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[270]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन विरमण व्रत । द्रव्य से पृथ्वी, अप् (जल), तेजः (अग्नि), वायु, वनस्पति
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अहिंसा का माहात्म्य (ये पाँच स्थावर) और त्रस (द्वीन्द्रियादि) किसी भी प्रकार के सूक्ष्म या दर्शाते हुए कहा है24 - "अहिंसा देव मनुष्य एवं असुर लोक को संसार बादर जीव की क्षेत्र से लोक में या अलोक में, काल से दिन में या रात्रि सागर से पार उतरने हेतु द्वीप हैं। वह अज्ञान के अंधकार को नष्ट करके, में, भाव से राग से या द्वेष से, अकेले या सभा में, सुषुप्तावस्था में या हेय-ज्ञेय-उपादेय के ज्ञान रहित मूढात्माओं के विशुद्ध बुद्धिप्रभा को जाग्रतावस्था में किसी भी प्रकार से मन-वचन-काय से हिंसा करूँगा प्रकाशित करनेवाली होने से दीपक हैं। संसार-सागर में संकटों से रक्षक नहीं, कराउँगा नहीं और करनेवालों की अनुमोदना करूँगा नहीं; तथा होने से गति है। गुणों का स्थान होने से अहिंसा प्रतिष्ठा है। अहिंसा ही भूतकाल में जो हिंसा मुझसे हो गई हो उसकी निंदा करते हुए गर्हापूर्वक निर्वाण/मोक्ष, निवृत्ति अर्थात् स्वास्थ्य, समाधि, समता और शक्ति है। त्याग करता हूँ, वर्तमान में हिंसा नहीं करता हूँ और आगामी काल द्रोह के त्याग रुप होने से अहिंसा 'शांति' है। यश-ख्याति का कारण (भविष्य में जीव हिंसा का त्याग करता हूँ, प्रतिज्ञा ग्रहण करता हूँ।10 - होने से वह 'कीर्ति' है। कोमल (कमनीय) होने से अहिंसा क्रांति है। यह मुनि का प्रथम महाव्रत हैं। इसे समझने हेतु हमें प्रथम 'हिंसा- अहिंसा रति एवं विरति है। श्रुतज्ञान की अङ्ग एवं कारण होने से वह अहिंसा' को प्रतिपक्ष सहित समझना होगा।
'श्रुताङ्ग हैं। दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है - "पढमं नाणं तओ अहिंसा :
दया।''25 तृप्ति का कारण होने से अहिंसा 'तृप्ति' है। जीवों की रक्षा अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण हैं। अहिंसा वह धुरी है करनेवाली होने से अहिंसा 'दया' हैं। प्राणियों को सकल बंधनों से जिस पर समग्र जैन आचार-विधि धूमती है। जैनागमों में अहिंसा को मुक्त करनेवाली होने से अहिंसा 'विमुक्ति' है। क्रोध का निग्रह करानेवाली भगवती कहा गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में अहिंसा की व्याख्या होने से वह 'क्षान्ति' है। अहिंसा की आराधना सम्यग्बोध रुप की जाने करते हुए आचार्यश्रीने कहा है- हिंसा का अभाव अहिंसा है। प्राणियों से अहिंसा सम्यक्त्वाराधना है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में अहिंसा मुख्य के प्राणवियोग के प्रयोजन पूर्वक के व्यापार का अभाव अहिंसा है। होने से 'महन्ती हैं। आगमों में कहा भी है कि, "जिनेश्वरों के द्वारा सर्व प्राणीहिंसा का त्याग अहिंसा है। अप्रमतता से शुभयोगपूर्वक (प्राणियों जीवों की रक्षा के लिये निश्चय से एक ही व्रत 'प्राणातिपात विरमण के) यावज्जीव प्राणों के नाश का अभाव अहिंसा हैं। बस और स्थावर व्रत' निदिष्ट किया गया हैं।''26 सर्वज्ञधर्म की प्राप्ति रुप होने से अहिंसा जीवों की रक्षा अहिंसा हैं। प्रमाद के योग से प्राणीहिंसा के त्यागरुप 'बोधि' है क्योंकि अनुकम्पा ही बोधि का कारण है। सफलता का प्रथम व्रत को 'अहिंसा' कहते हैं।।
कारण होने से अहिंसा 'बुद्धि' हैं। कहा भी है -"बहत्तर कला में अहिंसा का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने आगे कहा है कि प्रवीण होने पर भी जो धर्मकला को नहीं जानता है वह पुरुष पंडित भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, होते हुए भी मूर्ख है।" और अहिंसा ही धर्म है। चित्त की दृढतापूर्वक भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, पशुओं को जैसे
10. अ.रा.पृ. 5/284; साधु प्रतिक्रमण, पाक्षिक सूत्र, प्रथम आलापक आश्रम, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ
11. क. न हिंसाऽहिंसा। - निशीथ चूर्णि -2 उद्देश; दशवैकालिकआधारभूत है, वैसे ही अहिंसा सर्व जीवों के लिए आधारभूत हैं।
नियुक्ति । अ. अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करनेवाली हैं ।।। ख. प्राणवियोगप्रयोजन व्यापाराभावे।-द्वात्रिशत् द्वात्रिशिका-21 अहिंसा वह शाश्वत धर्म है जिसका उपदेश सभी तीर्थंकर करते हैं।
ग.प्राणिघातवर्जने। पञ्चवस्तुक, प्रथम द्वार आचारांग सूत्र में कहा गया है - भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी
घ.प्रमत्तयोगात् प्राणव्यरोपणं हिंसा । तत्त्वार्थ सूत्र-778
ङत्रसस्थावर जीवरक्षायाम्। - संथारगपयन्त्रा तीर्थंकर यह उपदेश करते हैं कि "किसी भी प्राण, भूत, जीव और
च. प्रमादयोगात्सत्त्वव्यरोपणविरतिरुपे प्रथमे व्रते। सत्त्व को किसी भी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए,
- अ.रा.भा. 1, अहिंसा शब्द, पृ. 871, 872; धर्मसंग्रह न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।
सटीक 3/4 समस्त लोक की पीडा को जानकर अरिहंतों ने इसका प्रतिपादन किया 12. अ.रा.भा. 873 हैं। सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी 13. क. आचारांग-1/4/1/275, 5/301 भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसा ही समग्र धर्म का सार हैं, इसे
14. क. सूत्र कृतांग-1/1/4/10, एवं 1/11/10; अ.रा.पृ. 878, 879 सदैव स्मरण में रखे 14 पाक्षिक सूत्र में कहा गया है कि, प्रवचन का
15. पवयणस्स सारो खलु छः जीवनिकाय संजमं उवएसियं । -अ.रा.पृ. 5/
301; पाक्षिक सूत्र-साधु प्रतिक्रमण सार षट्काय जीवों की रक्षा (जीव हिंसा के त्यागरुप संयम) हैं।
16. दशवैकालिक सूत्र 6/9 दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के हित साधन में
17. भक्त परिज्ञा-91 अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया हैं।16 18. दशवैकालिक सूत्र 1/1 अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। अहिंसा, संयम और तपरुप 19. अ.रा.पृ. 2/174 एवं भा. 6 पृ. 1061; आचारांग 1/1/7/56 धर्म उत्कृष्ट मङ्गल हैं । सदैव इस धर्म में जिसका मन लीन रहता है उसे
20. अ.रा.पृ. 1/879; सूत्रकृताङ्ग सटीक-2/2 देवता भी नमस्कार करते हैं।18
21. अ.रा.पृ. 1/875; प्रश्न व्याकरण 2/6/23
अ.रा.पृ. 1/878, 879; सूत्रकृताङ्ग 1/14/9 एवं 1/1/91 राजेन्द्र कोश में कहा है - साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक
23. अ.रा.पृ. 1/874; प्रश्न व्याकरण सूत्र 2/6/22 देखता है, उसे अहितकर मानता है, इसलिए (वह) हिंसा से निवृत्त होने 24. अ.रा.भा. 1, अहिंसा शब्द, पृ. 872, 873 में समर्थ होता हैं। अहिंसा को परम धर्माङ्ग कहा है। सुसाधु 25. दशवेंकालिक मूल 4/10 अहिंसापूर्वक संयमित होते हैं। सभी जीव दुःख से आक्रांत हैं अत:
26. एकचिय एकवयं, निद्दिटुं जिणवरेहि सव्वेहि।
पाणाइवायविरमण - सव्वासत्तरस रक्खट्टा ॥1- अ.रा.भा. | पृ. 873, किसी की भी हिंसा न करें। भगवान जिनेश्वर देवने जगत के सभी
882; भा. 4 पृ. 2457; जीवों की रक्षा एवं दया के लिए प्रवचन को कहा हैं।
हारिभद्रीय अष्टक-16; धर्मरत्र प्रकरण, अधिकार-1, पृ. 14
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