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[326]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन लिए वैश्यादि कुलीन स्त्रियों के समक्ष नम्रता दिखाना, उनकी खुशामद
एक और परिभाषा दी गई है - "भक्तादिभिर्धर्मोपग्रया प्रशंसा करना व धनादि द्वारा उनकी सेवा-सत्कार करना, यह सब हकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणे । 222 धर्म साधना में सहारा देनेवाली आहारादि काम विनय हैं।
वस्तुओं द्वारा साध्यता पहुँचाना, वैयावृत्त्य कहलाता हैं। (4) भय विनय :
जैन परम्परा में वैयावृत्त्य का अत्यधिक महत्त्व बताया गया किसी भी भयवश अथवा अपराध हो जाने पर श्रीमंत, हैं। वह वैयावृव्य दस प्रकार का हैं - यथा आचार्य-उपाध्यायशेठ, शिक्षक, न्यायाधीश, गुरुजन-धर्माचार्यादि का विनय करना, भय- स्थविर-तपस्वी-शैक्ष (नवदीक्षित)-रोगी-साधर्मिक-कुल (एक आचार्य विनय कहलाता है। प्रायश्चित से बचने के लिए गुरुजनों के प्रति के शिष्यों का समुदाय)-गण (एक अथवा दो से अधिक आचार्य नम्रता प्रदर्शित करना भय-विनय है।
के शिष्यों का समुदाय)-और संघ का वैयावृत्त्य करना। इस प्रकार (5) मोक्ष विनय :
वैयावृत्त्य के ये मुख्य दस पात्र हैं।17 जैन धर्म में मोक्ष विनय गुरुजनों के प्रति नम्रता के अर्थ
अभिधान राजेन्द्र कोश में सेवा का महत्त्व प्रतिपादित करते तक ही सीमित नहीं है। वह मोक्ष विनय को धर्म का मूल और
हुए यह भी कहा है प्रसन्न व शान्त भाव से रुग्ण साथी की परिचर्या उसका परमफल मोक्ष मानता है। तात्पर्य यह है कि जो आचरण
करें।224 व्यवहार आंशिक या सर्वांश रुप से कर्मो के बंधन से मोक्ष-प्राप्ति वैयावृत्त्य के प्रकार :का हेतु हो, उसे मोक्ष-विनय कहते हैं। इसके अतिरिक्त देव-गुरु,
उपर्युक्त आचार्य, उपाध्याय स्थविरादि दस में से प्रत्येक धर्म-शास्त्र, मोक्ष-मार्ग की साधना और आचारवान् के प्रति मोक्ष
की तेरह प्रकार से वैयावृत्त्य (सेवा) की जा सकती हैं। अत:एव प्राप्ति के उद्देश्य से नम्रता-विनय का प्रयोग करना भी मोक्ष-विनय प्रस्तुत अभिधान राजेन्द्र कोश में वैयावृत्त्य के 130 भेद वर्णित हैं225 | के अन्तर्गत समाहित है। जैन परम्परा में केवल आत्मविनय या मोक्ष- यथाविनय को ही स्वीकार किया गया हैं।
(I) आहार देना (2) पानी प्रदान करना (3) शयन के लिए मोक्ष-विनय मुमुक्षु आत्माओं में ही होता है। वह भय, संस्तारक (संथारा) प्रदान करना (4) बैठने के लिए आसनादि प्रदान प्रलोभनादि के सामने नहीं झुकता; वह तो केवल सदगुणो के समक्ष करना (5) गुरुजनों का प्रतिलेखन करना (6) पाँव-पोंछना (7) रुग्णावस्था नतमस्तक होता हैं ।
में औषध का प्रबन्ध करना (8) मार्ग में थकावट आदि होने पर सहारा उक्त विवक्षित विनय के प्रकारों में आत्मलक्षी विनय की। देना (9) राजादि के क्रुद्ध होने पर आचार्य-संघ आदि की रक्षा करना वास्तविक विनय है, क्योंकि उसमें भावना पवित्र रहती है और वृत्तियाँ (10) शरीर, उपधि आदि का संरक्षण करना (11) अतिचार विशुद्धि विशुद्ध।
के लिए प्रायश्चित करना (12) ग्लान को समाधि उत्पन्न करना ओर विनय का महत्त्व :
(13) उच्चारप्रस्रवण (मल-मूत्र) आदि के पात्रों की व्यवस्था करना । विनय हमारे समग्र धर्माचरणों की नींव है। अतः साधक
आचार्यादि उक्त गुणीजनों की वैयावृत्त्य (सेवा) करने से का बड़े से बडा और छोटे से छोटा आचरण विनयपरक होना चाहिए।
महानिर्जरा और निर्वाण प्राप्त करता हैं ।226 वैयावृत्त्य से तीर्थंकर नाम अभिधानराजेन्द्र कोश में 'धम्मस्स विणओ मूलं' बताकर वृक्ष की
कर्म का भी बंध होता हैं।227 उपमा से उसे अभिव्यक्त करते हुए कहा है
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि गुणग्रहण के परिणाम, वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात्
श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, पात्र प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि का पुनः शाखाएँ निकलती हैं, शाखाओं में से प्रशाखाएँ फूटती हैं और इसके
संधान, तप, पूजा, तीर्थ, अव्युच्छित्ति, समाधि, जिनाज्ञा पालन, संयम, बाद पत्र-पुष्प, फल और रस उत्पन्न होता है। इसी तरह 'विनय'
सहाय, दान, निर्विचिकित्सा, प्रभावना, कार्य निर्वाहण - वैयावृत्त्य धर्म रुपी वृक्ष का मूल है और उसका सर्वोत्तम रस है -मोक्ष220 |
के ये अठारह गुण हैं।228 विनय मोक्ष का आदिमूल है क्योंकि विनय से ज्ञान, ज्ञान वैयावृत्त्य का फल :से दर्शन (सम्यक्त्व), दर्शन (श्रद्धा) से दर्शनयुक्त चारित्र (आचरण)
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, वैयावृत्त्य और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष में अव्याबाध-सुख
करनेवालों को कर्मों की महानिर्जरा होती है। जैसे विशिष्ट ज्ञानी के है। विनय का फल शुश्रूषा है, शुश्रूषा का फल श्रुतज्ञान है, ज्ञान
द्वारा वैयावृत्त्य की जाती है वैसे वैसे अधिकाधिक कर्मनिर्जरा होती का फल विरति है, विरति का फलआस्रव-निरोध है, आस्रव-निरोध
है। यथा दशवैकालिक के ज्ञाता की अपेक्षा आवश्यकज्ञानी यदि का फल संवर है, संवर का फल तपोबल है, तप का फल निर्जरा है, निर्जरा से क्रियानिवृत्ति होती है, क्रियानिवृत्ति से साधक अयोगी
220. अ.रा.पृ. 6/1170 एवं 5/119333; दशवैकालिक-9/2/1-2
221. अ.रा.पृ. 6/1451; स्थानांग-3/3188 बनता है अर्थात् योगनिरोध करता है, योगनिरोध से भव-परम्परा का
222. अ.रा.पृ. 6/1451; स्थानांग टीका-5/1 क्षय होता है, भव-सन्तति (परम्परा) नष्ट होने से मोक्ष प्राप्त होता है।
223. अ.रा.पृ. 6/1451; व्यवहार सूत्र-10 वाँ उद्देश; स्थानांग-10/144; तत्त्वार्थ अतः सर्वकल्याण का कारण विनय हैं।
सूत्र-9/24; मूलाचार 390 वैयावृत्य तप (सेवा) :
224. अ.रा.पृ. 3/894; सूत्रकृताङ्ग-1/3/3/13; धवला टीका-8/3; चारित्रसार
152/1 वैयावृत्य का शाब्दिक अर्थ करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश
225. अ.रा.पृ. 6/1451; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/606 में कहा गया है - "व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यम् ।"221
226. अ.रा.पृ. 6/1451 जिस तप में व्यावृत अर्थात् अपनी इच्छाओं, स्वार्थो, कषायों आदि
227. अ.रा.पृ. 6/1460; उत्तराध्ययन-29/43 से हटने की क्रिया हो, वह वैयावृत्त्य हैं।
228. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/606; भगवती आराधना, मूल-309, 310
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