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[238]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन
अचपल, प्रशान्तचित्त), 8 सूक्ष्म के ज्ञाता - इति 36 गुण। 18. 15 योग, 15 संज्ञा, 3 गारव, 3 शल्य के ज्ञाता - इति 36 गुण। 19. 16 उद्गम दोष, 16 उत्पादन दोष 4 अभिग्रह के स्वरुप के
निरुपक - इति 36 गुण। 20. 16 वचनविधि, 17 संयम, 3 विराधना के स्वरुप के ज्ञाता -
इति 36 गुण। 21. 18 दीक्षा हेतु अपात्र के दोष के ज्ञाता एवं 18 प्रकार के पापस्थान
के स्वरुप के निरुपक - इति 36 गुण । 22. 18 शीलाङ्ग के उपदेशक, 18 प्रकार के ब्रह्मचर्य के उपदेशक -
इति 36 गुण । 23. 21 प्रकार के उत्सर्ग दोष के ज्ञाता एवं 17 प्रकार के मरण स्वरुप
के ज्ञाता - इति 36 गुण। 24. 20 समाधिस्थान, 10 एषणा दोष 5 ग्रासैषणा एवं । प्रकार के
मिथ्यात्व के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 25. 21 शबल दोषस्थान एवं 15 शिक्षा स्वरुप के ज्ञाता - इति 36
गुण। 26. 22 परिषह एवं 14 अभ्यन्तर ग्रन्थ (ग्रन्थि) के ज्ञाता - इति 36
गुण।
27.5 वेदिका (आसन/बैठना) दोष, 6 आरभटादि प्रतिलेखन
(पडिलेहण) दोष एवं 25 प्रतिलेखन के स्वरुप के ज्ञाता - इति
36 गुण। 28. 27 अणगार (साधु) गुण, 9 कोटि विशुद्धि के ज्ञाता-इति 36
के अनुसार आचार्यों के आचारवान् आदि 8, तप 12, आचेलक्यादि 10 गुण (स्थितकल्प) और छ: आवश्यक - ये 36 गुण हैं । 22 रत्नकरंडक श्रावकाचार के अनुसार 12 तप, 6 आवश्यक, 5 आचार, 10 यतिधर्म और तीन गुप्ति - ये आचार्य के 36 गुण हैं।3 .
प्रत्येक भव्यात्मा को जैनागमों में वर्णित एसे अनेकों महान गुणों के धारक आचार्य भगवन्त का संपूर्णतया विनय, वैयावच्च, भक्ति, बहुमानादि अवश्य करना चाहिए। गुरु/आचार्य के विनय से लाभ :
गुरु/आचार्य शिष्य की भवव्याधि के चिकित्सक होने से शिष्य के लिए गुरु का बहुमान ही साक्षात् मोक्ष है; क्योंकि गुरु मोक्ष के प्रति अप्रतिबद्ध सामग्री के हेतु होने से गुरु का बहुमान करने से परमगुरु तीर्थंकर का संयोग होता है जिससे निश्चयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है।24 लज्जा, दया, संयम, ब्रह्मचर्य और विशुद्धि के स्थानरुप गुरु की आत्म-कल्याण इच्छुक शिष्य को सतत पूजा (वंदन, बहुमान, वैयावृत्य) करनी चाहिए। आचार्य को भावपूर्वक किये गये नमस्कार बोधिलाभ (सम्यकत्व) कारक होते हैं, सर्व पापों का प्रणाशक और सर्वमङ्गलों में तृतीय मङ्गल हैं।26 आचार्य की आशातना से हानि :
आचार्य की हीलना/आशातना या निंदा करने से जीव अनंत संसारी होता है। कदाचित् प्रज्वलित अग्नि उसे न जलाये, कालकूट विषभक्षण प्राण नाश न करे तथापि आचार्य की हीलना से जीव मोक्ष प्राप्त नहीं करता 17 जो आचार्य की आशातना करता है वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को दंड से प्रहार कर दूर भगाता/निषेध करता है। आचार्य की आशातना से किल्विषिक देव में जन्म, इन्द्रियहीनता, अबोधि, दुःख, दरिद्रता आदि प्राप्त होते हैं।29
___ अत: जीवात्मा को गुरु/आचार्य की किसी भी प्रकार की आशातना, अवहेलना या निंदा से बचकर विनयपूर्वक रहना चाहिए। उवज्झाय (उपाध्याय) :
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'उवज्झाय' पद का वर्णन करते हुए कहा है, "शिष्य जिनके पास आकर पढते है, जिनके पास जिनप्रवचन सूत्रतः स्मरण किया जाता है, जो विद्वानों को जिनकथित बारह अङ्ग का उपदेश देते हैं /स्वाध्याय करते-कराते हैं, जिनसे श्रुत का लाभ हो, जिनके द्वारा शिष्यों की कुबुद्धि, मनः पीडा, चिन्ता, दुर्ध्यानादि का नाश होता है, जो द्वादशाङ्ग का स्वयं यथाशक्ति अध्ययन करते हैं, अन्य को कराते हैं, सूत्रअध्यापक, स्वाध्याय-पाठक, स्व पर के हितचन्तक को उवज्झाय/ उपाध्याय कहते है।
29. 29 लब्धि एवं 8 प्रभावक के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 30. 29 पापश्रुत के स्वरुपज्ञाता एवं 7 विशुद्धि के गुण स्वरुप के
ज्ञाता - इति 36 गुण। 31. 30 मोहस्थान एवं 6 अन्तरङ्ग अरिषट्क (अप्रयुक्त कामादि) के
स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण । 32. 31 सिद्ध के गुण एवं 5 ज्ञान के स्वरुप के ज्ञाता - इति 36
गुण।
33. 32 प्रकार के जीव भेद एवं 4 प्रकार के उपसर्ग के स्वरुप के ... ज्ञाता - इति 36 गुण। 34. वंदन के 32 दोष एवं 4 प्रकार की विकथा के स्वरुप के ज्ञाता -
इति 36 गुण । 35. 33 आशातना एवं 3 वीर्याचार के ज्ञाता - इति 36 गुण। 36. 32 प्रकार की गणिसंपदा के धारक एवं 4 प्रकार के विनय । स्वरुप के ज्ञाता - इति 36 गुण।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में भी क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णीने आचार्य के गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि, "आचार्य आचारवान् आधारवान्, व्यवहारवान, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत और उत्पीलक होते हैं। अपरिस्रावी, निर्यापक, प्रसिद्ध कीर्तिमान, और निर्यापक के गुणों से युक्त होते हैं।20 बोधपाहुड के अनुसार आचारवान् , श्रुताधार, प्रायश्चित, आसनादिद (आचार्य के आसन पर या आचार्य पद पर बैठने योग्य), आयापायकथी, दोषाभाषक, अस्रावक, सन्तोषकारी, निर्यापक - ये आठ गुण तथा अनुद्दिष्टभोजी, शय्याशन और आरोगभुक्, क्रियायुक्त, व्रतवान्, ज्येष्ठ सद्गुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, द्विनिषद्यक, 12 तप तथा 6 आवश्यक - ये छत्तीस गुण आचार्यों के हैं ।। अनगार धर्मामृत
20. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/242, भगवती आराधना मूल-417, 418 21. वही, बोध पाहुड टीका-1/2 22. वही, अनगार धर्मामृत-916 23. वही, रत्नकरंडक श्रावकाचार - षोडशकरण भावना में आचार्य भक्ति । 24. अ.रा.पृ. 2/339 25. दशवैकालिक मूल-9/1/13 26. अ.रा.प. 2/240 27. दशवैकालिक मूल-9/17 28. वही-9/2/4 29. दशवैकालिक-अध्ययन-9 30. अ.रा.पृ. 2/910
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