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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [325] प्रतिष्ठा की अवमानना हो - एसा कोई भी कार्य नहीं करना और उनकी अवज्ञा-अपमान/आशातना करनेवाला कोई भी
अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रकारान्तर से विनय के पाँच अनुचित व्यवहार नहीं करना-अनाशातना विनय हैं। प्रकार बताये हैं-17 - 1. लोकोपचार विनय 2. अर्थ विनय 3. काम यह अनाशातना विनय अरिहन्त, आर्हद् धर्म, आचार्य, उपाध्याय, विनय 4. भय विनय और 5. मोक्ष (आत्म) विनय । स्थविर, कुल, गण, संघ, क्रियावन्त, सम्भोगी (समान आचार
(1) लोकोपचार विनय :वाले श्रमण) मति-श्रुतादि पाँच ज्ञानों के धारक-इन पन्द्रह
अन्य को सुख पहुँचाने वाले बाह्याचार को लोकोपचार विनय की आशातना नहीं करना, अपितु इनकी भक्ति, बहुमान और
कहा जाता हैं। जनता का व्यवहार लोकोपचार कहलाता है। गुणगान करने रुप तीन भेदों के कारण 45 प्रकार का हैं।209
लौकिकलाभार्थ या लोकव्यवहार निभाने के लिए माता-पिता, शिक्षकयह अनाशातना विनय प्रकारान्तर भेद से तीर्थंकर, सिद्ध,
गुरुजन आदि की विविध प्रकार से विनय-भक्ति, सेवा सत्कार पूजादि कुल,गण, संघ, क्रियाधर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय
करना लोकोपचार विनय है। इसमें मुख्यतः प्रदर्शन की भावना होती और गणी-इन तेरह पुरुषों की अनाशातना, भक्ति, बहुमान और
है, मात्र औपचारिकता रहती है, अन्तः प्रसूत प्रेरणा नहीं । जैसे उचित वर्णसंज्वलनता (गुण प्रशंसा) -इन चार के योग से 52 प्रकार का
लोगों के आगमन पर खडे होना, सम्मुख जाना इत्यादि। हैं।210
गृहागत की भोजनादि से अतिथि-पूजा करना आदि सब भगवती आराधना में सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति
लोकोपचार के अन्तर्गत माना गया है ।218 लोकोपचार विनय के सात पूजादि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को दर्शनविनय
अवान्तर भेदकहा है।
अभिधान राजेन्द्र कोश में लोकोपचार के सात प्रकारों पर प्रकाश डाला चारित्र विनय :
गया हैंविनय का तीसरा भेद है चारित्र-विनय । इसके पाँच भेद ।
1. अभ्यासवृत्तिता - सामान्यतः अभ्यास का अर्थ होता है प्रयास
करना, किन्तु यहाँ इसका अर्थ है - गुरु आदि के सन्निकट हैं - सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात - इन पाँच चारित्रभेदों और चारित्रसंपन्न आत्माओं के
रहना। प्रति श्रद्धा रखना व उसका विनय करना चारित्रविनय है। भव्य
2. परच्छंदानुवर्तिता - गुरुजनों के स्वाभावानुकूल रहना; उनकी इच्छा प्राणियों के सामने उनकी चर्चा-परिचर्चा करना,गुणगान करना भी
के अनुरूप वर्तन करना। चारित्रविनय के अन्तर्गत आता है। 12 भगवती आराधना में विषय
3. कार्यहेतु - किसी कार्य को संपन्न करने हेतु विनय करना। कषाय का त्याग एवं समिति-गुप्ति के पालन को चारित्रविनय कहा
4. कृतप्रतिक्रिया - कृत उपकारों की स्मृति रखना। उनके प्रति है।213 त्रिगुप्ति विषयक विनय भेदों का स्वरुप निम्न प्रकार से
कृतज्ञ रहते हुए उनके उपकार से अऋण होने का प्रयास करना। समझा जा सकता हैं
5. गवेषणा - आत्मा की खोज करना अथवा रुग्णादि आर्त प्राणियों मनोविनय :
की रक्षा हेतु उनकी गवेषणा करना।
6. देश-कालानुज्ञता - देश-काल की परिस्थिति के अनुसार कार्य गुरुजनों का मन से विनय करना, मन पर संयम रखना, मनो-विनय कहलाता है। इसके दो भेद हैं - प्रशस्तमनोविनय और
करना या समयोचित प्रवृत्ति करना। अप्रशस्तमनोविनय । मन के शुभ भावों से सुवासित करना प्रशस्तमनोविनय
7. सर्वत्र अप्रतिलोमता - किसी के विरुद्धाचरण न कर सभी कार्यों है और इसके विपरीत आचरण करना अप्रशस्तमनोविनय हैं।214
में अनुकूल रहना, यह विनय की व्यापक पृष्ठभूमि हैं। वचन विनय :
(2) अर्थ विनय :वाणी को संयम रखना, उस पर अनुशासन रखना, वचन
धन-सम्पत्ति आदि के प्रलोभन से प्रेरित होकर राजा, विनय है। वचन-विनय भी दो प्रकार का है - प्रशस्तवचनविनय
श्रीमंत, राज्याधिकारी या सम्पत्तिशालियों का अभ्युत्थान, अंजलि, और अप्रशस्तवचनविनय है। हित-मित, सौम्य, सुन्दर, सत्य वाणी
आसन-दानादि द्वारा विनय सेवा-सत्कार व सम्मान करना अर्थ से उनका सम्मान करने को प्रशस्त वचन-विनय कहते हैं। और तत्प्रतिकूल
विनय कहलाता हैं। आचरण करना जैसे कर्कश, सावध, छेदकारी आदि भाषा का उपयोग
(3) काम विनय :करना अप्रशस्तवचनविनय कहलाता हैं।215
काम-पिपासा की सम्पूर्ति हेतु या भोग-सामग्री प्राप्त करने के कायविनय :
209. अ.रा.पृ. 1/283; भगवती सूत्र-25/7 काय अर्थात् शरीर। इसलिए शरीर से संबंधित होने वाली
210. अ.रा.पृ. 6/1153; एवं 6/1175; दशवैकालिक सूत्र सटीक-9/2
211. भगवती आराधना-114 समग्र प्रवृत्तियों को काय-विनय के अन्तर्गत समाहित किया गया
212. अ.रा.पृ. 3/1175; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25/7 है। कायविनय में विवेक की प्रमुखता बतायी गई है। उठना-बैठना,
213. भगवती आराधना-114 चलना-फिरना, शयन करना आदि प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्वक करना 214. अ.रा.पृ. 6/11543 औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25/7 काय-विनय है । प्रशस्तकाय विनय और अप्रशस्त कायविनय से काय
215. अ.रा.पृ. 6/1154; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25 विनय के दो भेद हैं। शरीर से गुरुजनों की भक्ति और विवेकपूर्वक
216. अ.रा.पृ. 6/1154; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-2511
217. अ.रा.पृ. 6/1152, 11533; दशवैकालिक सूत्र सटीक-9/1; मूलाचार-580 की गई शारीरिक प्रवृत्तियों को प्रशस्तकायविनय कहते हैं। शरीर के
218. अ.रा.पृ. 6/1153; दशवैकालिक सूत्र सटीक-9/1 अविवेक-अशिष्टतापूर्वक अशुभ कार्यो में प्रवृत्त करना अप्रशस्तकाय- 219. अ.रा.पृ. 6/1154; औपपातिक सूत्र-20; भगवती सूत्र-25/7
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