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________________ [406]... पञ्चम परिच्छेद सदाचार भी कहा गया है", इतना ही नहीं, अपितु ब्रह्मचर्य के पालन के लिए आगे कहते हैं कि ब्रह्मचारी सभी स्त्रियों का स्मरण, संकल्प (विचार), प्रार्थना (इच्छा) और उनके साथ वार्तालाप का त्याग करें। 95 मनुस्मृति में भी गुरुकुलवास में ब्रह्मचर्य पालन का विधान किया गया है ।" विषयभोग से विषयत्याग को श्रेष्ठ माना गया है। 7 इतना ही नहीं, अपितु जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी को ही विद्या- दान के लिए पात्र माना गया है। गृहस्थ को भी माता, बहन तथा कन्या के साथ भी एकान्त में एक आसन पर बैठने का निषेध किया गया है।" अथर्ववेद में ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ और उत्कृष्ट तप कहा है। 100 पातंजल योगसूत्र में वीर्यलाभ को ब्रह्मचर्य कहा है। उसको (वीर्य को) बढाने से शरीर, इन्द्रियाँ और मन में विशेष शक्ति बढती है। 101 महाभारत में कहा है- ब्रह्मचर्य में सभी तीर्थ हैं, ब्रह्मचर्य में ही तप है, धैर्य है और यश भी इसी में निहित है । ब्रह्मचर्य में पुण्य, पवित्रता और पराक्रम है, ब्रह्मचर्य में स्वातंत्र्य और ईश्वरत्व भी प्रतिष्ठित है । 102 भीष्म पितामहने कहा है- जो इस संसार में आजीवन ब्रह्मचारी रहता है उसको इस संसार में किसी भी प्रकार का कोई भी दुःख नहीं आता । 103 छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है - 'तराजू के एक पलड़े में चारों वेद (वेदोपदेश) रखें जाय और दूसरे पलडे में ब्रह्मचर्य रखकर तोलने पर ब्रह्मचर्य का पलड़ा नीचे नीचे रहेगा । अर्थात् वेदोपदेश से भी ब्रह्मचर्य विशेष बलशाली है । एवं जिसे मौन (मुनि धर्म) कहा जाता है, वह ब्रह्मचर्य ही है 1104 धन्वन्तरि ने कहा है- ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य के दुर्गुणों का नाश होता है। जिसे उत्तम धर्म पालन करना हो उसे ब्रह्मचर्य पालना चाहिए। 105 महर्षि अरविन्दने ब्रह्मचर्य और योग को ही सुख का मार्ग कहा है। 106 महात्मा गाँधीने ब्रह्मचर्य को आरोग्य की मुख्य चाभी बताया है 1107 वैदिक तथा अन्य धर्म परम्पारएँ और प्रतिक्रमण : अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं, वैसे ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती, ऐसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक । मनुष्य स्त्री- पुत्र आदि कुटुम्ब के लिए चोरी आदि पाप कर्मों का संग्रह करता है, किन्तु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्त कर्मों का क्लेशमय फल भुगतना पडता है। वैदिक परम्परा में साध्यकृत्य में जिस यजुर्वेद के मंत्र का उच्चारण किया जाता है वह भी जैन प्रतिक्रमणविधि का एक संक्षिप्त रुप ही है। संध्या के संकल्प - वाक्य में ही साधक यह संकल्प करता है कि मैं आचारित पापों के क्षय के लिए परमेश्वर के प्रति इस उपासना को सम्पन्न करता हूँ । यजुर्वेद के उस मंत्र का मूल आशय भी यही है कि मेरे मन, वाणी, शरीर से जो भी दुराचरण हुआ हो उसका मैं विसर्जन करता हूँ | 108 ब्राह्मण परम्परा और द्वादशभावना : जैन परम्परा की तरह ही ब्राह्मण परम्परा में भी अनित्यादि द्वादश भावनाओं का वर्णन किया गया है 1. अनित्य भावना :- महाभारत में कहा है कि जीवन अनित्य है इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। कल किया जानेवाला काम आज ही पूरा कर लेना चाहिए। सायंकाल का कार्य प्रातः में ही कर लेना चाहिए क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम अभी पूरा हुआ या नहीं 1109 2. एकत्व भावना :- गीता में कहा है- इन्द्रियजेता जीवात्मा स्वयं ही स्वयं का मित्र और इन्द्रियों का दास स्वयं ही स्वयं शत्रु है अर्थात् कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है। 10 महाभारत में भी कहा है- मैं तो अकेला हूँ; यह शरीर भी मेरा नहीं हैं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये वस्तुएँ जैसे मेरी Jain Education International 3. 4. 5. 6. अन्यत्व भावना :- महाभारत में कहा है कि पुत्र-पौत्र, जाति-बांधव सभी संयोगवश मिल जाते हैं, उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढाना चाहिए क्योंकि उनसे विछोह होना निश्चित है । 112 गीता के 14 वें अध्याय में भी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के माध्यम से अन्यत्व भावना का सुंदर बोध कराया गया है। अशुचि भावना :- महाभारत के अनुसार यह शरीर जरा, मरण एवं व्याधि के कारण होने वाले दुःखों से युक्त है, फिर (बिना आत्मा - साधना के) निश्चिन्त होकर कैसे बैठा जा सकता है ? 113 आचार्य शंकरने भी कहा है- "यह देह मांस एवं वसादि विकारों का संग्रह है, हे मन ! तू बारबार विचार कर ! 114 अशरण भावना :- महाभारत में अशरण भावना का वर्णन करते जीव की अशरणता बताते कहा है कि जैसे सोये हुए मृग को बाध उठा ले जाता है, उसी प्रकार पुत्र और पशुओं से सम्पन्न एवं उसी में आसक्त मनुष्य को एक दिन मृत्यु उठाकर ले जाती है। 15 (तब कोई शरण/रक्षक नहीं है) । संसार भावना :- महाभारत में संसार के स्वरुप का वर्णन करते भीष्म पितामह ने कहा है कि "वत्स! जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाय, तब यह संसार कैसा दुःखमय है - यह सोचकर मनुष्य शोक को 94. वही, 8/29 95. वही, पृ. 891 96. मनुस्मृति, 1/111 97. वही, 2/95 98. वही, 2-115 99. मनुस्मृति 2 / 215 100. 'शाश्वत धर्म', ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 86 101. पातंजल योगसूत्र 102. महाभारत, शांतिपर्व 9 103. शाश्वत धर्म, ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 86 104. छान्दोग्य उपनिषद्, शाश्वत धर्म ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 88 105. वही, पृ. 88 106. वही, पृ. 85 107. वही, पृ. 37 108. कृष्णयजुर्वेद, दर्शन और चिन्तन भा. -2, पृ. 193 से उद्धृत 109. महाभारत, शांतिपर्व 175/16, 12, 15 110. गीता 6 / 5,6 111. महाभारत, शांतिपर्व 174 / 14,25 112. महाभारत, शांतिपर्व 113. महाभारत- शांतिपर्व 175 / 23 114. चर्पटपंजरिका स्तोत्र || 115. महाभारत, शांतिपर्व 175 / 18, 19 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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