्म, अनित्यादि बारह भावना, क्षुधादि परषह जय, पाँच समिति, 3. रत्नकरंडक श्रावकाचार 49, 50; चारित्र पाहुड-30 तीन गुप्ति, बारह प्रकार का तप आदि संवर और निर्जरा के अङ्गभूत 4. चारित्र पाहुड-30 सभी साधनों की आराधना करते हैं। उनमें श्वेताम्बर और दिगम्बर 5. पं. दौलतरामकृत छहढाला, छठवीं ढाल, छन्द 5 का उत्तरार्द्ध एवं 6 का पूर्वार्द्ध परम्परा में जो कुछ आंशिक भेद है वह पूर्व में यथास्थान दर्शाया व अन्वयार्थ, पृ. 161 6. जैन धर्म और दर्शन, पृ. 296 - मुनि प्रमाणसागरजी गया है। साधु के भेदों के अनुसार गुण : 7. जिनागामसार, प्रकरण 7/2 (ख) (1) पृ. 739, 741; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 41 से ।।6; बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा 45 की टीका पृ. 220; गोम्मटसार, जैन मुनियों के अलग-अलग कर्तव्यों की अपेक्षा श्वेताम्बराम्नाय जीवकाण्ड गाथा 476 व टीका; सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. 577 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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