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कृतज्ञता ज्ञापन
वि.सं. 2043, अश्विन शुक्ला द्वितीया की मध्यरात्रि को 11.30 बजे का नीरव समय। रानी स्टेशन (राज.), दादावाडी में मैं विश्राम कर रही थी । विश्वपूज्य प्रतिक्षणानुस्मरणीय परम योगीन्द्राचार्य गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज, जिनके प्रति शैशवावस्था से दृढ श्रद्धा, आस्था एवं श्रीचरणों में अडिग विश्वास है, स्वप्नसृष्टि में उनकी मनमोहक छवि प्रगट हुई-दुर्बलतनु किन्तु रजतरश्मियुक्त तेजस्वी काया, कमलवदन, उन्नतभाल, आकर्णनेत्रों से निःसृत अमृतवर्षायुक्त वरदमुद्रा ! उस प्रेय और श्रेय मुद्रा से दृष्टि हट नहीं सकी, मानो स्तभित हो गई। स्वप्निल सृष्टि में ही गुरुदेवश्री स्वमुखारविंद से सुमधुर स्वर में महामंत्र नवकार से कर्णकुम्भयुगल को आपूरित कर गये; शिष्या का जीवन धन्य हो गया ।
वि.सं. 2043 में संयमजीवन के प्रथम वर्षावास में घटी इस अलौकिक घटना में ऐसे दैदीप्यमान भव्य भवितव्यता के संकेत थे, पर किसे पता था - भविष्य में क्या छिपा है ? कुछ दिन बाद, जिल्दों की नमी दूर करने के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश के सातों भाग मंजूषा से निकाल कर बाहर धूप में रखे, तब कुतूहलवृत्ति से मैंने जिज्ञासावश इसका उपोद्धात देखा 'क्या लिखा है इसमें ?' मैं अल्पसंस्कृतज्ञान के आधार पर उसे समझने का प्रयास करने लगी, तभी मेरी गुरुवर्याश्री ने कहा
रहने दे, ये राजेन्द्र कोश के सात भाग है; तूं क्या पढेगी इसे ? गुर्वाज्ञा से मैंने अपने प्रयास को विराम दे दिया, किन्तु अन्तःकरण पर अभिधान राजेन्द्र कोश अंकित हो गया। बस, अब एकमात्र चिन्तन धारा बह चली- कैसे भी हो, इसे पढना तो है। इस घटना के बाद दो साल बीत गए, अहमदाबाद में वि.सं. 2045 का चातुर्मास पूर्ण कर कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास परिवर्तन किया। दूसरे दिन हमने हिम्मतभाई बैंकर के घर नवरंगपुरा में विश्राम किया, तब वर्तमानाचार्य श्री के सांसारिक भ्राता पोपटलाल धरु दर्शनार्थ आये। उनसे अध्ययन संबंधी चर्चा में आगे पढने की और पीएच. डी. करने की हृदय की भावना प्रकट हो गई। उन्होंने कहा- आप आचार्य श्री के नाम पत्र लिखकर दीजिए और अध्ययन हेतु कटिबद्ध हो जाइये, मैं अध्ययन की आज्ञा दिलवाने का पूरा प्रयास करूँगा ।
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और अनुक्रम से, फलस्वरुप गुर्वाज्ञा प्राप्त होने पर मैंने अहमदाबाद से 12 वी कक्षा की परीक्षा उतीर्ण की। तत्पश्चात् श्रीयुत सुरेन्द्रजी लोढा, देवेन्द्रजी चपरोत इत्यादि के सहयोग से मंदसौर से बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1993 का चातुर्मास राजेन्द्र उपाश्रय, इन्दौर में हुआ और ज्ञानपंचमी के दिन पुनः राजेन्द्र कोश हाथ में आ गये । अन्तर्मानस में सोयी भावना पुनः जागृत हो गयी । हृदय में अपूर्व हर्षोल्लास एवं मन में दृढ संकल्प हुआ- 'अब तो इसे पढकर ही विराम लेना ।' योगानुयोग, बी. ए. द्वितीय वर्ष के संस्कृत विषय के अध्ययन के तारतम्य में 19 दिसम्बर 1993 को विद्वद्वर्य भाई डो. गजेन्द्र जैन से मेरा परिचय हुआ । लघुसिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन करते-करते साध्वी अवस्था में संयमजीवन की सारी दिनचर्या एवं स्वतन्त्र चातुर्मास की सारी जिम्मेदारियों को क्रियान्वित करते हुए लौकिक शिक्षा ग्रहण करने का एकमेव कारण 'अभिधान राजेन्द्र कोश' पर पीएच. डी., आपके सामने रखा और शोधप्रबंध लिखने की भावी योजना प्रकट की, साथ ही तद्हेतु संपूर्ण मार्गदर्शन एवं सहयोग हेतु आश्वासन माँगा ।
परमात्मा श्री गोडी पार्श्वनाथ की अचिन्त्य कृपा, परमपूज्य कोशप्रणेता गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर महाराज की दिव्य देदीप्यमान अमृताक्त आशीर्वृष्टि, वर्तमानाचार्य मेरे गुरुदेवश्री की आज्ञा, आशीर्वाद एवं प्रेरणा, दूरदेशस्थ होने पर भी मेरी गुरुमाता का सतत सहयोग - ये सभी शुभ निमित्त उपस्थित होते गये, फलस्वरुप भाई श्री गजेन्द्रजीने मेरी ज्ञानरुचि एवं सतत ज्ञानार्जन की ग्रहणशक्ति देखकर मेरा अनुरोध - विनय स्वीकार कर लिया। आप एवं आपकी धर्मपत्नी अ. सौ. श्रीमती मंजुलता जैन के अविस्मरणीय योगदान, सतत परिश्रम, प्रेरणा, प्रोत्साहन, सहयोग और अनेको विघ्नों में भी समता, सहनशीलता, सरलता के साथ ही ज्ञानप्राप्ति कराने में सहज, सरल, सरस, सुबोध शैलीने मेरे विद्याध्ययन को कभी भी विराम नहीं लेने दिया इसका परिणाम यह हुआ कि बाह्याभ्यन्तर अनेक प्रतिकूलताओं में भी यह ज्ञानाभ्यास चलता रहा, और बी.ए. अध्ययन के बाद संस्कृत विषय में एम.ए. अध्ययन भी पूरा हो गया ।
अब बारी थी, मेरे मुख्य कार्य की; श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का हार्द जानने की। इसके लिए भाई श्री गजेन्द्रजी से ही श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन का अध्ययन आरम्भ किया और अभिधान राजेन्द्र कोश के अध्ययन के पूर्व श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन का संज्ञा - सन्धि प्रकरण प्रकाशित भी हो गया मेरा विषयप्रवेश हो चुका था; अभिधान राजेन्द्र कोश पर शोधप्रबन्ध का निर्देशन प्रौढतापूर्ण हो, इसके लिए भाई श्री गजेन्द्रजीने ही परमादरणीय डो. हर्षदराय धोलकियाजी से निवेदन किया जो अनेक शोधकार्यों के अनुभवी निर्देशक तो हैं ही, साथ ही सतत विहार में रहने वाले साधु-साध्वियों को पीएच. डी. का निर्देशन करने के अनुभवी हैं। विद्वद्वर्य डॉ. धोलकियाजीने पीएच.डी. का निर्देशक बनना सहर्ष स्वीकार कर लिया और विषय चयन से लेकर अब तक
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