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________________ [382]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चाहिए। दूध या दही को अच्छी तरह से (अंगुली जले एसा) गरम करने के बाद उनके साथ द्विदल खाने में दोष नहीं है। भोजन के समय एसे खाद्य पदार्थो विशेष ध्यान रखना जरुरी हैं। होटल में दहीबडे, बूंदीवाला रायता, खमण-ढोकले, इडली-ढोंसा, आदि कच्चे दही के बनते हैं, अतः अभक्ष्य होने से त्याज्य हैं। सचित्त22 परिमाण आदि चौदह नियम : भोगोपभोग परिमाण व्रत में उपभोग-परिभोग के जिन पदार्थो की आवश्यकतानुसार उपभोग करने की छूट रखी है उनमें भी प्रतिदिन, प्रतिरात की आवश्यकतानुसार से अधिक का सुबह से शाम तक या शाम से सुबह तक के लिए त्याग या संक्षेप करने के नियम को सचित्त (सचित्त का परिमाण) आदि नियम कहते हैं। जैनागमों में एसे 14 नियम बताये गये हैं जो निम्नानुसार हैं "सचित्त दव्वविगई, वाणह तंबोल वत्थ कुसुमेसु।। वाहणसयणविलेवण-बंभ-दिशि-न्हाण-भत्तेसु॥ सचित : अप्रासुक आहार - पानी उपयोग करने की मात्रा। दव्व : भोजन में उपयोग में लेने के द्रव्य की संख्या। विकृति : चार महाविगई : मद्य, मांस मधु और मदिरा का सर्वथा त्याग, और घी-तेल-दूध-दहीगुड/शक्कर और कडाविगई इन छ: विगई में से एक या एकाधिक का त्याग या वापरने की मात्रा। वाणह : जूते-चप्पल, मोजे आदि की संख्या । तंबोल : मुखवास की मात्रा एवं पदार्थ (लोंग, इलायची, सौफ आदि) का परिमाण । वत्थ : वस्त्रों की संख्या। कुसुम : पुष्प, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ । वाहन : बैलगाडी, साईकिल, रीक्षा, कार, स्कूटर, नाव, हवाई जहाज आदि। शयन : सोने-बैठने हेतु आसन, बिस्तर, शाल, रजाई, चादर, तकिया, कुर्सी, चौकी, पलंग आदि । विलेपन : साबुन, क्रीम, चंदन, पावडर, महेंदी, हल्दी, कंकु आदि (मेकअप का सामान भी)। ब्रह्मचर्य : सर्वथा मैथुन त्याग या उसका समय परिमाण स्वदारा/स्व पुरुष संतोष परदारा त्याग । दिवामैथुन का त्याग/रात्रि की जयणा, परिमाण । दिशि : दशो दिशाओं में व्यापार या अन्य सप्रयोजन गमन की मर्यादा (सीमा)। स्नान : संपूर्ण स्नान और अल्प स्नान की संख्या में परिमाण (जिन पूजा, सूतकादि की जयणा)। भक्त : प्रासुक-अप्रासुक भोजन और पानी का प्रमाण । इन 14 प्रकारों से दिन भर या रात्रि भर में उपयोग में आनेवाले पदार्थो का यथायोग्य संख्या या मात्रा में प्रमाण निश्चित करना या संक्षेप करना -'14 नियम' धारण करना कहलाता है। इन नियमों को धारण करनेवाले व्रती साधक को इनके साथ ही असि, मसि और कृषि से सम्बन्धित उपकरणों का भी परिमाण निश्चित करना होता है, यथाअसि तलवार, कैची, गृहोपयोगी मशीनें, बिजली या अग्नि से संचालित साधन आदि। मसि लेखन, पठन-पाठन के साधन, कागज, कापी, पुस्तक, लेखनी, पेंसिल, पट्टी, पेन आदि। कृषि - कृषि के औजार-हल आदि। इन सभी के उपयोग का प्रमाण करके संख्या या वजन तय करना चाहिए एवं प्रतिदिन सुबह-शाम उसका स्मरण नियम भंग न हो-इसका ध्यान रखना चाहिए। इन नियमों को धारण करने से श्रावक अनावश्यक आरंभ और निरर्थक कर्मबंधन से बचता हैं। अहिंसा अणुव्रत के पालक श्रावक को पाँच कर्म, पाँच वाणिज्य और पाँच सामान्य का त्याग करना चाहिए क्योंकि ये महासावध कर्म होने से इनसे निश्चित ही दुर्गति होती हैं। पन्द्रह कर्मदान : आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में पन्द्रह कर्मादानों का वर्णन अग्रलिखित प्रकार से किया है -"कम्मओणं समणोवासएणं इमाइं पन्नरसकम्मादाणाई जाणिअव्वाइंन समायरिअव्वाइं तं जहा इंगालकम्मे 1, वणकम्मे, 2, साडीकम्मे 3, भाडी कम्मे 4, फोडिकम्मे 5, दंत वाणिज्जे 6,लक्ख वाणिज्जे 7, रसवाणिज्जे 8, केसवाणिज्जे 9, विसवाणिज्जे 10, जंतपीलणकम्मे 11, निलंछणकम्मे 12, दवग्गिदावणया 13,सरदहतलावसोसणया 14, असईपोसणया 151123 अभिधान राजेन्द्र कोश में इन कर्मादानों का यथास्थान निम्नानुसार परिचय दिया गया है, यथा(1) अंगारकर्म (इंगालकम्म) - कोयले आदि बनाकर बेचने का कार्य, ईंट भट्ठे चलाना, आँव में बर्तन पकाने का कार्य तथा अग्नि संबंधी भट्टी काम, लुहार काम इत्यादि आजीविका द्वारा अर्थोपार्जन करना 'अंगार कर्म' कहलाता हैं। (2) वन-कर्म - जंगल तुडवाना, जलाना, लकड़ियाँ कटवाकर बेचना, फल, फूल, सब्जी संबंधी व्यापार या जंगल काटकर साफ करना, उसका क्रय-विक्रय करना 'वन कर्म' कहलाता (3) शकट कर्म - बैलगाडी प्रमुख वाहनादि बनाकर बेचना। (4) भाटक कर्म - वाहन आदि किराये पर चलाने का व्यवसाय करना। (5) स्फोटक कर्म - खान खोदना या पत्थर फोडने का व्यवसाय करना, विस्फोट करवाना आदि स्फोटक कर्म है। (6) दन्तवाणिज्य - हाथी आदि के दाँतों का व्यवसाय करना। उपलक्षण से बाघ-नख, चमडे और हड्डी का व्यवसाय भी इसमें शामिल हैं। _(7) लाक्षावाणिज्य - लाख, साज (सर्जरस), साबुन, धावडी का व्यापार करना। (8) रस वाणिज्य - शहद, मदिरा, माँस, घी-तेल, मक्खन, गुड आदि का व्यापार भी इसमें सम्मिलित हैं। 122. 123. अ.रा.पृ. 2/930 अ.रा.पृ. 2/931; आवश्यक बृहद्धवृत्ति-अ.6; उपासक दशा-बालावबोध पृ. 19, 20 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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