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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [379] और (5) कठ गूलर - इन पाँचों के फलों में अगणित बीज और (2) इसी प्रकार खाद्य फल खजूर आदि में भी अंदर गूटली के असंख्य सूक्ष्म त्रस जीव होते हैं। इनके खाने से न तृप्ति मिलती
उपर सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं जो रात्रि में दिखाई नहीं है, न शक्ति। और यदि इन फलों में के सूक्ष्म जीव मस्तिष्क में
देते अतः शुष्क अथवा आर्द्र (गीले) फलों का सेवन भी प्रवेश कर जाये तो मृत्यु भी हो सकती हैं; रोगोत्पत्ति की तो शतप्रतिशत हिंसा का कारण होता हैं। आशंका रहती हैं। अत: इनका त्याग करना चाहिए।
(3) बिजली आदि का तीव्र प्रकाश होने पर भी रात्रि में उत्पन्न (10) हिमा03 (बर्फ) :
होनेवाले सूक्ष्म त्रस जीव नष्ट होते ही हैं। और बिजली के छाने या अनछाने पानी को फ्रीज में रखकर/जमाकर बर्फ
प्रकाश में भी असंख्य जीवों की उत्पत्ति होती हैं। बनाया जाता हैं जिसमें कण-कण में असंख्य जीव है अतः बर्फ
(4) अत्यन्त सावधानी रखने पर भी त्रस-स्थावर घात की कल्पना मिलाकर बनाये जानेवाले शरबत, आइस्क्रीम, आइसफूट आदि सभी
न होने पर भी रात्रिभोजन की आसक्ति, जो रागात्मिका होती पदार्थ अभक्ष्य है। इनके भक्षण से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि रोगों की
है वह आत्मा के उपयोग की विराधिक होने से हिंसा का उत्पत्ति होती हैं। बर्फ आरोग्य का शत्रु है अतः त्याज्य हैं।
दोष लगता ही हैं। (11) विष4 (जहर) :
रात्रि भोजन त्याग सूर्य के उदय और अस्त की अपेक्षा खनिज, प्राणिज, वनस्पति और मिश्र भेद से विष चार
करता हैं किन्तु सूर्य प्रकाश की उपस्थिति न होने पर अंधकार प्रकार का होता हैं । संखिया, वच्छनाग, कालकूट, अफीम, हरताल,
में दीपकादि के प्रकाश में किया गया भोजन भी रात्रि भोजन धतूरा आदि विषयुक्त पदार्थ हैं, जिन्हें खाने से मनुष्य की तत्काल
है और नियम भंग और माया के कारण रात्रि भोजन से भी अधिक मृत्यु भी हो सकती हैं या भ्रम, दाह, कंठशोष इत्यादि रोग उत्पन्न होता है। बीडी, तम्बाकु, गाँजा, चरस, सिगरेट आदि में रहा विष
रात्रि भोजन नरक का प्रथम द्वार हैं। अनेक प्रकार के मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर अल्सर, टी.बी. केंसर इत्यादि रोगों
जीवों की हिंसा की संभावना और इस लौकिक परलौकिक अनेक को उत्पन्न करता है अत: स्व-पर घातक होने से विष त्याज्य हैं। (12) करक105 (करा, ओला) :
दुष्ट दोषयुक्त होने से रात्रि भोजन त्याज्य हैं। निशीथ चूर्णि में भी वर्षाऋतु में जो ओले गिरते हैं इसमें कोमल, कच्चा, अनछना
ऐसा ही कहा है की, रात्रि को भोजन करते समय यदि चींटी आ
जाय तो बुद्धिनाश, जूं से जलोदर, मक्खी से उल्टी, मकडीयां, कानखजूरे जमा हुआ पानी रहता हैं अतः बर्फ के समान इसमें भी सभी
से कोढ रोग, काँटा या लकडी से गले में पीडा, बिच्छु से तालु दोष होने से इसका त्याग करना चाहिए।
भेदन होता है तथा बाल से आवाज खराब होती हैं। (13) मिट्टी (मृज्जाति सभी तरह की मिट्टी) :
आध्यात्मिक दृष्टि से रात्रिभोजन में इतना पाप लगता है मिट्टी अनेक प्रकार की और कई रंगों में होती हैं। मिट्टी के कण-कण में असंख्य पृथ्वीकायिक और वनस्पतिकायिक त्रस
कि, जिसकी कल्पना भी करना मुश्किल है। आचार्यश्री जिनहर्षसूरिने
रात्रिभोजन करने से लगते पाप का थोडा सा वर्णन करते हुए रात्रिभोजन जीव होते हैं। भगवती सूत्र में कहा है कि, मिट्टी को वज्रमय पृथ्वी पर वज्रमय पत्थर से इक्कीस बार पीसने पर भी पृथ्वीकाय के किसी
के रास में कहा है कि, "असंख्य वर्ष का आयुष्य हो और 100
मुख और 100 जिह्वा हो तो भी पूरी तरह कथन न हो सके इतने जीवों को तो इस पत्थर का स्पर्श भी नहीं होता अतः नमक भी
पाप रात्रिभोजन के है ।108 छियानवें (96) भव तक पापी (मच्छीमारादि) अग्नि से पक्का करके ही वापरना चाहिए, अन्य किसी भी तरह से
व्यक्ति जीवों का घात करे उतना पाप एक सरोवर शोषने पर होता नमक पक्का नहीं होता (नमक भी 'खार' रुप मिट्टी होने से उसमें असंख्य जीव रहते हैं)
है। 101 भव तक सरोवर शो (सुखावें) उतना पाप एक बार दावानल
(दव) लगाने में होता है। 108 भव तक दावानल लगाने में उतना मिट्टी खाने से पथरी, पाण्डुरोग, सेप्टिक, पेचिश जैसी भयंकर
पाप एक कुवाणिज्य में होता है। 144 भव तक कुवाणिज्य करें उतना बीमारियाँ होती हैं। अतः मिट्टी अभक्ष्य हैं इसलिए इसका त्याग
पाप एक जूठा कलंक देने में होता है। 151 भव तक जूठे कलङ्क करना चाहिए। (14) रात्रि भोजन107 :
देने जितना पाप एक परस्त्री सङ्ग से होता है। 9900 भव तक परस्त्रीसङ्ग जैन धर्म के साथ-साथ अन्य सभी संप्रदायों में वर्णित
जितना पाप एक रात्रिभोजन में होता है।109 धर्म मात्र अहिंसा मूलक हैं। यद्यपि जीवन निर्वाह में अनेक स्थावर
वैदिक परम्परा में रात्रि भोजन त्याग :जीवों के साथ-साथ प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने पर भी अनजाने में त्रस __वैदिक परम्परा में भी रात्रि भोजन त्याग का विधान आग्रह जीवों की भी हिंसा होती हैं। इस हिंसा को न्यूनतम स्तर पर लाने देकर किया गया हैं - स्कंद पुराण में कहा गया है कि, "दिन के लिए अवधानपूर्वक (सावधानी से) स्थावर एवं त्रस जीवों की 103. वही 2929. 2/913: भगवती सूत्र 9/23 हिंसा रोकने के लिए रात्रिभोजन त्याग का प्रतिपादन किया गया हैं। 104. अ.रा.पृ. 2/929 उसी को स्फुट रुप से समझाते हुए यह बताया गया है कि रात्रि
105. वही
106. अ.रा.पृ. 2/929; भगवती सूत्र-19/3 भोजन में भिन्न-भिन्न प्रकार से जीवों की हिंसा होती हैं। जैसे -
107. अ.रा.पृ. 2/929; योगशास्त्र 3/48 से 70 (1) दिन में पकाये हुए अन्नादि में पाकजात हिंसा न होने पर
108. रात्रिभोजननो रास पृ. 14 भी सूक्ष्म पिपीलिकादि जीवों की हिंसा हो सकती हैं और 109. वही-ढाल-७ पृ. 15-ले.जिनहर्षसूरि; यह पापफल श्री कुंथुनाथ जिनेश्वरने सूक्ष्म संमूच्छिम जीवों की हिंसा भी होती हैं।
समवसरण में कहा है - ऐसा लेखक का कथन है।
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