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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [9] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की शिष्यपरम्परा आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के हाथ से करीब 250 दीक्षाएँ हुई थीं परंतु जो लोग आपके कठोर आचार पालन एवं दृढ अनुशासन में नहीं रह पाये वे यत्र-तत्र शिथिलाचारी संवेगी, ढूंढकों, ('ढूँढक' यह एक सम्प्रदाय का नाम है) में मिल गए फिर भी आपका जो भी शिष्य-शिष्या परिवार वर्तमान में हैं वह सभी आचार पालन में दक्ष एवं शासन प्रभावना में अतिशय निपुण हैं। जिसमें कुछेक का यहाँ परिचय दिया जा रहा हैंश्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज: प्रसन्न मुद्रा, विशाल भाल, भद्र प्रकृति, मधुर भाषी, आपका जन्म वि.सं. 1896 में चैत्र शुक्ला चतुर्थी के दिन शान्त-दान्त, कषायों से बचने में प्रतिपल सावधान, स्वच्छ-सुन्दर ओसवंशीय कंकु चोपडा गोत्रीय शा. ऋद्धिकरणजी की धर्मपत्नी लिखावट, वैयावृत्य और स्वाध्यायलीनता मनि मोहनविजयजी अचलादेवी की कुक्षी से किशनगढ़ (राज.) में हुआ था। आपका की पहचान थी। जन्म का नाम धनराज था । बारह वर्ष की आयु में ही आपने व्यवहारिक वि.सं. 1959 में आपको गुरुदेव के हाथ से पंन्यास पद शिक्षा ले ली एवं धार्मिक शिक्षा में भी पंचप्रतिक्रमण जीवविचारादि एवं वि.सं. 1966 में रानापुर(म.प्र.)में तत्कालीन आ.श्री.वि. धनचंद्र चार प्रकरण, छ: कर्मग्रंथ और प्रवचनसारोद्धारादि ग्रंथ कंठस्थ कर सूरीश्वर जी के हाथ से उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। आपके द्वारा लिये थे। श्री सिद्धाचलादि अनेक तीर्थों की यात्रा भी की थी। हस्तलिखित क्रियाविधि और समाचारी ही गच्छ में प्रमाण माने आपने यति श्री लक्ष्मीविजयजी के पास वि.सं. 1917 में अक्षयतृतीया, जायेंगे - ऐसी गुर्वाज्ञा इस गच्छ में अद्यावधि प्रवर्तित है। आपका गुरुवार के दिन धानेरा (गुजरात) में यति दीक्षा ग्रहण की। स्वर्गवास वि.सं. 1977 के पौष सुदि चतुर्थी को कुक्षी, जिला-धार दीक्षा के पश्चात् आपने अनेक छंद, थोकडे, सैद्धांतिक बोल, (म.प्र.) में हुआ था। उत्तराध्ययन सूत्र एवं दशवैकालिक सूत्र कंठस्थ किये। तत्पश्चात् व्याकरण श्री प्रमोदरुचिजी2:- - के अध्ययन हेतु आप पंन्यास श्री रत्नविजयजी (आ.वि. राजेन्द्रसूरि आपका जन्म मेवाड़ देशीय भींडर गाँव में वि.सं. 1898 जी) के पास आये। यहाँ आपने चन्द्रिका की तीनों वृत्ति एवं पंच में कार्तिक सुदि 5 के दिन शिवदत्त विप्र की धर्मपत्नी मेनावती काव्य का अध्ययन किया एवं शुद्ध साध्वाचार पालन की तीव्र उत्कण्ठा से हुआ था। आपके छोटे भाई रघुदत्त और छोटी बहन रुक्मणी थी। से वि.सं. 1925 में अषाढ वदि दशमी-बुधवार के दिन आचार्यश्री वि.सं. 1913 माघ सुदि 5 गुरुवार को आपने पं. अमररुचि के पास के साथ क्रियोद्धार कर उनके अपसंपत् शिष्य बने । आपको वि.सं. भींडर में ही यति दीक्षा ली। सं. 1925 आषाढ वदि 10 को आपने 1925 में मार्गशीष शुक्ल पंचमी को आचार्यश्री ने खाचरोद में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के साथ क्रियोद्धार करके शुद्ध उपाध्याय पद एवं वि.सं. 1965 में ज्येष्ठ शक्ला एकादशी के दिन मुनि जीवन अंगीकार कर आप आचार्यश्री के प्रथम दीक्षोपसंपद श्रीसंघ ने जावरा में आचार्य पद प्रदान किया। शिष्य बने। जैनागम पञ्जाङ्गी एवं अन्य सभी प्रकार से साहित्य के - आप संगीत शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, इसलिए आपको आप अच्छे ज्ञाता थे। श्री संघ में आपको सिद्धांतसर्वज्ञ''आगमचर्चा ___ 'संगीतवारिधि' पद से अलङ्कृत किया गया। गुरुभक्ति, सरलता, चक्रवर्ती' की पदवी प्रदान हुई थी। आपने 'श्री अभिधान राजेन्द्र मृदुता और समत्व की उपासना आपके विशिष्ट गुण थे। श्री हुकमविजयजी कोश' की रचना में गुरुदेवश्री को पूर्ण सहयोग किया। अपनी पाट आपके शिष्य थे। आपका स्वर्गवास वि.सं. 1938 आषाढ वदि 14 पर अपने गुरुभाई श्री दीपविजयजी को अपने उत्तराधिकारी के रुप को वाँगरोद में हुआ था। में घोषित कर आपने वि.सं. 1977 में भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा (महावीर श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा:जन्म वाचन दिन) सोमवार को रात्रि 9.00 बजे वागरा (राज.) में आपका जन्म भोपाल (म.प्र.) में श्रीमाली भगवानजी की देहत्याग किया, जहाँ आज समाधि मंदिर बना हुआ हैं। धर्मपत्नी सरस्वती की कुक्षी से वि.सं. 1945 में अक्षय तृतीया के उपाध्याय श्री मोहनविजयजी: दिन हुआ था। आपका जन्म का नाम 'देवीचन्द' था। बाल्यकाल वि.सं. 1922 में भाद्रपद वदि द्वितीया को आपका जन्म में ही माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् जैसेलमेर निवासी श्रेष्ठी संबूजा (आहोर, (राज.) के निकट) गाँव में ब्राह्मण वरदीचन्द की केसरीमलजी के साथ आप आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के पत्नी लक्ष्मीबाई की कुक्षी से हुआ था। आपका जन्म का नाम मोहन दर्शनार्थ पहुंचे एवं उनके सदुपदेश से वैराग्य वासित होकर वि.सं. था। कर्मसंयोग से 5 वर्ष की वय में आप गूंगे हो गये एवं हाथ- 1952 में अक्षय तृतीया के दिन आलीराजपुर में दीक्षा एवं वि.सं. पैर संधिवात से ग्रस्त हो गए। इसी हालत में आप वि.सं. 1932 1954 माघ सुदि पंचमी को आहोर में बडी दीक्षा ली एवं मुनि में आहोर में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के संपर्क में आये । श्री दीपविजयजी नाम से प्रसिद्ध हुए। आपको वि.सं. 1973 में गुरु कृपा से तत्काल आप पूर्ण स्वस्थ हो गए। तब अपने जीवन विद्वमंडल ने विद्याभूषण' और साहित्य विशारद' -पद से अलंकृत को गुरुचरणों में समर्पित करते हुए वि.सं. 1933 में फाल्गुन सुदि 70. श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरि जीवनचरित्र से उद्धृत द्वितीया के दिन जावरा (म.प्र.) में आपने आचार्यश्री के पास दीक्षा 71. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि काव्य से उद्धृत, धरती के फूल, पृ. 319, 320 ग्रहण की। 72. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि काव्य से उद्धृत, धरती के फूल, पृ. 320-21-22 73. श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि जीवन चरित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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