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[400]... पञ्चम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जैन शास्त्रों में 'श्रावक' के अर्थ में उपासक, सागार, गृही,
मद्य-मांस और मधु तो प्रकार रुप से हिंसाजनित होने से गृहस्थ, देशविरत, देशसंयत, अणुव्रती आदि शब्दों का प्रयोग किया त्याज्य हैं। उसी प्रकार पाँच उदम्बर में बहुसंख्या में त्रस जीव होने गया है। उनके आचार धर्म को शास्त्रों में सागार धर्म कहते है। से वे भी त्याज्य हैं। संक्षेप में सागार धर्म का वर्णन करते हुए पंडित आशाधरने शंकादि
जैनागमों के अनुसार अनछाने जल की एक बूंद में इतने दोषों से रहित सम्यगदर्शन, निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत अधिक त्रस जीव होते हैं कि वे यदि कबूतर की तरह उडे तो (का पालन), और मरणसमय में विधिपूर्वक संलेखना - यह पूर्ण पूरे जम्बुद्वीप को व्याप्त कर ले20, या सरसों के दाने जितने बडे सागारधर्म है। इसी का विस्तृत वर्णन करते दिगम्बर परम्परा में व्रतों हो जायें तो पूरे जम्बुद्वीप में नहीं समा सकते ।। मनुस्मृति में के परिपालन के क्रमानुसार श्रावक के तीन भेद किये गये हैं - (1) भी कहा है- "दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् । अतः पाक्षिक (2) नैष्ठिक और (3) साधक।10
हिंसा और रोगों से बचने हेतु पानी छानकर ही पीना चाहिए। त्रस पाक्षिक श्रावक :
हिंसा, रोग एवं दुर्गति से बचने हेतु श्रावक को रात्रिभोजन त्याज्य __ 'पाक्षिक' का अर्थ है जो जिनेन्द्र भगवान् के पक्ष को ग्रहण है, इसका विस्तृत वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। सागर धर्मामृत कर चुका है। पाक्षिक श्रावक की श्रेणी में वे सभी श्रावक आ जाते में कहा है कि पाक्षिक श्रावक यदि रात्रि भोजन का पूर्ण त्याग न हैं जो जिनेन्द्र भगवान् के पक्ष को ग्रहण करते हैं तथा जैन कुल कर सके, तो कम से कम पान, दवा, जल, दूध आदि की छूट क्रमानुसार अपना आचरण रखते हैं। यह गृहस्थ की प्राथमिक भूमिका रखकर अन्य स्थूल आहार का त्याग तो करना ही चाहिए।23 है। इस भूमिकावाले श्रावक में सभी आवश्यक नैतिक गुण आ जाते नैष्ठिक श्रावक :हैं।।। इसका वर्णन करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है
देशचारित्र को घात करनेवाली कषाय के क्षयोपशम के 'जो स्त्री-पुत्र-धन-धान्यादि परिग्रह सहित घर में ही निवास उत्तरोत्तर उत्कर्ष के कारण दार्शनिक आदि ग्यारह अवस्थाओं के करते हैं, जिनवचनों के श्रद्धानी हैं, न्यायमार्ग का उल्लंघन नहीं करते अधीन तथा पाक्षिक की अपेक्षा उत्तम लेश्यावाला नैष्ठिक श्रावक हैं, पापों से भयभीत हैं एसे ज्ञानी गृहस्थों के विकल चारित्र हैं''12 होता है। व्रतधारी श्रावक नैष्ठिक कहलाता है। पाक्षिक श्रावक
सागरधर्मामृत में भी श्रावकधर्मपालक की योग्यता का अपने व्रतों को कुलाचार के रुप में पालन करता हैं, उसमें कदाचित् वर्णन करते हुए पं. आशाधरने कहा है- "न्यायपूर्वक धनोपार्जक; । अतिचार भी लग सकते हैं किन्तु नैष्ठिक श्रावक व्रतों का निरतिचार गुणों, गुरुजनों और गुणीजनों का पूजक एवं उनका आदर-सत्कार पालन करते हैं।26 करने वाला; परनिन्दा, कठोरतादि से रहित; प्रशस्तवक्ता; परस्पर एक
दिगम्बर परम्परा मैं नैष्ठिक श्रावक के उत्तरोत्तर विकास हेतु दूसरे को हानि न पहँचाते हुए धर्म, अर्थ और काम का सेवन करने
ग्यारह श्रेणीयाँ हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएँ कहते हैं। वे इस प्रकार वाला एवं उनके योग्य पत्नी, गाँव, नगर और भवनवाला, लज्जाशील,
हैं - दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषधोपवास, सचित्त-विरत, दिवा
मैथुन त्याग, पूर्ण ब्रह्मचर्य, आरंभ-त्याग, परिग्रह-त्याग, अनुमति त्याग शास्त्रानुसार भोजनपान और गमनागमन करनेवाला; सत्संगी, प्राज्ञ,
तथा उद्दिष्ट त्याग। इसमें ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक और एलक कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, धर्मविधिश्रोता, दयालु और पापभीरु पुरुष गृहस्थधर्म
- एसे दो भेद हैं। के पालन में समर्थ होता हैं।13 उक्त विशेषताओं से भूषित व्यक्ति
8. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 40, 413; रनकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 50 ही एक आदर्श गृहस्थ की श्रेणी में समाविष्ट होता है।
9. सागारधर्मामृत दिगम्बर परम्परा में पाक्षिक श्रावक के 'अष्ट मूलगुण' का
10. सागारधर्मामृत 1/20 अलग-अलग प्रकार से वर्णन किया गया है
11. जैनेन्द्रसिद्धांत कोश - 4/16 आचार्य समन्तभद्रने मद्य, मांस, मधु के त्याग सहित पाँच
12. स्त्रकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 50 अणुव्रतों (के पालन) को गृहस्थों के अष्टमूलगुण नाना है। 4 पंडित 13. सागारधर्मामृत ।। आशाधर ने पाक्षिक श्रावक को मद्य, मांस, मधु (सहद), और पाँच 14. स्त्रकरंडक श्रावकाचार-3/66; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 45 की टीका उदुम्बर (पीपल, ऊमर, बड, कठूमर, पाकर) फलों का त्याग और 15. सागारधर्मामृत 2/2 'च' शब्द से मक्खन, रात्रिभोजन और बिना छने जल का त्यग करने 16. सागारधर्मामत 2/18 का विधान किया है। वहीं प्रकारान्त से अष्टमूलगुण का वर्णन करते
17. वही, पृ. 63
18. जैन धर्म और दर्शन, पृ. 262 - मुनि प्रमाणसागर जी हुए यह भी कहा है कि 'देव, गुरु और धर्म के प्रति समर्पित पाक्षिक
19. वही श्रावक के मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन, पाँच उदुम्बर फलों का
20. एक बिन्दूद्भवा जीवाः पारावतसमा यदि । भूत्वा चरन्ति चेज्जम्बुद्वीपोऽपि त्याग, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - इन पाँच पूर्यते यतः ॥ व्रतविधान संग्रह परमेष्ठियों की स्तुति, जीवदया तथा पानी को वस्त्र द्वारा अच्छी तरह 21. एगम्मि उदगबिंदुमि जे जीवा जिणवरेहि पण्णत्ता। ते जई सरसिमित्ता जंबूदीवे छानकर पीना - ये आठ मूलगुण हैं। पं. आशाधरने इन अष्टगुणों
णा मायंति ॥ - प्रवचन सारोद्धार; संबोधसत्तरी प्रकरण - 95
22. मनस्मृति, 6146 का महत्त्व बताते हुए कहा है - इनमें से एक के भी बिना श्रावक
23. सागारधर्मामृत - 2 176; लाही संहिता - 2/92 गृहस्थ-श्रावक कहलाने का पात्र नहीं है।"
24. सागारधर्मामृत 3/1 उपरोक्त बातें अहिंसा की दृष्टि से कही गयी हैं। जैन होने 25. जैनेन्द्रसिद्धांत कोश - 3/46 के ये मूल चिह्न हैं। इसके बिना वह नाम से भी 'जैन' नहीं कहला 26. सागारधर्मामृत 3/4 सकता।18
27. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 305-6; रत्नकरंडक श्रावकाचार - 136; सागारधर्मामृत
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