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________________ [380]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में केवल एक बार भोजन करने से अग्निहोत्र का फल प्राप्त होता है। सूर्य के अस्त होने के पूर्व तक भोजन ग्रहण करने का नित्य नियम रखने पर तीर्थयात्रा का फल होता हैं। इसके अतिरिक्त रात्रि में हवन, स्थान, तर्पण, देवता पूजन और दान का विधान नहीं हैं। आयुर्वेद में रात्रिभोजन त्याग : ___ आयुर्वेद में स्वास्थ्य की दृष्टि से सकारण रात्रि भोजन का निषेध किया गया है। वहाँ कहा गया है कि, शरीर में स्थित हृदय नामक अवयव जो कि, कमल के समान है रात्रि में संकुचित हो जाता हैं क्योंकि रात्रि में कमल को विकसित करनेवाला तीव्र सूर्य प्रकाश नहीं रहता। हृदय का संकोच हो जाने से रक्त प्रवाह की गति मंद हो जाती हैं। इससे पाचकाग्नि मंद हो जाती हैं। और सिद्धांत यह है कि, सभी निज रोग मंदाग्नि से होते हैं - "रोगा: सर्वेऽपि मन्दाऽग्नौ, सुतरामुदराणि च।" दूसरे सूक्ष्म जीव खा लिये जाने से भी रात्रि भोजन निषिद्ध है, क्योंकि ये सूक्ष्म जीव अनेक रोगों को उत्पन्न करनेवाले होते हैं। (15) बहुबीज : जिन सब्जियों और फलों में दो बीजों के बीच अन्तर न हो, वे एक दूसरे से सटे हुए हों, गूदा थोडा और बीज बहुत हो, खाने योग्य पदार्थ थोडा और फेंकने योग्य अधिक हो, जैसे कपित्थ (कवीट) का फल, खसखस, टिंबरु, पंपोट आदि को बहुत बीज कहते हैं। उनके खाने से बीज अधिक होने से ज्यादा हिंसा का पाप लगता हैं । खसखस आदि में जीवोत्पत्ति भी बहुत जल्दी और अधिक होती हैं। इनको खाने से पित्त-प्रकोप होता है और आरोग्य की हानि होती है अतः ये त्याज्य हैं।110 (16) अज्ञात फल (अनजान फल, पुष्पादि): हम जिसका नाम और गुण-दोष नहीं जानते वे पुष्प और फल अभक्ष्य कहलाते हैं। जिनके खाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं तथा प्राणनाश भी हो सकता है। जैसे अनजान फल नहीं खाने के नियम से वंकचूल ने अपने प्राण बचाये और उसके सभी साथी किंपाक के जहरीले फल खाने से मृत्यु का शिकार बन गए ।।।। (17) सन्धान : जिसके वर्णादि बदल गये है वैसा संधान नरक का तीसरा द्वार है। कोई अचार दूसरे दिन तो कोई तीसरे दिन तो कोई चौथे दिन अभक्ष्य हो जाता है क्योंकि उसमें अनेक त्रस जन्तु उत्पन्न होते हैं और उसी में मरते हैं। जिन फलों में खट्टापन हो अथवा वैसी वस्तु में मिलाया गया हो एसे अचार में तीन दिनों के बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं परन्तु आम, नींबू (लीम्बू) आदि वस्तुओं के साथ न मिलाया हुआ गूंदा, ककडी, पपीता, मिर्च आदि का अचार दूसरे दिन ही अभक्ष्य हो जाता है। जिस अचार में अग्निभर्जित (सिकी) हुई मैथी डाली गई हो वह भी दूसरे दिन अभक्ष्य हो जाता है। अच्छी तरह धूप में सुखाने के बाद तेल, गुड आदि डालकर बनाया हुआ अचार भी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श न बदले तब तक ही भक्ष्य है, बाद में अभक्ष्य हो जाता है। फफूंद आदि आने के बाद आचार अभक्ष्य माना गया हैं। अतः अनेक त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए अचार का त्याग करना लाभदायी हैं।12। अनन्तकाय13 : अनन्तकाय नरक का चौथा द्वार है। जिसके एक शरीर में अनंत जीव हो, जिसकी नसें, साँधे, गाँठ, तन्तु आदि न दिखते हो, काटने पर जिसके समान भाग होते हो, काटकर बोने पर पुनः उग जाते हों उसे अनन्तकाय कहतेहैं। अथवा जिसके टुकडे करने पर एक समान चक्राकार भङ्ग दिखते हों या समान टुकडे होते हों वह अनन्तकाय है। अनन्तकाय 9 प्रकार से होते हैं (1) मूल (2) तना (3) छाल (4) शाखा (5) अविकसित नई पुष्पकलिका और नये कोमल पत्ते (प्रवाल) (6) पत्ते) (7) पुष्प (8) फल और (9) बीज। बत्तीस अनन्तकाय : (1) सूरण - एक प्रकार का कंद (2) वज्रकंद - गराडू (3) आर्द्रक - अद्रक (अदरक) (4) हरिद्रा - हरी हल्दी (5) कर्नूर - हरा कचूरा (6) शतावरी - एक प्रकार की लता (औषधि) (7) वरालिका - एक प्रकार की लता (8) गंवारपाठा - घृतकुमारी (9) थूवर (स्तूही) - थोर (10) गुडूची - हरी गलोय/गिलोय (11) लहसुन - लसण, प्याज (12) वंशकरेला - बाँस के कोमल पत्ते (13) गाजर - गाजर (14) लवणक - लुणियां की भाजी (15) पद्मिनीकंद - लोडिये के भाजी (16) गिरिकार्णिका - गरमर (17) किसलय - पत्तों के कौंपल (18) खरिंसुका - खरसुआ (19) थेग - थेग की भाजी (20) मोथा - हरा मोथा (जड) (21) छल्ली - लुण वृक्ष की छाल (22) खिल्लहड - खिलोडा कंद (23) अमृतबेल - अमरबेल (बिना जड, बिना पत्ते की होती है) (24) मूलक - मूला के पञ्चाङ्ग (मूला, मूली के पत्ते, मूली के पुष्प, मूली के बीज, मूली के फल अर्थात् मोगरी, छोटे-छोटे मोगरे)। (25) कुकुरमुत्ता - छत्रटोप (छत्रक - मशरुम) (26) अंकुर - अंकुरित धान 110. अ.रा.पृ. 2/929 11. वही ___112. अ.रा.पृ. 2/929; 113. अ.रा.पृ. 1262 से 264; प्रज्ञापना सूत्र 1/1 से 10 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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