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________________ (2) शलज अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [381] (27) ठक्कवत्थु - बथुवे की भाजी (चलित रस), अभक्ष्य हैं। इनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती हैं। (28) सूकरकंद (सूकरवाल) - वाराही कंद, गृष्टि इनको खाने से आरोग्य की हानि होती हैं, असमय बीमारी आ सकती (29) पल्यंक - पालख हैं और मृत्यु भी हो सकती हैं। (30) कोमल इमली - बिना बीज की इमली मिठाई, खाखरे, आटा, चने दलिया आदि पदार्थों में (31) आलुक - सक्करकंद (शक्करिया) रतालु कालापेक्ष भक्ष्याभक्ष्य विवेक :(32) पिण्डालु - आलु (बटाट) कार्तिक सुदि 15 से फाल्गुन सुदि 15 तक हेमन्त ऋतु अनन्तकायिक जीवों की ये 32 संख्या उपलक्षणा मात्र है। में 30 दिन का, फाल्गुन सुदि 15 से आषाढ सुदि 15 तक ग्रीष्म इनकी जाति में आनेवाले अन्य भी पुष्प, मूल, फल, कन्दादि; जिसमें ऋतु में 20 दिन का और आषाढ सुदि 15 से कार्तिक सुदि 15 अनंतकाय के उपरोक्त लक्षण प्राप्त होते हो वे सभी अनंतकाय है अतः तक चातुर्मास में 15 दिनों तक का होता है। तत्पश्चात् ये सब अभक्ष्य त्याज्य है। इसके अलावा इस प्रकार की वनस्पतियाँ जो कि, त्रस जीवों माने गये हैं। आर्द्रा नक्षत्र के बाद आम, रायण (एक फलजाति) का आश्रय हैं, वे भी अभक्ष्य होने से त्याज्य हैं ।।14 जैसे - अभक्ष्य हो जाते हैं। फाल्गुन सुदि 15 से कार्तिक सुदि 15 तक (1) फूल गोभी - अत्यन्त सूक्ष्म पुष्प समूह एवं त्रस आठ महिने खजूर, खारक, तिल, मैथी आदि की भाजी, धनिया कृमियों का आश्रय पत्ती आदि अभक्ष्य माने जाते हैं। शलजम - शलजम का कंद जिसमें पानी का भाग है एसे नरम, रोटी, पूडी, पराठे आदि (3) गांठ गोभी - एक प्रकार का कंद तथा वासी पदार्थ दूसरे दिन और दही दो रात (16 पहर) के बाद सहजन - सूरजना की फली - त्रस जीवों का आश्रय अभक्ष्य माना जाता हैं। होने से इसके अलावा बाजारु आटे के पदार्थ, बिना शक्कर मिलाये प्याज - लहसुन के पत्ते - ये भी तीव्र गंधवाले होने या बिना सेका वासी मावा, सोडा, लेमन, कोकोकोला, औरेंज आदि से वायुकायिक जीवों और वायु में रहनेवाले सूक्ष्म त्रस बोतलों में भरे पेय (शरबत) तथा जिलेटीनयुक्त पदार्थ अभक्ष्य हैं। जीवों के घातक होते हैं, अत: त्याज्य हैं। (21) तुच्छफल120 :मोगरा - मूली का फल है जो अनंतकाय हैं । शास्त्रों जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम और फेंकने योग्य अधिक हो, में मूली के पाँचों अङ्ग-मूला, डाली, पत्ते, फूल और जिसके खाने से न तृप्ति होती है न शक्ति प्राप्त होती है एसे कोल (छोटे फल अभक्ष्य माने गये हैं। झरबेरी के बेर), बदरी (वृक्ष जाति के बेर), पीलु, गोंदनी (श्लेष्मातक), शहतूत (शेतुर) - रेशम के कीडे का आश्रय होने से जामुन, सीताफल इत्यादि पदार्थ तुच्छफल कहलाते हैं। सिंघाडा- ये बिना बोये ही उग जाते है।जहाँ तालाब इनके बीज या कूचे फेंकने से उन पर चीटियाँ आदि अनेक में सिंघाडे उत्पन्न होते हैं वहाँ से निकालने में सिंघोडे जीवजंतु आते हैं और झूठे होने के कारण संमूच्छिम जीव भी उत्पन्न के काँटो से असंख्य त्रस जीवों की हिंसा होती हैं। होते हैं। पैरों के नीचे आने से उन जीवों की हिंसा भी होती हैं। और समभंग होने से इसे अनन्तकाय मानते हैं तथा अतः इनके भक्षण का निषेध किया गया हैं। अतिशय मीठे होने के कारण इसमें अतिशीघ्र त्रस द्विदल :जीवों की उत्पत्ति हो जाती है अतः अभक्ष्य है। जिसमें से तेल न निकलता हो, दो समान भाग होते हों अनंतकाय का भक्षण करने से बुद्धि विकारी, तामसी और और जो पेंड के फलरुप न हों - एसे दो दलवाले पदार्थों को कच्चे जड बनती है, धर्मविरुद्ध विचार आते है।15, जिनाज्ञा भङ्ग का दोष दूध-दही या छाछ में / के साथ एकत्र मिलाने से तुरन्त द्वीन्द्रिय लगता है, विसूचिका आदि रोग होते हैं और अजीर्ण से मृत्यु भी जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। जीवहिंसा के साथ-साथ आरोग्य हो सकती हैं या अन्य रोगों का भी उद्भव हो सकता हैं। अतः भी बिगडता है अतः ये अभक्ष्य है। जैसे - मूंग, मोठ, उडद, चना, जीव हिंसा और आत्महिंसा का कारण होने से अनंतकाय अवश्य अरहर (मसूर), वाल, चँवला, कुलथी, मटर, मैथी, गँवार तथा इनके त्याग करना चाहिए।।16 हरे पत्ते (भाजी), सब्जी, आटा, दाल, और इनकी बनी हुई चीजें, (19) वृन्ताक (बैंगन) : जैसे मैथी का मसाला, अचार, कढी, सेव, गाँठिया, खमण, ढोकला, बैंगन में असंख्य छोटे-छोटे बीज होते हैं। उसकी टोपी पापड, बडी बूंदी, बडे भजिये आदि पदार्थो के साथ कच्चा दही/ डंठल में सूक्ष्म त्रस जीव भी होते हैं। बैंगन खाने से तामस भाव छाछ या कच्चा दूध मिश्रित हो जाने पर अभक्ष्य हो जाते हैं। अतः जागृत होता है, वासना/उन्माद बढता है, मन धृष्ट होता है, निद्रा श्रीखंड, दही, मटे (छाछ) के साथ दो दलवाली चीजें नहीं खाना व प्रमाद भी बढते हैं, बुखार व क्षय रोग होने की संभावना बढती 114. अ.रा.पृ. 1/264 हैं, ईश्वर-स्मरण में बाधक बनता है। अत: जैनधर्म तथा हिन्दु-पुराणों 115. जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ-वाचना पृ. 17 की दृष्टि से भी इसके भक्षण का निषेध किया गया हैं ।। 116. अ.रा.पृ. 1264 117. अ.रा.पृ. 2/929 (20) चलित रस18 : 118. अ.रा.पृ. 2/929 जिस पदार्थो का रुप, रस, गंध, स्पर्श बदल गया हो या 119. वही बिगड गया हो, वे 'चलित रस' कहलाते हैं। जैसे - सडे हुए पदार्थ, 120. अ.रा.पृ. 929 वासी पदार्थ, कालातीत पदार्थ, जिसमें फफूंद आ गयी हो, एसे पदार्थ 121. वही a Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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