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________________ [324]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) अनुशासनात्मक स्वरुप - शिष्य के द्वारा सत्कार (शिरोनमन), अञ्जलि (अञ्जलिबद्ध प्रणाम), शुश्रूषा (शरीर सेवा), गिरा (वाणी द्वारा सातापृच्छादि, गुणकीर्तन) मानस (अन्त:करण में अटूट श्रद्धा, बहुमान, पूर्ण समर्पण एवं भक्तिभाव) भक्ति द्वारा गुर्वाज्ञा को यथोचित शिरोधार्य करना, उनके निकट रहना, जातिवान् अश्ववत् इंगिताकार से ज्ञातकर तदनुकूल वर्तन करना, उन्हें पुनःपुनः कहने का अवसर नहीं देना अनुशासनात्मक विनय हैं।164 इससे शिष्य उग्रस्वभावी गुरु को भी प्रसन्न कर लेता हैं ।185 गुरुजनों का कोमल या कठोर भी अनुशासन (हित-शिक्षा), दुष्कृत्यों से बचने हेतु दी गई प्रेरणा को बुद्धिमान् विनीत शिष्य हितकारी मानता है।86 | क्योंकि आज्ञाराधन के बिना सब निरर्थक हैं । 187 आज्ञाभंग नहीं करना चाहिए, आज्ञा-भंग करनेवाले को सुख नहीं हैं। 188 गुर्वाज्ञा-भंग सारे अनर्थो की जड है।89 | कठोर अनुशास्ता गुरु पर भी कोप करना दिव्यलक्ष्मी को लाठी प्रहार से रोकने तुल्य हैं।190 (3) शील-सदाचारात्मक विनय - विष्टाप्रिय शूकर की तरह अविनीत दुःशीलप्रिय होता है। । दुःसील, उद्दण्ड, वाचाल, असदाचारी और गुरु से प्रतिकूलाचारयुक्त अविनीत सब जगह सडे कानवाली कुतिया की तरह सर्वत्र अपमानित होकर दर-दर की ठोकर खाता है।2। अत: अविनय के दोषों को जानकर मुमुक्षु शिष्य सदैव विनय की आराधना करें, विनय की अन्वेषणा करें जिससे उसे शील-सदाचार की सम्यक् प्राप्ति हों1931 (4) संयमात्मक विनय - विनय जिनशासन का मूल है। विनीतात्मा ही संयमी हो सकता है, आत्मदमन (संयम पालन) कर सकता है और गुरुजनों का अनुशासन मान सकता है।4। प्राणान्त संकट में भी धर्मशासन का उल्लंघन या त्याग नहीं करनेवाला दृढसंकल्पी आत्मा ही इन्द्रियसंयम या आत्मसंयम का पालन कर सकता है।95 | आत्मसंयमी ही इसलोक और परलोक में सुखी होता है।% । इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने उपर्युक्त विविध परिभाषाओं के द्वारा विनय के आध्यात्मिक, व्यवहारिक एवं धार्मिक पहलुओं को प्रकाशित किया है जिसे यहाँ अतिसंक्षेप में दर्शाने का प्रयत्न किया हैं। विनय के भेदार : अभिधान राजेन्द्र कोश में ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय और लोकोपचार विनय-विनय के ये सात प्रकार बताये हैं। इन सातों के भी अवान्तर भेद हैं। ज्ञानविनय : ज्ञान तथा ज्ञानी पर पूर्ण श्रद्धा रखना, भक्ति और बहुमान रखना, उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तुतत्त्वों पर चिन्तन-मनन-अनुशीलन करना, विधिपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना, अध्ययन करना, उनकी आज्ञाओं का पालन करना, उनकी शरण स्वीकार करना ज्ञानविनय हैं।198 ज्ञानी से यहाँ पाँचों ही ज्ञानधारक समझना चाहिये । अपने ज्ञानावरणीय कर्म क्षय करने के लिए उनका समादर-सत्कारसम्मान करना आवश्यक हैं। शिष्य जिस ज्ञानी गुरु से आत्मगुणविकासी धर्म (सिद्धान्त) वाक्यों की शिक्षा लें, उनकी पूर्ण रुप से विनय भक्ति करें।200 जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण सदैव मधु-धृतादि विविध प्रकार की आहुतियों और मंत्रपदों से अग्नि का अभिषेक करता है वैसे अनन्तज्ञानी (केवलज्ञानी) शिष्य भी अपने गुरुजनों की और आचार्य (गुरु) की सविनय-उपासनासेवा-भक्ति-स्तुति-वन्दन-और अभिवंदन करें201 । दर्शनविनय : सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदर भाव प्रकट करना, स्तुति आदि द्वारा सम्यग्दृष्टि गुरुजनों का सत्कार-सम्मान करना तथा इनकी ज्येष्ठता-श्रेष्ठता और पद-प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए सम्मानजनक व्यवहार करना दर्शनविनय हैं ।202 इसके भी दो भेद हैं- शुश्रूषाविनय और अनाशातना विनय ।203 शुश्रुषाविनय के निम्नानुसार अनेक भेद बताये हैं और अनाशातना विनय के पैंतालीस204 (45) और बावन205 (52) भेद हैं। (1) शुश्रुषा विनय - पूज्य पुरुषों एवं मोक्ष के साधकों के प्रति आदर रखना शुश्रुषाविनय है2061 गुरु के प्रति आदर, सत्कार, भक्ति, सम्मान-बहुमान, सेवा-शुश्रुषा करना, उनके आने पर खडे होना, हाथ जोडना, आसन देना, वंदन करना, उनके सामने नम्रतापूर्वक अञ्जलिबद्ध होकर बैठना, उपासना करना, उनके शुभागमन पर सामने लेने जाना, प्रस्थान करने पर कुछ दूर तक उनके साथ पहुँचाने जाना - यह सब शुश्रूषा विनय कहलाता हैं |207 गुरु के अनुशासन में रहना, आज्ञा पालन करना और उनके प्रति त्रियोग से नम्र व अनुद्धत रहना विनय हैं208 । (2) अनाशातना विनय - यह भेद दर्शनविनय के अन्तर्गत है। अपने गुरुजनों के सम्मान में ठेस पहुँचे या उनकी पद 184. अ.रा.पृ. 6/1158, 1169, 1170; दशवैकालिक, मूल-9/1/123 उत्तराध्ययन-1/3 185. अ.रा.पृ. 6/1161; उत्तराध्ययन-1/13 186. अ.रा.पृ. 6/1164; उत्तराध्ययन-1/27-28-29 187. अ.रा.पृ. 2/141; हीर प्रश्न-प्रकाश-1 188. अ.रा.पृ. 2/141, 138; महानिशीथ-5/120 189. अ.रा.पृ. 3/944; पञ्चाशक सटीक-विवरण-5 190. अ.रा.पृ. 6/1160, 1171; उत्तराध्ययन-1/9; दशवैकालिक, मूल-9/24 191. अ.रा.पृ. 6/11593; उत्तराध्ययन-1/15 192. अ.रा.पृ. 6/1158; उत्तराध्ययन-1/4 193. अ.रा.पृ. 6/1159; उत्तराध्ययन-1/6-7 194. अ.रा.पृ. 3/523 195. दशवैकालिका, चूलिका-1/17 196. अ.रा.पृ. 6/1162; उत्तराध्ययन-1/15 197. अ.रा.पृ. 6/1153; भगवतीसूत्र 25/7; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; स्थानांग-7 ठाणां 198. वही, भगवती आराधना-113; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/551 199, अ.रा.प्र. 6/1153; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; भगवती सत्र 25/7 200. अ.रा.पृ. 6/1169; दशवैकालिक 9/1/12 201. अ.रा.पृ. 6/1169; दशवैकालिक 9/1/11 202. अ.रा.पृ. 6/1153 203. अ.रा.पृ. 6/1153; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; भगवती सूत्र-25/7 204. अ.रा.पृ. 1/263; भगवती सूत्र-257 205. अ.रा.पृ. 6/1153; एवं 11753 दशवेकालिक-9/2 सूत्र सटीक 206. सर्वार्थ सिद्धि-9/20/439 207. अ.रा.पृ. 6/1153; औपपातिक सूत्र-20 तप वर्णन; भगवती सूत्र-25/7 208. अ.रा.पृ. 1/283; उत्तराध्ययन-30/32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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