________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
द्वितीय परिच्छेद... [55]
| 3. अभिधान राजेन्द्र कोश की उपादेयता
'सभी जीवों का कल्याण हो' -इस व्यवहारिक उद्देश्य को लक्ष्य में लेकर तीव्र, मध्यम और मंद बुद्धिवालों को तत्त्व का ज्ञान सरलता से हो सके, इस लिए तीर्थंकरों के उपदेश अर्धमागधी भाषा में हुए। लोग उन अर्थो को ग्रहण करते रहे और अपना कल्याण करते रहे। चतुर्थ काल तक (चौथे आरे तक) आचार्यों की ग्रहणशक्ति अप्रतिम थी, इससे वे गुरु परम्परा से आगमों को ग्रहण करते और जनता को उनकी भाषा में उपदेश करते । ग्रहण और धारणशक्ति की मंदता से आगमों के रक्षण हेतु समस्त जैन श्रुत को प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध किया। प्राकृत भाषा के इन ग्रंथों का विस्तार एवं अर्थ करने के लिये मूल सूत्रों के ऊपर नियुक्तियाँ, भाष्य, चूर्णि और टीकाएँ लिखी गयीं। कालान्तर में इन ग्रंथों का भी अर्थ समझना कठिन हो गया और शब्द का वाच्य-वाचक संबंध ज्ञात न रहने के कारण सप्रसंग अर्थ करना कठिन हो गया। इस कारण से भिन्न-भिन्न कोशकारोंने प्राकृत भाषा के एवं संस्कृत भाषा के कोश ग्रंथ लिखे। परंतु यह पुरा ज्ञान कोशमात्र में ही सीमित रह गया और लोगों को प्राकृत भाषा का अर्थ समझ में न आने से भिन्न-भिन्न अर्थ किये जाने लगे। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया कि जैन आगम साहित्य के सभी प्राकृत शब्दों की सप्रसंग एवं ससंदर्भ व्याख्या की जाये और यह व्याख्या कालान्तर तक दूसरों को यथावत् प्राप्त होती रहे, इसलिए अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे विशालकाय व्याख्या कोश का जन्म हुआ। यह बात 'अभिधान राजेन्द्र कोश लेखनः पृष्ठभूमि' में विस्तार से बतायी जायेगी।
इस महाकोश की उपादेयता अन्य कोशों की अपेक्षा बढ़ जाती है, क्योंकि इसमें जैनागम साहित्य के समस्त प्राकृत शब्दों को अनेक प्रकार से विशिष्ट बनाया गया है। जैसे - प्राकृत के समानान्तर उसका संस्कृत शब्द, प्राकृत शब्द की व्याकरणिक कोटियाँ-लिङ्ग, पुरुष, वचन आदि, एवं व्युत्पत्ति आदि, भिन्न-भिन्न वाच्यार्थ एवं उन अर्थो में प्रयुक्त उस शब्द का प्रयोग किस ग्रंथ में हुआ है, यह संदर्भप्रसंग के साथ स्पष्ट किया गया है, और उपलब्ध मूल सूत्र भी वहीं पर दे दिया गया है, जिससे शब्द का वाच्यार्थ हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाता है।
यदि कोई व्यक्ति किसी संस्कृत शब्द का अर्थ नहीं जानता है और प्राकृत के ध्वनि परिवर्तन के नियमों को थोडा भी जानता है तो वह संस्कृत शब्द का अर्थ इस 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में पा सकता है। उदाहरण के लिये यदि कोई 'पदार्थ' शब्द का अर्थ सस्कृत कोशों से जानकार संतुष्ट नहीं है और वह ध्वनि परिवर्तन के नियमों को जानता है तो वह अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पयत्थ' शब्द के अन्तर्गत 'पदार्थ' शब्द की पूरी व्याख्या समझ सकता हैं।
यह ग्रंथ मात्र जैन साहित्य संबंधी व्याख्याएँ ही प्रस्तुत नहीं करता, अपितु सभी दर्शनों, व्याकरण, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, गणित, शिल्प, इतिहास, इत्यादि उस समय तक विकसित सभी विद्याओं से संबंधित शब्दोंकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत करता है। इससे इस ग्रंथ की उपादेयता सभी साहित्यप्रेमियों के लिये बढ जाती है। जैनाचार संबंधी शब्दों का तो अत्यन्त सूक्ष्म विवरण प्राप्त होता
दर्शन के अध्येता विदेशी विद्वानों को उनकी भाषा में शब्द का अर्थ समझाने से संतुष्टि नहीं मिलती। वे शब्द के मूल रुप, व्युत्पत्ति, प्रयोग एवं उससे संबंधित साहित्य को भी समझना चाहते हैं; और ऐसे में यदि एक-एक ग्रंथ को पढा जाये तो शब्दार्थ की प्रतीति होना सीमित हो जायेगा। इस कमी को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय यह कोश ग्रंथ है। इस कोश ग्रंथ को देखकर कोई भी नातिसंक्षेपविस्तार से किसी भी शब्द को उसके मूल रुप में समझ सकता है।
यदि इसकी उपयोगिता के बारे में भिन्न-भिन्न मनीषियों के विचारों को सुना जाय तो हमें इसकी उपयोगिता का सहज ही अनुमान हो सकता है। साथ ही जो शोध आदि गतिविधियों से सीधे जुड़े हुए हैं वे इसकी उपादेयता का प्रत्यक्ष अनुभव भी कर सकते हैं। आगे के उपशीर्षकों में भिन्न-भिन्न मनीषियों द्वारा व्यक्त विचारों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे इस ग्रंथ की उपादेयता का अनुमान किया जा सकता है।
1. प्रस्तावना, समराइच्चकहा - श्रीमद् हरिभद्रसूरि 2. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ-विश्लेषण पृ. 31
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org