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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [237] संचार को जीतने वाले, जितेन्द्रिय, जीवित, मृत्यु एवं अन्य भयों से 4 - चार कषाय से रहित मुक्त, परिषहजेता, सकल मैथुन, क्रीडा एवं संसर्ग से रहित, निर्मोही, 5 - पञ्च महाव्रत युक्त निरहंकारी, अननुतापी (किसी को पीडा नहीं पहुँचाने वाले), सत्कार 5 - पञ्चाचार पालक लाभ-अलाभ-सुख-दुःख-मान-अपमान को सहन करनेवाले, अचपल, 5 - पाँच समिति से समित असबल (दोष रहित), क्लेश रहित, निर्मल चारित्रयुक्त, दशविध आलोचना 3 - तीन गुप्ति के धारक दोषज्ञाता, अठारह प्रकार के आचार स्थान के ज्ञाता, आठ प्रकार के __'गुरुगुणषट्विंशत्षट्विंशिका' में आचार्य हेमतिलकसूरि (वृत्तिकार आलोचनाह के गुणों के उपदेशक, आलोचना योग्य सूत्र रहस्यों के आचार्य रत्नशेखरसूरि) ने प्रकारान्तर से आचार्य के छत्तीस गुणों का 36 ज्ञाता, अपरिश्रावी, प्रायश्चित देने में कुशल, मार्ग-कुमार्ग के ज्ञाता, प्रकार से (छत्तीस छत्तीसी) वर्णन किया है, जो निम्नानुसार है। अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणादि बुद्धि में कुशल, अनुयोगज्ञाता, नयज्ञ, गुरु/आचार्य के 36 गुण/छत्तीस छत्तीसी :उदाहरण हेतु-कारण-निर्देशन-उपमा-निर्युक्ति-लेख के आठ-आठ द्वारों 1. 4 प्रकार की देशना, 4 प्रकार की कथा, 4 प्रकार का धर्म, 4 के ज्ञाता, मुनियों को अनेक प्रकार के उपायपूर्वक आचारोपदेश करनेवाले, प्रकार की भावना, 4 प्रकार की स्मारणा (सारणादि), चार प्रकार इंगिताकार से इच्छित जाननेवाले अथवा अश्व के समान बिना देखे ही के ध्यान के प्रत्येक चार-चार भेद अर्थात (4x4)-16 प्रकार स्वच्छन्द शिष्यों के अभिप्राय को जाननेवाले, विकल्पविधि के ज्ञाता, का ध्यान इति 36 गुण। लिपि-गणित-शब्द-अर्थ-निमित्त-उत्पाद और पुराण को ग्रहण कर उनका 2. 5 सम्यक्त्व, 5 चारित्र, 5 महाव्रत, 5 व्यवहार, 5 आचार, 5 स्वभाव (रहस्य) जाननेवाले, पृथ्वी के समान सहिष्णु, कमल पत्र की समिति, 5 स्वाध्याय, 1 संवेग इति 36 गुण । तरह निर्लेप, वायु की तरह अप्रतिबद्ध, पर्वत की तरह निष्कंप, सागर 3. 5 इन्द्रिय स्वरुप, 5 इन्द्रिय के विषय का स्वरुप, 5 प्रमाद, 5 की तरह क्षोभरहित, केंचुए की तरह गुप्तेन्द्रिय, जातिमान स्वर्ण की तरह आस्रव, 5 निंद्रा, 5 कुभावना (संविल्ष्ट बावना), 6 षड्जीवनिकाय स्वाभाविक तेजस्वी, चन्द्र जैसे सौम्य, सूर्य जैसे प्रकट तेजवंत, जल की रक्षा इति 36 गुण की तरह सर्वजगत् के कर्ममल को हरनेवाले, गगन (आकाश) की तरह 4. 6 वचन दोष, 6 लेश्या, 6 आवश्यक, 6 द्रव्य, 6 दर्शन, 6 भाषा अपरिमित (असीम) ज्ञानी, मतिकेतु (बुद्धि निधान) श्रुतकेतु (श्रुतनिधि), के ज्ञाता - इति 36 गुण। अतीन्द्रियार्थदर्शी, सूत्रार्थ में अति निपुण, एक मात्र आगामी भावी 5. 7 भय, 7 पिण्डेषणा, 7 पानैषणा, 7 सुख, 8 मद के ज्ञाता - (मोक्ष) सुख के गवेषक (खोजने वाले), दोष-दुर्गुणों से रहीत, तीन दंड इति 36 गुण। से रहित, तीन गारव से रहित, तीन शल्य से रहित, तीन गुप्ति से गुप्त, 6. 8 ज्ञानाचार, 8 दर्शनाचार, 8 चारित्राचार, 8 वादीगुण, 4 बुद्धि इति 36 गुण। त्रिकरण विशुद्ध, चार प्रकार की विकथा के त्यागी, चार कषाय के 7. 8 कर्म, 8 अष्टांग योग, 8 महासिद्धि, 8 योगदृष्टि, 4 अनुयोग के त्यागी, चार प्रकार की विशुद्ध बुद्धि से युक्त, चतुर्विधाहार निरालंबमति ज्ञाता - इति 36 गुण। वाले, पाँच समिति से समित, पञ्चमहाव्रतधारी, पाँच प्रकार के निग्रंथ 8. 9 तत्त्व, 9 ब्रह्मचर्य गुप्ति, 9 निदान, 9 कल्पविहार के स्वरुप के निदान के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारित्र के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारित्रलक्षण ज्ञाता - इति 36 गुण। से संपन्न, छ: प्रकार की विकथा के त्यागी, षड् द्रव्य विधि विस्तार के 9. 10 असंवर, 10 संक्लेश, 10 उपघात, 6 हास्यादिषट्क के ज्ञाता ज्ञाता, षट्स्थान विशुद्ध प्रत्याख्यान के उपदेशक, षड् जीवनिकाय के - इति 36 गुण प्रति दयावान्, सात भय से रहित, सात प्रकार के संसार के ज्ञाता, 10. 10 समाचारी, 10 चित्तसमाधि, 16काय इति 36 गुण । सप्तविध गुप्तोपदेशक, आठ प्रकार के मान (मद) के मर्दक (नष्ट करने 11. 10 प्रतिसेवा, 10 शुद्धि (आलोचना) दोष, 4 विनय समाधि 4 वाले),आठ प्रकार के बाह्यध्यान के योग से रहित, आठ प्रकार के श्रुतसमाधि, 4 तपः समाधि, 4 आचार समाधि के ज्ञाता - इति अभ्यंतर (धर्म, शुक्ल) ध्यान युक्त, आठों प्रकार के कर्मो की ग्रन्थियों के 36 गुण। भेदक, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के पालक, दस प्रकार के 12. 10 वैयावृत्त्य, 10 विनय, 10 धर्म (क्षमादि) 6 अकल्प्य के ज्ञाता श्रमण-धर्म के ज्ञाता, ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमा के ज्ञाता, ग्यारह - इति 36 गुण। प्रकार की ज्ञान संस्कार की विधि के ज्ञाता (एकारससातियक्खर 13. 10 रुचि, 12 अङ्ग, 12 उपाङ्ग, 2 शिक्षा के ज्ञाता इति 36 गुण । विहिवियाणगं), बारह भिक्षु प्रतिमा को स्पर्श करनेवाले, बारह प्रकार के 14. 11 उपाशक प्रतिमा, 12 व्रत, 13 क्रियास्थान के ज्ञाता - इति तप और बारह भावना से भावित मतिवाले, द्वादशाङ्ग सूत्रार्थपारगामी, 36 गुण। शिष्यादि समुदायवान् इत्यादि लक्षणोपेत होते हैं।" 15. 12 उपयोग, 10 प्रायश्चित, 14 उपकरण के ज्ञाता - इति 36 जैसे एक दीपक सैंकडों दीपकों को प्रज्वलित करता है वैसे गुण। एक सुविहित आचार्य स्वयं को एवं अन्य अनेकों को प्रकाशित 16. 12 तप, 12 भिक्षु प्रतिमा, 12 भावना के ज्ञाता - इति 36 गुण । (प्रतिबोधित करते हैं।" 17. 14 गुणस्थान, 14 प्रतिरुपादि (प्रतिरुप, तेजस्वी, युगप्रधान 'पंचिंदिय सूत्र' में आचार्य के छत्तीस गुण निम्नानुसार दर्शाये आगमवंत, मधुरवचन, गंभीर, धैर्यवान, उपदेशपरायण, अपरिस्रावी, सौम्य, संग्रहशील, अभिग्रहमति अविकथ्य, 5 - स्पर्शेन्द्रिया पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोकनेवाले 17. अ.रा.प्र. 2/234,235 9- नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के धारक 18. पंचिंदिय सूत्र - दो प्रतिक्रमण सार्थ, द्वितीय सूत्र । 19. गुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिकाकुलकम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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